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मानस के राम (रामकथा) - 5






मानस के राम
भाग 5



सीता के जन्म की कथा


दोनों राजकुमारों को लेकर मिथिला नगरी को जा रहे थे। राजा जनक एक प्रजा पालक राजा थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत खुश थी। उनकी पत्नी सुनयना एक धर्म परायण स्त्री थी। राजा जनक दो पुत्रियां थीं। बड़ी पुत्री का नाम सीता था और छोटी पुत्री का नाम उर्मिला।
सीता के जन्म की कथा भी बहुत रोचक है। एक बार राजा जनक ने यज्ञ का आयोजन किया। प्रथा के अनुसार जिस भूमि पर यज्ञ मंडप बनाया जाता था उसे राजा स्वयं हल से जोतता था। राजा जनक जब यज्ञ के लिए चुनी गई भूमि को हल से जोत रहे थे तब उन्हें भूमि के भीतर से एक स्वर्णपात्र मिला। जिसमें एक कन्या थी। उस कन्या के चहरे पर एक दिव्य आभा थी। राजा जनक एवं उनकी पत्नी ने उस कन्या को अपना लिया। उस कन्या का नाम सीता रखा { सीता का अर्थ होता है हल से खींची गई लकीर। सीता भूमि से तब मिलीं थीं जब जनक हल जोत रहे थे। इसीलिए उन्हें सीता कहा गया। } राजा जनक सीता को प्राणों से भी अधिक चाहते थे।
सीता का सौंदर्य अप्रतिम था। वह विदुषी थी। धर्म शास्त्रों का उसे अच्छा ज्ञान था। वह बहुत ही धैर्यवान और सहनशील थी। जब सीता विवाह के योग्य हुई तो जनक को चिंता होने लगी। वो अपनी कन्या का विवाह एक ऐसे पुरुष से करना चाहते थे जो उनकी दैवीय गुणों से युक्त कन्या के योग्य हो।
उनके पास शिवजी का दिया हुआ एक दिव्य धनुष था। जिसे कोई साधारण व्यक्ति हिला भी नहीं सकता था। अतः उन्होंने सीता का स्वयंवर रचाया और यह शर्त राखी कि जो राजपुरुष इस दिव्य धनुष की प्रत्यंचा बाँध देगा उसके साथ वह अपनी पुत्री सीता का विवाह करेंगे।


राम और लक्षम्ण का मिथिला पहुँचना

विश्वमित्र इसी स्वयंवर के लिए राम को मिथिला लाए थे। जब राम और लक्ष्मण मिथिला पहुँचे तो मिथिला नगरी की भव्यता एवं सुंदरता से बहुत आकर्षित हुए।
स्वयंवर के लिए सुदूर देशों के राजा और राजकुमार आये थे। साथ ही कई ऋषि और ब्राह्मण भी आए थे। सभी के उचित सत्कार की व्यवस्था की गई थी। जब विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर मिथिला पहुँचे तो राजा जनक के मंत्री सतानंद ने उनका स्वागत किया। वह उन लोगों को राजा जनक के पास ले गए। राजा जनक ने विश्वमित्र का स्वागत करते हुए उनके चरण पखारे। उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। विश्वामित्र के साथ आए दोनों राजकुमारों के रूप ने राजा जनक को प्रभावित किया। उन्होंने विश्वमित्र से उनका परिचय पूँछा। विश्वामित्र ने दोनों राजकुमारों का परिचय राजा जनक से कराते हुए कहा,
"यह दोनों महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हैं। दोनों वीर योद्धा हैं। इन्होंने दुष्ट राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा की। ताड़का जैसी राक्षसी का संहार किया।"
उन दोनों राजकुमारों के अद्भुत रूप से पहले ही प्रभावित थे। विश्वमित्र द्वारा उनकी वीरता का बखान करने पर वह और भी प्रसन्न हुए। विश्वामित्र ने कहा,
"मैं इन्हें आपके पास जो भगवान शिव का धनुष है दिखाने के लिए लाया हूँ।"
राजा जनक विश्वमित्र का अभिप्राय समझ गए। वह सोचने लगे कि इन दो राजकुमारों जैसा पति मिलना किसी भी कन्या के लिए भाग्य की बात होगी।

