कहानी--
अनन्तकाल
आर. एन. सुनगरया,
..........जब कोई अपने स्वार्थ को भ्रमजाल में कैद कर लेता है, और उसके वशीभूत होकर स्वआनन्द मेहसूस करने लगता है, तब वह भी किसी बुरी लत के समान है, एक धुन के समान है, या फिर दीमक के समान है, जो सबकुछ चाट जाती है और कुछ पता भी नहीं चलता।
एक अदृश्य नशे की हालत में सबकुछ विलुप्त हो जाता है, नष्ट हो जाता है। स्वभाविक, नैसर्गिक और कण-कण संग्रहित अच्छाइओं का खजाना खाली हो जाता है और अजीब सा खालीपन घर कर लेता है। भूत, वर्तमान और भविष्य सब चौपट हो जाता है। खोखला...खोखला....।
......दृष्टि के सामने अद्भुत दृश्य मोहित करता हुआ मेहसूस हो रहा है......नवजात शिशु विशुद्ध जलवायु में अपने नन्हे – नन्हे हाथ-पैर हिलाते-डुलाते स्निग्ध पवन में तैर रहा है।
गौर से देखा तो अत्यन्त कोमल मुस्कुराहट की भावुक शैली में आमन्त्रित कर रहा है। स्नेहिल गोद में सुरक्षित पनाह की अपेक्षा में.......
‘’.....सुनते हो......।‘’
जोर का ठूंसा लगा, नींद टूटी, हड़बड़ाया, ‘’क्या हुआ....!’’
‘’बहु को बेटा हुआ है!’’ पत्नी का स्वर कर्कश लगा।
‘’हॉं मालूम है।‘’
‘’कैसे..?’’ पत्नी को विश्वास नहीं हुआ, उसने हल्के फुल्के लहजे में कहा, ‘’सपना देखा...?’’
दोनों खुशी-खुशी हँसने लगे।
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स्वभाविक रूप से सारी सम्वेदनाऍं, प्रीत, स्नेह, प्यार, एवं सम्पूर्ण कोमल भावनाऍं नि:स्वार्थ नवजात शिशु एवं बधु से जुड़ गईं। अनेकों अपेक्षाओं ने जन्म ले लिया। ऐसे अभूतपूर्व एवं अद्भुत आनन्द की हिलोरों में अपना सम्पूर्ण अस्तित्व बह जाता है। निकट भविष्य की सम्भावित झॉंकियों के दृश्यों में रम जाना अच्छा लगने लगता है।
.......नन्हे बच्चे की किलकारियॉं। छोटे-छोटे हाथ-पैर ‘भी’ कोमल-कोमल छुअन एवं हल्का सा घूँसा कितना सुखद होता है। गोद में मचलना, पल-पल में मुस्कुराना, गोदी से फिसलना, नीचे ऊतारने के संकेत का ऐहसास कराना, नन्ही-नन्ही—नन्हीं-नन्हीं ऊँगलियों से चश्मा...खींचना, पश्मा से चेहरा नोंचने वंचने वच कड़ने का प्रयास करना; सहज ही नैसर्गिक शुकून का आभास जीवन्त कर जाता है।
आत्मिय व हृदय में उमड़ती भावनाओं का सुहाना सैलाब उछाल मारने लगता है। इस स्वर्ग समान सपनीली सम्पदा समेट कर संग्रहित करने का लोभ होता है। इस अमूल्य अदृश्य आसरे को।
स्वभाविक रूप से शिशु की अनेकों-अनेक मोहक मुद्राऍं, मुस्कुराहटों, अठखेलियॉं, तोतली अस्पष्ट महीन बोली, डगमगाते हुये खड़े होना, फिर डोलते हुये चलने की चेष्टा में, झूमते हुये जमीन पर पसर जाना और खिलखिलाने लगना, खुशी-खुशी में चलते हुये ताली बजाना इत्यादि-इत्यादि श्रेष्ठ अनुभूति का परम नैसर्गिक सुख, प्रसन्नता मेहसूस होती है। इस शास्वत सुखद सुकून शान्ति की तुलना अन्य किसी रमणीक दृश्य से नहीं की जा सकती है। यह दिव्य सम्पदा बड़े पुण्य व भाग्य से ही प्राप्त होती है, अनूठी धरोहर की तरह....।
पोते के शिशु सुलभ, सुरीली अटखेलियॉं, तोतली स्वरलहरी में सम्वाद, निश्च्छल मुस्कुराहट और खिलखिलाती छल-छल मारती जलधारा के बहाव में बहते-बहते कहॉं आ गये पता ही नहीं चला। मादक मदहोशी इतनी छायी कि ऐहसास ही नहीं हुआ कि कब हमारे स्वभिमान को आत्म-सम्मान को बहु-बेटे ने अपनी स्वार्थपरता का चारागाह बना लिया है। कोमल भावनाओं को अपने फायदे में दोहन जारी रखा। उसके लिये खुली टकसाल की तरह उपयोग होने लगे। हम!
