Manas Ke Ram - 42 books and stories free download online pdf in Hindi

मानस के राम (रामकथा) - 42




मानस के राम

भाग 42


रावण का रथहीन होना

जांबवंत ने सलाह दी थी कि रावण का सामना करने राम स्वयं जाएं। राम जब पहुँचे तब हनुमान रावण के साथ भिड़ रहे थे। हनुमान को देखकर रावण ने उन्हें अपनी गदा के वार से भूमि पर गिरा दिया। हनुमान 'जय श्रीराम' का नारा लगाकर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने अपनी मुष्टिका से रावण के वक्ष पर प्रहार किया। उनके प्रहार से रावण डगमगा गया। फिर स्वयं को संभाल कर बोला,
"तुम वास्तव में बहुत शक्तिशाली हो। तुमने अपने वार से कुछ पलों के लिए रावण को भी विचलित कर दिया।"
यह सब देख रहे राम ने कहा,
"जो पवन पुत्र हनुमान की मुष्टिका का प्रहार सह ले वह परम शक्तिशाली है। रावण तुम हनुमान के वार को सहकर भी खड़े हो। तुम अत्यंत वीर हो। परंतु वीर होते हुए भी तुम विवेक हीन हो। तुम्हारी विवेक हीनता तुम्हारे सर्वनाश का कारण बनने वाली है।"
राम के मुख से यह बात सुनकर रावण ज़ोर से हंसा। उसने कहा,
"जिस रावण ने कैलाश पर्वत को अपनी भुजाओं के बल से उठा लिया। जिसने देव, दानव, गंधर्व सभी को अपनी शक्ति से झुका दिया। उसे कुछ उद्दंड वानरों और दो वनवासी मानवों की सेना से क्या भय होगा। हमारा सर्वनाश करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है।"
रावण की बात सुनकर राम के चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। उन्होंने कहा,
"व्यक्ति का सबसे बड़ा शत्रु उसका अहंकार होता है। तुम्हारे भीतर तो अहंकार कूट कूट कर भरा है। वही अहंकार तुम्हारे सर्वनाश का कारण बनेगा। इस अहंकार के कारण ही तुमने अपने हित की बात भी अनसुनी कर दी। अपने अहंकार के कारण शांति प्रस्ताव को अस्वीकार करके युद्ध का चुनाव किया।"
"लगता है कि तुम अपनी पराजय से भयभीत हो रहे हो। तभी अपने धनुष के स्थान पर अपनी वाणी से युद्ध कर रहे हो। हमने तो सुना था कि रघुकुल में वीर पुरुष जन्म लेते हैं।"
राम ने उसी तरह मुस्कुराते हुए कहा,
"सही सुना है तुमने। रघुकुल में वीर पुरुष जन्म लेते हैं। तुम जैसे अहंकारी को ज्ञान की बातें समझ नहीं आती हैं। अहंकारी अपने अहंकार में अपना ही भला बुरा नहीं समझ पाता है। अब मेरे बाण ही तुम्हारे अहंकार का नाश करेंगे।"
इसके बाद राम और रावण के बीच युद्ध होने लगा। रावण अपने धनुष से शक्ति बाण चला रहा था। राम बड़ी आसानी से अपने बाणों द्वारा उन्हें काट दे रहे थे। बहुत देर तक रावण के साथ खेलने के बाद राम ने अपने एक बाण से रावण के धनुष को नष्ट कर दिया।