पुष्प वाटिका में राम और सीता की भेंट

अगले दिन प्रातः काल स्नानादि के बाद राम और लक्ष्मण विश्वामित्र को प्रणाम करने आए। उन्होंने उनसे आज्ञा मांगी कि वह उनकी आराधना के लिए राजा जनक की पुष्प वाटिका से कुछ फूल चुन लाएं। विश्वामित्र ने उन्हें जाने की आज्ञा प्रदान कर दी।
राम और लक्ष्मण मिथिला की वीथियों में चलते हुए पुष्प वाटिका की तरफ बढ़ रहे थे। नगर के नर नारी उन दो दिव्य राजकुमारों को देखकर हर्ष का अनुभव कर रहे थे।
दोनों भाई पुष्प वाटिका में पहुँचे। राजा जनक की पुष्प वाटिका बहुत सुंदर थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे वसंत ऋतु ने सजा के नियम की वाटिका में ही अपना डेरा जमा लिया है।‌ वाटिका में भांति भांति के फूल खिले थे। लताओं के मंडप मन को लुभा रहे थे। चारों ओर से कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षियों के बोलने की आवाज वातावरण को और सुंदर बना रही थी। वाटिका के बीचो बीच एक सुंदर सरोवर था। जिसमें अनेक प्रकार के कमल के फूल खिले हुए थे। जल पक्षी उसमें क्रीड़ा कर रहे थे। दोनों राजकुमार वाटिका की सुंदरता देखकर हर्षित हो गए। वाटिका के माली से आज्ञा लेकर अपने गुरु की आराधना के लिए पुष्प चुनने लगे।
राजकुमारी सीता भी अपनी सखियों के साथ पुष्प वाटिका में बने गौरी मंदिर में पूजन करने के लिए गई थीं‌। उनकी एक सखी फुलवारी से कुछ फूल लेने गई थी। उसकी दृष्टि वाटिका में फुल चुनते हुए राम और लक्ष्मण पर पड़ी। उनका अद्भुत रूप देखकर वह मोहित हो गई। वापस जाकर उसने सीता जी और अन्य सखियों को बताया कि पुष्प वाटिका में उसने दो सुंदर राजकुमारों को देखा है। कल से ही वह उन दोनों राजकुमारों की चर्चा नगर के वासियों से सुन रही है। दोनों राजकुमार अपने गुरु विश्वामित्र के साथ मिथिला आए हैं। राम और लक्ष्मण के गुणों का बखान करते हुए वह बोली,
"उनमें से एक सांवला है। उसका रूप तो कामदेव को भी लजाने वाला है। दूसरा गोरे रंग का है। वह भी बहुत सुंदर और छबीला है। इन दोनों की शोभा देखते ही बनती है।"
अपनी सखी के मुख से दोनों राजकुमारों का वर्णन सुनकर अन्य सखियां भी उन्हें देखने के लिए लालायित हो गईं। सीता के मन में भी लालसा उत्पन्न हुई कि वह उन सुंदर राजकुमारों को देखें। सब उस सखी के साथ पुष्प वाटिका के उस हिस्से में पहुंँची जहांँ राम और लक्ष्मण पुष्प चुन रहे थे।
पुष्प चुनते हुए राम को नूपुर और कंगन की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्होंने उस ओर देखा। उनकी दृष्टि पुष्प लता के पीछे से झांकते सीता के मुख पर पड़ी। सीता का मुख बादलों के पीछे से झांकते चंद्रमा की तरह दिख रहा था। इस अनुपम सौंदर्य को देखकर राम के मन को बहुत सुख पहुंँचा। उन्होंने लक्ष्मण से कहा,
"लगता है कि यही जनक नंदिनी सीता है। जिसके स्वयंवर के लिए दूर देशों से राजा और राजकुमार आए हैं।"
सीता ने भी राम को देखा। गगन पर छाए काले मेघ जैसा वर्ण, बड़ी बड़ी आंँखें, घुंघराले बाल उनकी छवि बहुत ही आकर्षक बना रहे थे। ऐसा लग रहा था कि लता कुंज के पीछे दो राजकुमार नहीं बल्कि नीले और पीले रंग के दो कमल पुष्प हों। दोनों के ही माथे पर तिलक शोभायमान था। श्वेद बिंदु माथे पर इस प्रकार चमक रहे थे जैसे कि मोती चमक रहे हों। से उनके नेत्र किसी भ्रमर की तरह राम के मुख मंडल पर मंडरा रहे थे। पर स्त्री सुलभ लज्जा ने उनके नेत्रों को चेताया कि यह ठीक नहीं है।
सीता को उनकी सखियां देवी पूजन के लिए ले गईं। राम लक्ष्मण के साथ अपने गुरु विश्वामित्र के पास आ गए।