........जब होश आया। चेतना लौटी तो सारा मान-सम्मान और संस्कार कुचले जा चुके थे। हम वशीकृत गुलामों की भॉंति नाचते हुये मेहसूस हुये। आत्मा चीत्कार करने लगी। यह तेहरा के बदले तीन का सौदा बहुत मेहंगा पड़ा। घोर साजिश की बू आने लगी। रिश्तों की समाधी बनी हुई दिखाई देने लगी।
मन मलीन हो गया। अपनों के साथ अपनों का ऐसा खुदगर्जी भरा खेल, ऐसी चालाकी, ऐसी चतुराई, इतनी बदनियती, इतनी साजिश और शिकारी की तरह जाल फैलाकर पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ शिकार करना, सारे रिश्ते–नाते, प्रेम-मोहब्बत, स्नेह-प्यार, भाई-चारा, एक दूसरे के लिये परस्पर सम्वेदनशीलता एवं प्रीत सब-के-सब हथियार की भॉंति उपयोग करके नोंच-खचोट का नंगा नाच करके कौन खुशहाल रह सकता है? मगर शिकारी मदिरा मस्त होकर विजय उत्सव मना रहे हैं।
सर्वमान्य बन्दिशें, मर्यादाऍं बाद्धताऍं और भी अनेक प्रचलित कारण हैं; समाज का सन्तुलन बनाए रखने के लिये।
क्या उन्हें झुठलाया जा सकता है? सम्भवत- कभी नहीं! समय-बे-समय इनके दुष्प्रभावों को तो भुगतना ही होगा... आज नहीं तो कल!
इसी कारण समाज में सामान्य श्ष्टिाचार का सन्तुलन बने रहने से ही सर्वसुखाय वातावरण का पोषण होता है।
परम्परागत सम्बन्ध हो, खून का रिश्ता हो, मुँह बोला लगता हो, या स्वभाविक मानवीय नाता हो यानि कोई भी कारण हो, एक–दूसरे से मिलने का वह तभी तक सार्थक है, जब तक निभता है। उसे जीवित रखने के लिये सम्पूर्ण आवश्यक मूल तत्व मिलते रहते हैं। अनुकूल आवो-हवा, जलवायु, परिवेश और वातावरण पाकर ही वह अपनी अपार, अदृश्य आनन्दित व आन्तरिक शक्ति से मेल मिलाप को सहेजता है। जीवन को तनाव मुक्त बनाना है।
जन्म से ही अनायास स्वभाविक सम्बन्ध जाने–अन्जाने बनने लगते हैं। उनके साथ ही पूर्व निर्धारित परिभाषा भी उन नवनिर्मित स्थापित नातों को परिभाषित करती चलती है। उसी आधार पर हृदय में उस रिश्ते के लिये प्रीत अपनी अमिट छाप बना लेती है।
-रिश्तों का निर्मल हृदय से निर्वहन अनन्तकाल तक सुखद परिणाम देता रहता है।
♥♥♥♥ इति ♥♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.) मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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