इस प्रकार अपने धनुष के नष्ट हो जाने से रावण हतप्रभ रह गया। उसने तुरंत तलवार उठाई। राम ने अपने बाण से उसे भी काट दिया। रावण शस्त्रहीन हो गया। वह लज्जा में सर झुकाए खड़ा था। उसके बाद राम ने बाण चलाकर उसके रथ पर लगी पताका भूमि पर गिरा दी। अंत में रथ को भी ध्वस्त कर दिया।
रावण ने कभी नहीं सोचा था कि उसकी यह दुर्दशा होगी। अपनी इस दुर्दशा पर वह क्रोध, लज्जा और ग्लानि से भरा हुआ था।
राम ने कहा,
"रावण रघुकुल की वीरता का प्रमाण तुम्हें मिल गया है। पर रघुकुल के वीर मर्यादा के लिए भी जाने जाते हैं। युद्ध का नियम है कि शस्त्रहीन पर वार ना किया जाए। हम निहत्थे योद्धा पर वार करना उचित नहीं समझते हैं। अतः तुमको जीवनदान देता हूँ।"
अपमान और क्रोध में जलता हुआ रावण अपने महल में लौट आया। रणभूमि में जो कुछ घटा उससे वह बहुत चिंतित हो गया था। वह समझ गया था कि अपने शत्रु के बल की थाह लगाने में उससे चूक हो गई है। वह परेशान सा अपने कक्ष में टहल रहा था। तभी उसके नाना माल्यवंत आए। रावण ने उन्हें प्रणाम किया। रावण को हताश परेशान देखकर उन्होंने कहा,
"इस प्रकार चिंतित और निराश ना हो। तुम समस्त राक्षस जाति के सिरमौर हो। यदि तुम इस प्रकार निराश हो गए तो सारी राक्षस जाति का मनोबल टूट जाएगा। पहले मैंने तुम्हें युद्ध से बचने का परामर्श दिया था। किंतु युद्ध आरंभ होने के बाद युद्ध करना और उसे जीतना ही तुम्हारा कर्तव्य है।"
माल्यवंत की बात सुनकर रावण के मन को कुछ शांति मिली। उसका हौसला बढ़ाने के लिए माल्वंत ने कहा,
"महापराक्रमी लंकापति को इस तरह हताश होने की क्या आवश्यकता है। जो हुआ वह युद्ध का अंत नहीं है। आज युद्धभूमि में शत्रु का पलड़ा भारी रहा। किंतु अभी युद्ध होना है। इसलिए स्वयं को जीत के लिए तैयार करो।"
अपने नाना के वचनों से प्रोत्साहन पाकर रावण ने कहा,
"आप उचित कह रहे हैं। युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है। हमने हार भी नहीं मानी है। हम अब समस्त दिशाओं में फैले असुरों को संगठित करके शत्रु को पराजित करेंगे।"
रावण को पुनः उत्साह में देखकर माल्यवंत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा,
"इतना कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा अनुज कुंभकर्ण अकेला ही वानर सेना पर भारी पड़ेगा। उसे जगाओ और युद्ध में सहायता करने का आदेश दो।"
यह उपाय सुनकर रावण बहुत खुश हुआ।


