मानस के राम (रामकथा) - 43 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मानस के राम (रामकथा) - 43





मानस के राम

भाग 43


कुंभकर्ण और रावण की भेंट

कुंभकर्ण अपने भाई रावण के समक्ष प्रस्तुत हुआ। हाथ जोड़कर उसने अपने भाई को प्रणाम किया और बोला,
"भ्राता लंका पर आई विपदा के बारे में सुनकर अत्यंत कष्ट हुआ। रणभूमि में आपके साथ जो कुछ भी हुआ वह मेरे लिए बहुत कष्टदायक है।"
रावण ने कहा,
"राम और उसकी सेना ने मकराक्ष और प्रहस्त जैसे वीर योद्धाओं को मार दिया। यह जानकर लंका के निवासियों में एक भय का वातावरण व्याप्त हो रहा था। अतः मैंने स्वयं युद्ध की बागडोर अपने हाथ में लेने की सोची। किंतु हमसे शत्रु के बलाबल की थाह लेने में चूक हो गई। उस राम ने हमें निशस्त्र करके हमें युद्ध भूमि से वापस कर दिया। उसने हमारे आत्मसम्मान को चोट पहुंँचाई है। इस समय हम पर विकट संकट आया है। हमारी सेना के कई महाभट मारे जा चुके हैं। पुनः राक्षस सेना का संगठन करने में समय लगेगा। अतः हमें तुम्हारी सहायता की आवश्यकता पड़ी। इसलिए तुम्हें असमय जगाना पड़ा।"
कुंभकर्ण ने हाथ जोड़कर कहा,
"विपत्ति आने पर एक भाई द्वारा दूसरे भाई की सहायता करना धर्म है। इसलिए मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए युद्धभूमि में जाकर शत्रु सेना का सफाया करूँगा। परंतु मुझे एक बात समझ नहीं आ रही है। आपसे इतना बड़ा अधर्म कैसे हो गया ?"
कुंभकर्ण की बात सुनकर रावण ने कहा,
"तुम किस अधर्म की बात कर रहे हो ?"
"वेदों और धर्म का ज्ञान होने के पश्चात भी आप किसी की पत्नी को हरण करके ले आए। यह तो उचित कार्य नहीं है।"
"हमने जो कुछ भी किया अपनी बहन शूर्पणखा के सम्मान के लिए किया। उन दो वनवासी भाइयों ने हमारी बहन का अपमान किया था। उसके नाक और कान काट दिए थे। उन्हें इस बात का दंड अवश्य मिलना चाहिए था। इसलिए हमने राम की पत्नी का हरण कर लिया।"
"किंतु भ्राता आपने उन दो भाइयों के किए का दंड एक स्त्री को दिया। उसका हरण कर लिया वह भी छल से। यह तो कोई वीरोचित बात नहीं हुई। उसके पश्चात भी आपको मौका मिला था कि आप अपनी भूल को सुधार कर युद्ध को टाल दें। किंतु आपने उस मौके को भी गंवा दिया।"
कुंभकर्ण की बात सुनकर रावण क्रोध में बोला,
"हमें जो उचित लगा हमने किया। किंतु हमने तुम्हें अपनी सहायता करने के लिए बुलाया है। परंतु तुम शायद हमारी सहायता नहीं करना चाहते हो। यदि ऐसा है तो स्पष्ट कहो। इस प्रकार के उपदेश हमने बहुत सुने हैं।"
कुंभकर्ण ने हाथ जोड़कर कहा,
"भ्राता मैंने पहले ही आपसे कहा था कि एक भाई होने के नाते विपत्ति में पड़े हुए भाई की सहायता करना धर्म होता है। मैं अपने धर्म से पीछे नहीं हट रहा हूँ। किंतु क्या आप वर्षों पहले इक्ष्वाकु वंश में जन्मे एक राजा के श्राप को भूल गए। उसने कहा था कि हमारे वंश में स्वयं विष्णु मानव रूप में प्रकट होकर आपका वध करेंगे। देवर्षि नारद ने भी बताया था कि देवताओं की सहायता हेतु विष्णु ने मानव रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया है। आप अपने विनाश को पहचान नहीं पाए। इस बात का मुझे दुख है। किंतु आपका छोटा भाई होने के नाते आपके सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देना मेरा परम कर्तव्य है। मैं अपना यह कर्तव्य अवश्य निभाऊंँगा। मैं युद्धभूमि में जा रहा हूंँ। आप मुझे विजई होने का आशीर्वाद प्रदान करें।"
अपने बड़े भाई रावण से युद्ध में विजई होने का आशीर्वाद लेकर कुंभकर्ण रणभूमि की तरफ चल दिया।