राम द्वारा धनुषभंग

स्वयंवर मंडप की शोभा भी अद्भुत थी। विभिन्न देशों से आए राजा एवं राजकुमार अपने अपने स्थान पर बैठे थे। राम और लक्ष्मण अपने गुरु विश्वामित्र के साथ नियत स्थान पर विराजमान थे।
मंडप के बीचों बीच शिव जी का दिया हुआ धनुष रखा था। वह बहुत ही विशाल था। राजा जनक अपने आसन से उठकर खड़े हुए और वहाँ उपस्थित स्वयंवर में हिस्सा लेने आए हुए राजा राजकुमारों को संबोधित कर बोले,
"मैंने अपनी अपनी प्रिय पुत्री सीता के विवाह के लिए यह स्वयंबर रचा है। मंडप के बीच में भगवान शिव का धनुष पिनाक रखा है। इसका निर्माण स्वयं विश्वकर्मा जी ने किया था। यह धनुष भगवान शिव ने परशुराम जी को दिया था। इस धनुष से उन्होंने कई बार पृथ्वी की रक्षा की। तत्पश्चात यह दोनों उन्होंने मेरे पूर्वजों को दे दिया।"
सभा में उपस्थित सभी लोग बड़े ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे। राजा जनक ने आगे कहा,
"आप सभी मेरी पुत्री सीता से विवाह करने की इच्छा लेकर यहाँ पधारे हैं। आप में से जो भी भगवान शिव के धनुष पिनाक पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा। वही मेरी पुत्री सीता से विवाह करने के योग्य होगा।"
उस सभा में एक से बढ़कर एक बलशाली राजा और राजकुमार थे। सभी बारी बारी से अपना बल दिखा रहे थे किंतु कोई भी शिव धनुष को हिला तक नहीं पा रहा था। जैसे जैसे राजा और राजकुमार हार रहे थे राजा जनक की चिंता बढ़ती जा रही थी।
पराक्रमी राजाओं को हार मानते देख राजा जनक बहुत दुःखी हुए। वह उठकर खड़े हुए और बोले,
"जिस धनुष को मेरी पुत्री सीता आसानी से उठा लेती थी ‌उसे यहाँ उपस्थित वीर पुरुष हिला भी नहीं पा रहे हैं। मेरा मन यह देख कर बहुत दुखी हुआ है। लगता है यह धरती अब वीरों से खाली हो गई है।"
राजा जनक की यह बात लक्ष्मण को बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी। वह बोले,
"आपका ऐसा कहना अनुचित है। मेरे अग्रज श्री राम इस धन को आसानी से उठा सकते हैं। इस पर प्रत्यंचा चढ़ा सकते हैं।"
लक्ष्मण की बात सुनकर विश्वामित्र ने राम को आज्ञा दी कि वह उठें और शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दें। राम उठे और शिव धनुष के पास पहुँचे। उन्होंने श्रद्धापूर्वक धनुष को प्रणाम किया। राम को देखकर वहाँ उपस्थित कल के मन में विचार आया कि सुकुमार भला शिव जी के धनुष को क्या हिला पाएगा।
राम वेदी पर चढ़ गए। उन्होंने अत्यंत सरलता से वह धनुष उठा लिया मानो कोई खिलौना हो। उन्होंने डोरी को खींच कर उसे बांधना चाहा किंतु इस प्रयास में धनुष बीचों बीच से टूट गया। धनुष के टूटते ही एक ज़ोरदार गर्जना हुई और आकाश में बिजली चमकने लगी। राजा जनक बहुत प्रसन्न हुए। सभी राम के अदम्य साहस को देख कर उनकी प्रशंसा करने लगे।







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