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मानस के राम (रामकथा) - 1






मानस के राम
भाग 1



राम का जन्म


स्वर्गलोक में देवताओं की एक सभा आयोजित की गई। जिसमें ब्रह्मा जी भी सम्मिलित थे। देवता परेशान थे। वह ब्रह्मा जी से शिकायत कर रहे थे कि उन्होंने लंकापति रावण को ऐसा वरदान क्यों दिया जिसकी शक्ति से वह अपराजेय हो गया है। अपने वरदान के मद में चूर रावण ने उत्पात मचा रखा है।‌ देवताओं का स्वर्ग में शांति पूर्वक रहना दूभर हो गया है।
ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान प्राप्त करने के बाद रावण निरंकुश हो गया था। उसके आचरण में उद्दंडता आ गई थी। वह किसी का भी सम्मान नहीं करता था। विशेषतः स्त्रियों पर बल प्रयोग करता था।
रावण के कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया था कि वह देव, दानव, गंधर्व आदि किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता है। वरदान का कवच पहन कर रावण अमर हो गया था। अतः उसे अब किसी का भी भय नहीं था।
देवताओं ने मिलकर ब्रह्मा जी से प्रार्थना की,
"आपके वरदान का दुरुपयोग कर रावण अहंकार में चूर होकर अब देवराज इंद्र को भी चुनौती दे रहा है। अतः हम चाहते हैं कि आप उस दुष्ट के संहार का कोई उपाय बताएं।"
ब्रह्मा जी ने देवताओं के कष्ट पर विचार किया। उनके वरदान से समस्या तो उत्पन्न हो गई थी। लेकिन अंधेरे में जैसे एक किरण राह दिखाती है वैसे ही रावण की एक छोटी सी त्रुटि से उसके अत्याचार के अंत की राह दिखलाई पड़ी। उन्होंने देवताओं से कहा,
"रावण ने जब मुझसे वरदान मांगा था तब देव, दानव और गंधर्व द्वारा ना मारे जा सकने का वर मांगा था। परंतु अहंकार के वशीभूत उसने मनुष्य का नाम नहीं लिया। अब एक मनुष्य ही उसके संहार का कारण बनेगा।"
देवताओं को उनकी बात सुनकर आश्चर्य हुआ। यदि रावण देव, दानव और गंधर्व के हाथों नहीं मारा जा सकता है तो फिर एक मनुष्य उसका अंत कैसे करेगा। उन्होंने अपनी शंका ब्रह्मा जी के समक्ष प्रस्तुत की। ब्रह्मा जी हंसकर बोले,
"इस प्रश्न का उत्तर तो भगवान विष्णु ही देंगे। वह पहले भी सृष्टि के कल्याण हेतु धरती पर अवतार ले चुके हैं। हम सब उनके पास ही चलते हैं।"
ब्रह्मा जी के साथ सारे देवता भगवान विष्णु के पास गए। श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करके उन्होंने अपनी समस्या उन्हें बताई। देवताओं ने उनसे अनुनय करते हुए कहा,
"भगवान आप ही हमें इस दुख से उबार सकते हैं। आप यदि मनुष्य रूप में धरती पर अवतरित हों तो उस रावण का वध कर हमें हमारे कष्टों से मुक्ति दिला सकते हैं।"
देवताओं की करुण पुकार सुनकर विष्णु जी ने कहा,
"मैं आपके और जगत के कल्याण हेतु अयोध्या के राजा दशरथ की चार संतानों में से सबसे बड़े पुत्र के रूप में धरती पर अवतार लूँगा।"
भगवान विष्णु से वरदान पाकर सभी देवता बहुत खुश हुए। वह भगवान विष्णु की जय जयकार करने लगे।