कुंभकर्ण का युद्धभूमि में जाना

अपने बड़े भाई रावण के अपमान का बदला लेने के लिए कुंभकरण युद्धभूमि में गया। उसकी विशाल काया को देखकर वानरों में खलबली मच गई। वह वानरों के दल के दल अपनी मुट्ठी में पकड़कर उनका इस प्रकार भक्षण करने लगा जैसे वह गाजर मूली हों।
कुंभकर्ण से बचने के लिए वानर इधर-उधर भागने लगे। इस हड़कंप को देखकर राम ने विभीषण से पूँछा,
"यह विशालकाय राक्षस कौन है ?"
विभीषण ने उत्तर दिया,
"यह कुंभकर्ण है। रावण का अनुज और मेरा अग्रज।"
कुंभकर्ण के विशाल रूप को देखकर लक्ष्मण भी आश्चर्य में थे। उन्होंने पूँछा,
"कुंभकर्ण को उसका विशाल रूप क्या किसी वरदान के स्वरूप मिला है ?"
"नहीं कुंभकर्ण जन्म से ही विशालकाय है। वह इतना अधिक भोजन करता है कि उतनी मात्रा में भोजन से कई नगरों के वासियों को तृप्त किया जा सकता है।"
"तो फिर इसका उदर भरने के लिए इतना भोजन प्रतिदिन कहांँ से आता है ?"
लक्ष्मण के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए विभीषण ने कुंभकर्ण को मिले निद्रा के वरदान की कथा सुनाई। लक्ष्मण ने कहा,
"लगता है कि आज इसके जागने का दिन था।"
विभीषण ने कहा,
"नहीं.... मेरे गुप्तचरों ने सूचना दी है कि रावण के साथ युद्धभूमि में जो हुआ उससे परेशान होकर उसने समय से पहले कुंभकर्ण को जगाने का आदेश दिया था। उन्होंने यह भी बताया कि युद्धभूमि में आने से पहले कुंभकर्ण ने भी रावण को समझाने का प्रयास किया था।"
लक्ष्मण ने कहा,
"यह तो कंदमूल की भांति वानर सेना का भक्षण कर रहा है। वानर सेना में एक प्रकार का भय व्याप्त हो गया है। मेरा अनुमान है यदि इसे शीघ्र ही ना रोका गया तो यह पूरी वानर सेना को खत्म कर देगा। भ्राताश्री आप आज्ञा दें। मैं इस राक्षस का वध कर दूँगा।"
राम ने कहा,
"नहीं कुंभकर्ण को ब्रह्मा जी का वरदान मिला है। अतः मैं स्वयं कुंभकर्ण के वध के लिए जाऊँगा।"
विभीषण ने कहा,
"मेरी सलाह है कि आप मुझे आज्ञा दीजिए। मैं जाकर कुंभकर्ण को समझाने का प्रयास करता हूंँ कि वह अधर्म का रास्ता छोड़कर आपकी शरण में आ जाए। यदि ऐसा होता है तो यह हमारी बहुत बड़ी जीत होगी।"
राम ने विभीषण को जाकर कुंभकर्ण को समझाने की अनुमति दे दी।

