कालप्रियनाथ के मन्दिर के शिलालेखों का निहितार्थ
इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी ईसा की पहली शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक फली-फूली है । (पद्मावती - डॉं0 मोहनलाल शर्मा , पृष्ठ-66-5.6 मुस्लिम मकबरे) यहॉँ नागों का शासन रहा है। धूमेश्वर का मंदिर इस क्षेत्र में आज भी तीर्थ-स्थल बना हुआ है। आज भी प्रति सोमवार को यहाँ मेला लगता है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव ने करवाया था । भवभूति की ‘मालती माधवम्’एवं महावीर चरितम् तथा उत्तर रामचरितम् अर्थात् उनकी तीनों ही कृतियों में कालप्रियनाथ के यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन, इस बात का प्रतीक है कि यह स्थल प्राचीनकाल से ही यहाँ की साँस्कृतिक विरासत का केन्द्र रहा है। यह धूमेश्वरका मंदिर ही पूर्व में कालप्रियनाथ का मंदिर था।
भवभूति विर्दभ प्रदेश में स्थित पद्मपुर नामक अपने जन्म स्थान से व्याकरण, मीमांसा और न्यायशास्त्र का गुरुदेव ज्ञाननिधि से अध्ययन करने के लिये पदमावती नगरी में आये थे। यह स्थान उनके मन को इतना भा गया कि उन्होंने इसे अपनी कर्मस्थली के रूप में स्वीकार कर लिया। यहीं बैठकर उन्होंने मालती माधवम्, महावीर चरितम्, और उत्तर राम चरितम् की रचना की है। यहाँ यह प्रश्न आकर खड़ा हो जाता है कि हम कैसे कह सकते हैं कि उन्होंने अपने ग्रंथों की रचना यहीं बैठकर की है।
आज पदमावती नगरी का निर्णय हो चुका है। मालती माधवम् के नवम अंक तो इस धरा की कहानी मुक्त कण्ठ से कहने में सफल रहा है। यहाँ सिन्ध और पारा नदी का संगम, लवणा अर्थात् नोन नदी का मनोहारी वर्णन,स्वर्ण बिन्दु एवं महुअर और सिन्ध नदी का संगम आदि से स्पष्ट हो जाता है कि इस सीमा रेखा से पदमावती नगरी के मानचित्र पर कालप्रियनाथ का अवलोकन करना सहज हो गया है।
पदमावती की परिधि में आने वाली बस्ती गिजौर्रा में च्यवन ऋषि की तपोभूमि के पास विश्वामित्र की यज्ञशाला तथा उसकी जलमग्न खाड़ी को आज भी देखा जा सकता है। आप सभी को ज्ञात है कि महावीर चरितम् का प्रारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से किया गया है। इन तथ्यों को साथ-साथ रखने पर निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने मालती माधवम् ,महावीर चरितम्, और उत्तरराम चरितम् की रचना यहीं बैठकर की है। इसी कारण वे मालती माधवम् में पदमावती नगरी के परिक्षेत्र का मनोहारी वर्णन करने में सफल रहे हैं।
अथ खलु भगवतः कालप्रियनाथस्य यात्रायामार्यमिश्रान् विज्ञापयामि
अब यहाँ यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव में, पदमावती की धरती पर बैठकर लिखे गये नाट्यग्रंथों के अभिनय की बात, किसी दूर स्थित स्थान की नहीं कही होगी। जिस स्थान पर बैठकर ये नाटक लिखे गये हैं वहीं उनका मंचन भी किया गया होगा। महाकवि भवभूति ने इसी कारण अपनी प्रत्येक कृति के प्रारम्भ में कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव में इनके मंचन को स्वीकार किया है।
सिकन्दर लोधी यहाँ आया था। उस समय के पाँच भव्य मकबरे भी यहाँ देखे जा सकते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या उसने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा? इन शिलालेखों से भाषित होता है कि उसने इसका अंश रूप ध्वस्त कर दिया था। इसका पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूँदेव ने करवाया है। वर्तमान में जो शिवलिंग उपलब्ध है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया गया है।