सरयू नदी के तट पर बसी अयोध्या नगरी कौशल राज्य की राजधानी थी। इसे मनु द्वारा बसाया गया था। यह बहुत ही संपन्न और समृद्धिशाली नगरी थी। कौशल राज्य पर इक्ष्वाकु वंश के महाप्रतापी राजा दशरथ राज्य करते थे।
महाराज दशरथ एक वीर योद्धा थे। उन्होंने कई बार देवासुर संग्राम में देवताओं का साथ दिया था। समृद्धि में उनकी का गणना इंद्र और कुबेर से की जाती थी। वह एक प्रजा पालक एवं न्याय प्रिय राजा थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। कौशल राज्य में धन धान्य की कोई कमी नहीं थी। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी।
महाराज दशरथ एक कुशल प्रशासक थे। एक विशाल सेना सदैव उनके राज्य की रक्षा के लिए तैनात रहती थी। शत्रु उनके राज्य की तरफ नजर उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। चारों तरफ गहरी खाई खुदी हुई थी। कई किले और अन्य संरचनाएं थीं।
राजा दशरथ को परामर्श देने के लिए आठ कुशल मंत्री थे। जो उन्हें राजकाज में सहायता प्रदान करते थे। कर प्रणाली ऐसी थी कि राज्य को समुचित धन भी मिल जाता था और करदाता को अधिक भार भी महसूस नहीं होता था। अपराध के लिए दंड भी अपराध की गहराई को देखकर दिया जाता था। किसी के साथ अन्याय नहीं होता था।
वशिष्ठ और वामदेव जैसे ऋषि तथा अन्य ब्राह्मण उन्हें धर्म और अध्यात्म का मार्ग दिखाते थे। जिसके कारण महाराज दशरथ की कीर्ति चढ़ते हुए सूरज के सामान चमक रही थी।

महाराज दशरथ की तीन रानियां थीं। उनके नाम थे कौशल्या, सुमित्रा और कैकेई। महाराज दशरथ के राज्य में चारों ओर सुख ही सुख था। परंतु उनके अपने जीवन में संतान हीन होने का दुख था। उन्हें सदैव यही चिंता सताती रहती थी कि उनके पश्चात उनके विशाल राज्य की बागडोर कौन संभालेगा। रात दिन वह इसी चिंता में घुले रहते थे।
अपनी यही चिंता लेकर एक दिन महाराज दशरथ अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के पास गए। दुखी होकर वह बोले,
"कुलगुरु आपकी कृपा से मेरे राज्य में चहुं ओर सुख व समृद्धि है। विशाल सेना हर तरह से राज्य की रक्षा करने के लिए सक्षम है। प्रजा सुखी और संतुष्ट है। परंतु फिर भी मेरे जीवन में एक कमी है। मैं संतानहीन हूँ। मुझे रात दिन यही चिंता सताती है कि मेरे जाने के पश्चात इस राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा।"
महर्षि वशिष्ठ ने राजा दशरथ से कहा,
"राजन आपकी चिंता उचित है। एक राजा का कर्तव्य है कि वह राज्य को एक योग्य उत्तराधिकारी भी प्रदान करे। अतः मेरी आपको सलाह है कि आप पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराएं। इसके लिए आप ऋष्यशृंग ऋषि के पास जाएं। वह इस यज्ञ को सही प्रकार से संपन्न करा सकते हैं।"
कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ की सलाह पर महाराज दशरथ ऋष्यशृंग ऋषि के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना की कि वह उनके लिए पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन करें। ऋष्यशृंग ऋषि यज्ञ का आयोजन करने के लिए तैयार हो गए।
ऋष्यशृंग ऋषि के निर्देशानुसार सरयू नदी के उत्तर तट पर यज्ञ मंडप बनवाया गया। सारी सामग्री एकत्र की गई। सारी तैयारी हो जाने के बाद शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार यज्ञ आरंभ हुआ।
मंत्रोच्चार के बीच हवन कुंड में घी और अन्य सामग्रियों की आहुति दी जा रही थी। यज्ञ की अग्नि से एक विभूति प्रकट हुई। वह स्वयं अग्निदेव थे। उनकी कांति से सारा वातावरण प्रकाशित हो गया। अग्निदेव ने कहा,
"महाराज दशरथ देवता गण आपसे बहुत प्रसन्न हैं। उन्होंने आपकी प्रार्थना सुन ली है। आपने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया था। आपका मनोरथ सफल हुआ।"
अग्निदेव के हाथ में एक स्वर्णपात्र था। उन्होंने कहा,
"राजन आप अपनी पत्नियों को यह खीर खाने को दें। इसके प्रभाव से आपको पुत्रों की प्राप्ति होगी।"
महाराज दशरथ ने श्रद्धापूर्वक अग्निदेव को प्रणाम किया और खीर से भरा स्वर्णपात्र आदर के साथ ग्रहण कर लिया। उन्होंने वह खीर अपनी तीनों पत्नियों में बांट दी। खीर का आधा भाग कौशल्या को दिया। फिर बचे हुए का आधा भाग सुमित्रा और कैकेई को दिया। उसके पश्चात जो बच गया वह दोबारा सुमित्रा को दिया गया।
सही समय पर तीनों रानियों ने पुत्रों को जन्म दिया। कौशल्या के गर्भ से जन्मे पुत्र काम नाम राम रखा गया। कैकेई के गर्भ से भरत का जन्म हुआ। सुमित्रा ने खीर के दो हिस्से पाए थे। उनके गर्भ से दो जुड़वा पुत्रों का जन्म हुआ। एक का नाम लक्ष्मण और दूसरे का शत्रुघ्न रखा गया।
पूरे राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई। चारों राजकुमारों के जन्म पर अयोध्या नगरी में उत्सव मनाया गया। महाराज दशरथ ने भी खुलकर इस अवसर पर अपने खजाने से दान किया।
धीरे धीरे राजकुमार बड़े होने लगे। उन्हें महल के आंगन में खेलते देख कर राजा दशरथ और उनकी रानियों को बहुत हर्ष होता। चारों राजकुमार बहुत सुंदर थे। किंतु राम की छवि आँखों को सबसे अधिक सुख देती थी। राम सांवले थे। उनके बड़े बड़े नेत्र और घुंघराले बाल उनके सौंदर्य को और बढ़ा देते थे।