विभीषण कुंभकर्ण के पास गए। उन्हें आया हुआ देखकर कुंभकर्ण ने कहा,
"तुम यहांँ क्या करने आए हो ? अपने कुल से घात करके तुम शत्रु दल मैं आकर मिल गए हो। अब किस मुंह से मेरे पास आए हो।"
विभीषण ने कहा,
"भ्राता कुंभकर्ण मैंने तो राक्षस कुल को सर्वनाश से बचाने के लिए भ्राता रावण को समझाने का प्रयास किया था। उन्होंने छल पूर्वक देवी सीता का हरण करके अधर्म का काम किया था। इस अधर्म के द्वारा उन्होंने समस्त राक्षस जाति के सर्वनाश को आमंत्रण दिया था। परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। मुझे अपमानित करके लंका से निकाल दिया।"
"तुमने भ्राता रावण को समझाने का प्रयास किया यह अच्छा कार्य था। परंतु उनसे अलग होकर शत्रु पक्ष से मिल जाना अपने कुल के साथ घात करना ही है।"
"परंतु भ्राता मैंने धर्म के मार्ग का अनुसरण किया है। मैं आपको भी उसी मार्ग पर ले जाने के लिए आया हूँ।"
"अनुज विभीषण मेरे लिए तो धर्म यही है कि मैं इस संकट काल में अपने भ्राता का साथ दूँ। मैं जानता हूँ कि देवी सीता का हरण करके भ्राता रावण ने अधर्म किया है। परंतु फिर भी अपने भाई के शत्रु से युद्ध करना ही मेरे लिए सौभाग्य है।"
विभीषण ने अपनी तरफ से कुंभकर्ण को समझाने का पूरा प्रयास किया। परंतु वह अपने निश्चय पर अटल रहा। उसने विभीषण से कहा,
"तुमको जो उचित लगा वह तुमने किया। मुझे वह करने दो जो मेरे लिए उचित है। मैं सब जानकर भी अपने भाई के लिए युद्ध करने आया हूँ। मुझे मेरा कर्तव्य करने दो।"
विभीषण कुंभकर्ण को समझाने में असफल रहे। वह वापस लौट गए।