कुंभकर्ण को निद्रा का वरदान

कुंभकर्ण रावण का छोटा भाई तथा विभीषण और शूर्पणखा का अग्रज था। अपने बड़े बड़े कानों के कारण उसका नाम कुंभकर्ण पड़ा था।
वह बचपन से ही बहुत शक्तिशाली था। किंतु उसकी भूख बहुत अधिक थी। जब वह भोजन करता था तब इतने भोजन की आवश्यकता पड़ती थी जितने में कई नगर के वासी भोजन कर सकते थे। उसकी भूख और बल से देवता भी परेशान थे।
जब रावण, कुंभकर्ण व विभीषण युवा हुए तो ऋषि विश्रवा ने उन्हें तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कहा। तीनों भाइयों ने कठोर तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उन तीनों के समक्ष प्रकट हुए। उन्होंने तीनों से वरदान मांगने को कहा। रावण ने वरदान मांगा कि देव, दानव, गंधर्व कोई भी उसे ना मार सके। ब्रह्मा जी ने उसे मनवांछित वरदान दे दिया।
जब कुंभकर्ण की बारी आई तो देवराज इंद्र के कहने पर देवी सरस्वती ने कुंभकर्ण की बुद्धि फेर दी। कुंभकर्ण देवताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्रासन पर अपना अधिकार करना चाहता था। किंतु वरदान मांगते समय उसके मुख से इंद्रासन की जगह निंद्रासन निकल गया। ब्रह्मा जी ने उसे सदा सोते रहने का वरदान दे दिया।
जब देवी सरस्वती ने कुंभकर्ण की बुद्धि पर पड़ा पर्दा हटाया तो उसकी समझ में आ गया कि उससे भूल हो गई है। वह अपनी इस भूल पर पश्चाताप करने लगा। रावण समझ गया था कि यह देवताओं की कोई चाल है। उसने ब्रह्मा जी से निवेदन करते हुए कहा,
"हम तीनों भाइयों ने कठोर तपस्या करके आपको प्रसन्न किया है। किंतु जब वरदान मांगने का समय आया तो देवताओं ने छल करके मेरे अनुज की बुद्धि भ्रष्ट कर दी। यह अन्याय है। आप न्याय कीजिए। क्या जीवन भर मेरा अनुज ऐसे ही सोता रहेगा।"
ब्रह्मा जी ने रावण की विनती पर विचार करने के बाद कहा,
"मैं वरदान को बदल तो नहीं सकता हूँ। परंतु मैं कुंभकर्ण को एक दिन जागने का वरदान देता हूँ। छह माह की निद्रा के बाद यह एक दिन के लिए जागेगा। उसके पश्चात पुनः छह महीने के लिए सो जाएगा।"
उसके बाद से कुंभकर्ण छह महीने सोकर एक दिन के लिए जागता था।


कुंभकर्ण को जगाना

अपने नाना माल्यवंत से एक उत्तम सुझाव पाकर रावण बहुत उत्साहित था। अभी तक उसने अपने अनुज के बारे में सोचा ही नहीं था। उसका भाई कुंभकर्ण बहुत शक्तिशाली था। रावण को पूरा विश्वास था कि कुंभकर्ण अकेला ही वानर सेना पर भारी पड़ेगा।
रावण जानता था कि इस समय निद्रा में लीन कुंभकर्ण को जगाना आसान नहीं होगा। कुंभकर्ण जागते ही अपनी भूख मिटाने के लिए भोजन करेगा‌‌। जिसके लिए पहले से ही व्यवस्था करनी होगी। रावण ने आदेश दिया कि कुंभकर्ण के भोजन की व्यवस्था करके उसे जगाया जाए। जब वह भोजन करके तृप्त हो जाए तो उसे रावण का संदेश सुनाया जाए।
कुंभकर्ण एक बहुत ही विशाल कक्ष में सो रहा था। शय्या पर पड़ी उसकी विशाल काया किसी पर्वत के समान लग रही थी। उसके श्वास लेने भर से उस कक्ष में एक कंपन हो रहा था।
कुंभकर्ण को जगाने के लिए ज़ोर ज़ोर से नगाड़े बजाए जा रहे थे। कक्ष में विशालकाय हाथियों को भेजा गया। उन हाथियों ने अपने शरीर के बल से उसे हिला रहे थे। सैनिक अपने भालों से कुंभकर्ण के शरीर को कोंच रहे थे। बहुत प्रयासों के बाद कुंभकर्ण को जगाने में सफलता प्राप्त हुई।
नींद से जागने के बाद कुंभकर्ण को ज़ोर से भूख लग रही थी। उसके सामने भोजन लाया गया। जब कुंभकर्ण की भूख शांत हो गई तब उसने पूँछा,