इस मंदिर की दीवार पर अरबी- फारसी के दो शिलालेख आज भी मौजूद हैं। वर्ष 1999 में मध्यप्रदेश संस्कृत अकादेमी द्वारा आयोजित ‘भवभूति समारोह’ में मुम्बई से पधारे वरिष्ठ संस्कृत मनीषी पं. गुलाम दस्तगीर से इसे मैंने पढ़वाने का प्रयास किया था, किन्तु वे एक शब्द ‘अल्लाह’ ही पढ़ पाने में सफल रहे।
इत्यादि सभी तथ्य हमें सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि यह एक प्राचीन मंदिर है, और इसकी प्राचीनता को कालप्रियनाथ से जोड़ना हमें विश्वसनीय लगता है।
वर्तमान में यहाँ स्थित धूमेश्वरका मन्दिर ही कालप्रियनाथ के बदले हुये रूप की स्मृति कराता है। ओरछा नरेश वृषंगदेव(वीरसिंह जू देव) को यहाँ मन्दिर बनवाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? वर्तमान में यहाँ स्थित भव्य मकबरे इस बात की गवाह देने में सफल हैं कि यहाँ कभी मुस्लिम शासको का वर्चस्व रहा है। प्रश्न उठता है क्या मुस्लिम शासकों ने कालप्रियनाथ के मन्दिर को यथावत् रहने दिया होगा।
आज इस मन्दिर को दो भागों में देखा जा सकता है। एक प्र वेश कक्ष दूसरा गर्भग्रह। प्र वेश कक्ष तो निश्चय ही ओरछा नरेश की वास्तुकला का नमूना है,किन्तु इससे गर्भ ग्रह की प्राचीनता छिपी नहीं है। मालती भाधवम् में वर्णित यहाँ स्थित जलप्रपात से उठता हुआ धुआँ, सम्भव है इसी आधार पर ओरछा नरेश ने इसका नाम धूमेश्वररखना उचित समझा हो। वर्तमान में स्थितशिव लिंग ओरछा नरेश द्वारा प्रतिस्थापित है। यहाँ के लोगों का कहना है कि कालप्रियनाथ काशिव लिंग तो यहीं खेतों में अभी भी खण्डित अवस्था में पड़ा है जिसे स्थापित करके एक नये मन्दिर का निर्माण किया गया है।
पवाया स्थित धूमेश्वरका मन्दिर का पुनर्निमाण मुगलशासक जहाँगीर के काल में उनके मित्र ओरछा के राजा वीरसिंह जू देव बुदेला ने कराया था। उन्होंने इस खण्डहर मदिर को देखा और चुपचाप इस मन्दिर का निर्माण शुरू कर दिया। चुपचाप इसलिये कह रहा हूँ यहाँ एक जनश्रुति प्रचलित है कि इस मन्दिर का निर्माण रातों-रात जिन्नों ने किया है। इसका अर्थ है यह कार्य चुपके-चुपके किया गया होगा। जब कार्य पूर्ण हो गया होगा तो ओरछा नरेश ने अपने मित्र बादशाह जहाँगीर को सही- सही स्थिति से अवगत करा दिया होगा और इसकी सुरक्षा में उनसे यह आदेश लिखवा लिया कि हिन्दू एवं मुसलमान लोग इस पूजा स्थल को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाए अन्यथा उन्हें गिरफ्तार किया जावेगा।
यहाँ स्थित शिलालेखों को पढ़कर इनके अर्थ स्पष्ट किया है-‘
1-खान, फिरोज (2002) पृष्ठ संख्या .169-171
2-इन्शक्रिपशंस ऑफ ग्वालियर
मटेरियल फार द हिस्ट्री ऑफ गोपाद्री रीजन-वाल्यूम पप पृष्ठ संख्या 469-470
लेखक- अरविन्द कुमार सिंह एवं नवनीत कुमार जैन ने अपनी इस कृति में इन शिलालेखों का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि बादशाह जहाँगीर के आदेशानुसार मुसलमान लोग इस पूजा स्थल को नुकसान न पहुँचाये अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जावेगा।
मुझे यह तथ्य श्री सुरेस कुमार गुप्ता जी रिटायर्ड बैक मैंनेजर के सहयोग से प्राप्त हुआ है।
अब हम इन दोनों शिलालेखों पर दिष्टि डाले-
शिलालेखन.1
1 बिसमिल्लाह अर्ररहमान निर्रहीम दारा रबबर
2 अस्ता अजा सरवरा काएनात मफाखारा मौजूदा
3 अता.............
4 ...........अस्ता सुन ए बुतखाना जियारा
5 निगाह वा गतूफा हिन्दुअनास्ता वा..... मुसलमाना
6 वा हिन्दुआन कहा.....