कुंभकर्ण वध

विभीषण ने लौटकर बताया कि उनके बहुत समझाने पर भी कुंभकर्ण अपने भाई रावण का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। उसके अनुसार विपत्ति में अपने भाई का साथ छोड़ जाने से बड़ा अधर्म कुछ नहीं है।
विभीषण के जाने के पश्चात कुंभकर्ण जिस उद्देश्य के लिए युद्धभूमि में आया था उसे पूरा करने लगा। वह किसी विपत्ति की भांति वानर सेना पर टूट पड़ा। वानरों में एक बार फिर भगदड़ मच गई। सब अपने प्राण बचाकर इधर से उधर भागने लगे।
कुंभकर्ण अपने सामने आने वाले वानरों के पूरे दल को ही मार रहा था। कुछ वानर उसके पैरों के तले इस तरह कुचले जा रहे थे जैसे घास का तिनका हों। वह अपने मुंह से हवा निकाल कर वानरों को इस प्रकार उड़ा देता था जैसे तेज़ हवा के झोंके से सूखे पत्ते उड़ जाते हैं।
विनाश का यह दृश्य देखकर सभी भयभीत थे। तभी युवराज अंगद वानरों की रक्षा के लिए आगे आया। उसने 'जय श्रीराम' का उद्घोष किया और हवा में उछल कर कुंभकर्ण पर अपनी गदा से वार करने लगा। वह अपनी पूरी शक्ति से वार कर रहा था। पर कुंभकर्ण की विशाल देह पर उसका कोई भी असर नहीं हो रहा था। अंगद थककर नीचे आ गया। वह पराजित सा सर झुकाए खड़ा था। उसकी दशा देखकर कुंभकर्ण ने कहा,
"अपना परिचय दो। कौन हो तुम ? किसके पुत्र हो ?"
अंगद ने अपना परिचय देते हुए कहा,
"मैं महाशक्तिशाली बाली का पुत्र हूंँ। वही बाली जिन्होंने लंकाधिपति रावण को अपनी कांख में दबा लिया था।"
कुंभकर्ण ने कहा,
"निश्चित ही महाराज बाली बहुत बलशाली थे। उनके साथ हमारी संधि थी। परंतु तुम हमारे शत्रु की तरफ से युद्ध कर रहे हो। अतः तुम्हें मारने में मुझे कोई संकोच नहीं है।"
यह कहकर कुंभकर्ण ने ध्यान किया और उसके हाथ में एक खड्ग आ गई। वह उस खड्ग से अंगद पर वार करने जा रहा था तभी हनुमान ने एक शिला फेंककर उसकी खड्ग तोड़ दी।
कुंभकर्ण ने पूँछा,
"कौन हो तुम जो इस प्रकार बीच में आ गए ?"
हनुमान ने कहा,
"मेरा नाम हनुमान है। मैंने रावण की स्वर्ण लंका को जलाकर राख कर दिया था। अंगद हमारे युवराज हैं। इनकी सुरक्षा करना मेरा दायित्व है।"
"अब अंगद के साथ साथ तुम्हारा भी वध करूँगा।"
"वह तो तब होगा जब तुम जीवित बचोगे।"
यह कहकर हनुमान ने एक बहुत बड़ी चट्टान उखाड़ कर कुंभकर्ण की तरफ पूरी शक्ति से फेंकी। कुंभकर्ण ने उसे इस तरह अपने हाथों में पकड़ लिया जैसे कोई खिलौना हो। उसके पश्चात फूंक मारकर उसे तिनके की तरह उड़ा दिया। वह बोला,
"मैं तुम दोनों के प्राण नहीं लूँगा। जाओ और जाकर अपने स्वामी राम को भेजो।"
जब कुंभकर्ण की चुनौती राम तथा लक्ष्मण तक पहुँची तो लक्ष्मण से कहा नहीं गया। वह राम से आया लेकर कुंभकर्ण से युद्ध करने के लिए आए। उनका और कुंभकर्ण का युद्ध होने लगा। दोनों के बीच कड़ी टक्कर हो रही थी। देवता भी स्वर्ग से इस दृश्य को देख रहे थे।
कुंभकर्ण ने कई दिव्य बाण चलाए। जिन्हें लक्ष्मण ने बड़ी आसानी से काट दिया। कुंभकर्ण ने शिव जी का दिया हुआ अमोघ त्रिशूल चलाया। हनुमान ने स्वयं आगे बढ़कर उसका वार झेल लिया।
तभी सुग्रीव ने आकर कुंभकर्ण को ललकारा। उन्होंने अपनी गदा से उस पर कई प्रहार किए। परंतु कुंभकर्ण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कुंभकर्ण ने सुग्रीव को अपने हाथों में उठाकर कहा,
"तुम वानरों के राजा हो। मैं तुम्हें बंदी बनाकर अपने भ्राता रावण के पास ले जाता हूँ।"
यह कहकर कुंभकर्ण उन्हें लेकर रावण के पास चल दिया। जांबवंत ने राम से कहा,
"यदि कुंभकर्ण महाराज सुग्रीव को ले जाने में सफल रहा तो वानर सेना का मनोबल पूरी तरह टूट जाएगा। अतः अब आप जाकर कुंभकर्ण को रोकें।"
राम ने आगे बढ़कर कुंभकर्ण को रोका। अपने बाण चलाकर उन्होंने सुग्रीव को कुंभकर्ण की पकड़ से मुक्त करा लिया। कुंभकर्ण ने कहा,
"मैं भी चाहता था कि उसके साथ युद्ध करूँ जिसने मेरे भ्राता रावण को निशस्त्र कर दिया।"
राम ने कहा,
"मैं भी अब तुम्हें तुम्हारे किए का दंड देने आया हूँ।"
कुंभकर्ण और राम के बीच भी भयंकर युद्ध आरंभ हो गया। कुंभकर्ण अनेक दिव्य अस्त्रों का प्रयोग कर रहा था। राम उन्हें काट रहे थे। स्वर्ग से देवता सांस रोके इस युद्ध को देख रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि यह युद्ध ना जाने कब तक चलेगा।
अंत में राम ने इंद्रास्त चलाकर सबसे पहले कुंभकर्ण की दोनों भुजाएं काट दीं। उसके ‌बाद ब्रह्मदंड नामक अस्त्र से उसका शीश काटकर उसका वध कर दिया।