"मुझे मेरी नींद से जागने का क्या कारण है ? लंकापति रावण ठीक तो हैं ?"
सेनापति वीरूपाक्ष ने आगे बढ़कर कहा,
"लंकापति रावण पूरी तरह ठीक हैं। किंतु इस समय लंका एक विपत्ति का सामना कर रही है। अतः महाराज रावण ने आपको जगाने का आदेश दिया था।"
लंका पर विपत्ति आई है यह जानकर कुंभकर्ण ने कहा,
"लंका पर किस प्रकार की विपत्ति आई है ?"
सेनापति वीरूपाक्ष ने कहा,
"किष्किंधा के राजा सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण कर दिया है।"
"परंतु किष्किंधा पर तो बाली का राज है। बाली के साथ तो हमारी संधि है।"
"बाली का वध करके उनका छोटा भाई सुग्रीव किष्किंधा के सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है। उसने अयोध्या के विस्थापित राजा राम और उनके अनुज लक्ष्मण के साथ मिलकर लंका पर आक्रमण किया है।"
कुंभकर्ण यह जानकार क्रोधित हो गया। उसने कहा,
"उनकी इस धृष्टता का कोई कारण तो होगा।"
विरुपाक्ष कुछ संकोच के साथ बोला,
"अयोध्या के राजा राम की पत्नी सीता को महाराज रावण ने छल पूर्वक हर लिया है। अतः राम ने सुग्रीव के साथ संधि करके उनकी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई कर दी है। जिससे वह अपनी पत्नी सीता को सम्मानपूर्वक वापस ले जा सकें।"
सच जानकर कुंभकर्ण विचार में डूब गया। कुछ सोचने के बाद बोला,
"किसी ने भ्राता रावण को यह समझाने का प्रयास नहीं किया कि इस प्रकार किसी की स्त्री का हरण करना धर्म के अनुसार उचित नहीं है।"
वीरुपाक्ष ने कहा,
"महारानी मंदोदरी और माल्यवंत जी ने महाराज को बहुत बार समझाने का प्रयास किया। किंतु वह नहीं माने। आपके अनुज विभीषण ने जब महाराज को समझाने का प्रयास किया तो महाराज ने उन्हें अपमानित करके लंका से निकाल दिया। राम ने भी युद्ध आरंभ करने से पूर्व अपना एक दूत भेजकर शांति का प्रस्ताव भेजा था। जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि उनकी पत्नी सीता को महाराज वापस कर देंगे तो वह बिना युद्ध किए लौट जाएंगे। इस शांति प्रस्ताव को भी महाराज ने अस्वीकार कर दिया।"
कुंभकर्ण ने कहा,
"महाराज को मुझे जगाने की आवश्यकता पड़ गई। अर्थात शत्रु साधारण नहीं है।"
"जी...राम ने रणभूमि में महाराज रावण को निशस्त्र करके उन्हें अपमानित कर वापस भेज दिया। अतः महाराज अब युद्ध भूमि में आपकी सहायता चाहते हैं। इसलिए उन्होंने आपको जगाकर उनसे भेंट करने जाने का संदेश भिजवाया है।"
यह सुनकर कि उसका बड़ा भाई रावण विपत्ति में उसकी सहायता चाहता है कुंभकर्ण उससे भेट करने के लिए चल दिया।
लंका की वीथियों से होता हुआ कुंभकर्ण अपने भाई रावण से मिलने जा रहा था। लंकावासी उसे देखकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे। रणभूमि में रावण का जो हाल हुआ था उसे जानने के बाद लंका के वासियों में एक प्रकार की निराशा आ गई थी। परंतु कुंभकर्ण को देखकर उन्हें विश्वास हो गया था कि वह शत्रु पक्ष पर भारी पड़ेगा। वह लंका की रक्षा करने में सक्षम होगा।
यह समाचार सुनकर कि कुंभकर्ण उससे मिलने आ रहा है रावण विलास महल के छज्जे में खड़ा होकर उसके आने की प्रतीक्षा करने लगा। रावण मन ही मन शत्रु पक्ष के विनाश के बारे में सोचकर फुला नहीं समा रहा था।






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