इसकी हिन्दी देखें-
1 सुरू करता हूं अल्लाह के नाम से जो मेहरबान निहायत रहम करने वाला है कहा जाता है।
2 सारी दुनिया के सरदार और सृष्टि के सिरोमनि है
3 देता हूँ
4,5 रवोमकि ये मन्दिर हिन्दुओं की धर्मयात्रा और पूजास्थल है मुसलमानों
6 वा हिन्दुओं के
शिलालेख क्र .2
1 बिसमिल्लाह अर्रहमान निर्रहीम हजरत रसूल अल्ला
2 नवी अलाहहिस्तामा अमारा फरमुदानदा के ई खाना
3 मोहम्मद रसूलल्लाह अस्त हारा कास के मुसलमान
4 बासदा उरा होदिसा आस्ता हारा जा के नक्सा
5 वा करीद सख्ता इ.......
6........... गिरफ्तार ख्वाहदा सुदा
इसकी हिन्दी देखें-
1सुरू करता हूं अल्लाह के नाम से जो मेहरवान निहायत रहम करने वाला है कहा जाता है हजरत रसूलअल्लाह
2नबी अल्लाहहिस्लामा ने हुक्म दिया कि ये घर
3मोहम्मद रसूलअल्लाह का घर है हर वह इंसान जो मुसलमान
4-5 होगा उसको हिदायत है कि वह मन्दिर की नक्काशी और कसीदाकारी को नुकसान न पहुँचाए
6..............उसे गिरफ्तार कर लिया जायेगा।
निष्कर्ष- जो शिला लेख मिले हैं, जिन्हें पढ़ कर व्याख्यायित करने में श्री सुरेश गुप्ता एवं वेदराम प्रजापति ने पूरा सहयोग किया है।
सिकन्दर लोदी यहाँ आया था पाँच भव्य मकबरे इस बात की गवाह है कि मुस्लिम शासकों का यहाँ वर्चस्व रहा है।
दूसरे संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति के पूर्व से कालप्रियानाथ के मन्दिर का अस्तित्व रहा है। भवभूति ने अपने तीनों ग्रंथों की प्रस्तावना में कालप्रियानाथ के यात्रा उत्सव की समग्र चर्चा की है।
प्रश्न उठता रहा है कि क्या सिकन्दर लोदी ने उस इमारत को यथावत रहने दिया होगा। इस शिलालेख से यह बात तो सामने आ ही जाती है कि सिकन्दर लोदी ने कालप्रियानाथ के मन्दिर को ध्वस्त तो कर दिया किन्तु पता नहीं क्यों उसने इस स्थल पर किसी मुस्लिम प्रतीक का निर्माण नहीं किया। यदि किया होता तो बादशाह जाहाँगीर का ये शिलालेखयहाँ नहीं होते।
ये शिलालेखओरछा के राजा वीरसिंह जू देव बुदेला और बादशाह जहाँगीर की धनिष्ठ मित्रता का प्रमाण है।
ये बादशाह जहाँगीर की सहृदयता का भी द्योतक है।
इस काल तक यहाँ मुसलमानों का वर्चस्व था, इसी कारण इस इमारत की रक्षा के लिये ओरछा नरेश ने अपनी मित्रता का लाभ उठाकर ये शिलालेख बादशाह के आदेश से लगवा दिये।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दोनों शिलालेखों में ईश्वर, अल्लाह की परमसत्ता स्वीकारी गई है। दोनों सिलालेखों में ही इस इमारत की सुरक्षा की बात लिखी है। जिससे इस इमारत के साथ यहाँ की चित्रकला और कसीदाकारी भी सुरक्षित रह सके।
दोनों शिलालेखें में इसे क्षति पहुँचाने वाले कों गिरफ्तार करने की बात लिखी है। जिसके परिणाम स्वरूप यह इमारत इस रूप में आज हमारे सामने है।
इस तरह यह इमारत हमारी राष्ट्रीय एकता के लिये साम्प्रदायिक सद्भाव का एक अद्वितिय उदाहरण है। इस घरोहर को सँभालकर रखने की महती आवश्यकता है।
आधार ग्रंथ-
1 मालतीमाधवम्:भवभूति
2 महावीर चवरितम्:भवभूति
3 उत्तररामचरितम् :भवभूति
4 खान फिरोज(2002)पृ169-171
5 इन्सक्रिपशंस ऑफ ग्वालियर मेटेाियल फार द हिस्ट्री ऑफ गोपान्द्रि रीजन:अरविन्द कुमार सिंह एवं नवनीत कुमार जैन वाल्यूम2 पृ0-469-470
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