गुरुकुल में शिक्षा


समय के साथ साथ चारों राजकुमार बड़े होने लगे। अब उनके गुरुकुल जाने का समय नजदीक आ रहा था। महाराज दशरथ ने अपने कुलगरु महर्षि वशिष्ठ से निवेदन किया कि वे अपने आश्रम में चारों राजकुमारों को विद्यार्थी ग्रुप में स्वीकार करें।
महर्षि वशिष्ठ ने चारों राजकुमारों का उपनयन संस्कार कराया। उन्हें ब्रह्मचारी बजाने के पश्चात वह उन्हें अपने आश्रम में शिक्षा देने के लिए ले गए। गुरुकुल में चारों राजकुमार अन्य विद्यार्थियों की तरह सारे नियमों का पालन करते हुए रहते थे। गुरु की प्रत्येक आज्ञा मानते थे। राम सबसे बड़े थे अतः सभी भाई उनका आदर करते थे। राम तीनों छोटे भाइयों से बहुत प्रेम करते थे। जब कभी उनके छोटे भाई घर की याद कर दुखी होते तो उन्हें सांत्वना देते। प्यार से उन्हें समझाते। अन्य सहपाठियों के साथ भी वो स्नेहहपूर्ण व्यवहार करते थे। गुरु माता का आदर करते थे।
राम कुशाग्र बुद्धि के थे। जो भी उन्हें सिखाया जाता उसे आसानी से सीख लेते थे। कुछ ही वर्षों में चारों राजकुमार धर्म शास्त्र , नीति शास्त्र , कला ,संगीत , शस्त्र संचालन में निपुण हो गए। शिक्षा समाप्त कर चारों राजमहल वापस आ गए।

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