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रामचरितमानस - मानस में व्यग्य

3 रामचरितमानस में व्यग्य

पाण्डव पत्नी द्रोपदी ने व्यंग्य बाण चलाकर अन्धे के अन्धे होते हैं, महाभारत के महाविनाशकारी युद्ध को जन्म दिया। मातेश्वरी रत्नावली के शब्द, जितनी प्रीति हाडमास से है, उतनी यदि राम से होती तो उद्धार हो गया होता। इस शब्द बाण ने भारतीय संस्कृति की आचार संहिता रामचरितमानस को जन्म दे दिया।

व्यंग्य की धार बड़ी तीखी होती है। वह चौतरफा वार करने में समर्थ होती है। चेतना को उदीप्त बना देती है। तोप और तलवार का वार उतना असरदार नहीं होता जितना व्यंग्य का होता है। अब यहाँ एक सोच जन्म ले रहा है-व्रूंग्य का परिधान पहनकर तुलसी के अन्तस में जो हलचल हुई उसी का परिणाम है, जन-मन का लोकप्रिय महाकाव्य रामचरितमानस।

महर्षि परशुराम एवं लक्ष्मण संवाद में रामचरितमानस में महाकवि ने जिस प्रसंग की संरचना की है वह प्रसंग एक अनूठा ही प्रसंग बन गया है। कई बार उसका मंचन देखने के वाद भी उस स्थल का मंचन देखने का भाव शेष रह गया है। धनुष यज्ञ के समय-

माखे लखनु कुटिल भई भौहें।

रदपट फरकत नयन रिसौहें।।

कहि न सकत रघुवीर डर, लगे वचन जनु बान।

जनक जी के कौन से वचन-

अब जनि कोउ भाखै भटमानी।

बीर बिहीन मही मैं जानी।।

तजहु आस निज- निज गृह जाहू।

लिखा न विधि बैदेहि विवाहू।।

इस प्रकार महर्षि परशुराम जब वहाँ आते हैं और पूछते हैं कि ये घनुष किसने तोड़ा है तो लक्ष्मण जी इसका उत्तर देते हैं-

बहु धनुहीं तोरे लरिकाईं।

कबहुँ न असि रिस कीन्हीं गोसाईं।।

एहि धनुपर ममता के हि हेतू।

सुनि रिसाइ कह भृगुकुल केतू।।

महर्षि परशुराम जी भी उनके व्यंग्य बाणों का उत्तर उसी भाषा में देते हैं-

रे नृप बालक काल बस बोलत तो हि न सँभार।

धनुही सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार।।

लक्ष्मण जी भी कम नहीं हैं, वे कहने लगते हैं-

लखन कहा हँसि हमरे जाना।

सुनहु देव सब धनुष समाना।।

छुअत टूट रधुपतिहि न दोसू।

मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।

ऐसी बातें सुनकर किसे क्रोध नहीं आयेगा। बेचारे परशुराम जी भी क्रोधित हो उठते हैं। व्रूंग्य वचन सुनकर क्रोधित होना स्वाभविक है। लक्ष्मण जी को समझाते हुए वे कहने लगते हैं-

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोहीं।

केवल मुनि जड़ जानहि मोहीं।।

बाल ब्रह्मचारी अति क्रोही।

विस्व बिदित क्ष्त्रिय कुल द्रोही।।

अब वे अपने क्रोध की तीव्रता प्रगकट करते हुए कहते हैं-

सहस बाहु भुज छेदनि हारा।

परसु बिलोक महीप कुमारा।।

परशुराम जी को अत्याधिक क्रोधित जानकर लक्ष्माण जी हँसते हुए कहते हैं-

बिहसि लखनु बोले मृदबानी।

अहो मुनीस महा भटमानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू।

चहत उड़ावन फँूक पहारू।।

अपने मुँह से अपनी प्रशंसा महाकवि की व्यंग्य में गहरी पैठ का परिचायक है। ये कथन सहज कथन में समाहित नहीं किए जासकते। राम जी लक्ष्मण की बात का सामान्य अर्थ ग्रहण करने के लिए परशुराम जी से आगह करते हैं।

जौं पै प्रभु प्रभाउ कहुजाना।

तौ कि बराबरि करत अयाना।।

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं।

गुरु पितु मातु मोद मन भरहीं।।

जब श्री राम जी उनके क्रोध को ठण्डा करने का प्रयास कर रहे थे, उस समय लक्ष्मण जी मुस्काने में लगे थे। उनकी हँसी देखकर परशुराम जी पुनः क्रोध में आ जाते हैं और कहने लगते हैं-

गौर शरीर स्याम मन माहीं।

कालकूट मुख पयमुख नाहीं।।

उनकी बात सुनकर लक्ष्मण जी कहने लगते हैं-

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया।

परिहरि कोपु करि अब दाया।।

टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने।

बैठिअ होइहि पाय पिराने।।

इस व्यंग्य वर्षा के कारण सभी उपस्थित जन भयभीत हो जाते हैं। बढ़ हुई बात का समन करने के लिए श्री राम जी कहते हैं-

बरैर बालकु एकु सुभाऊ।

इन्हहि न संत विदूषहि काऊ।।

इस व्यंग्य प्रसंग के अन्त में यह परिणाम निकलता है-

कहि जय जय जय रधुकुल केतू।

भृगु पति गए बनहि तप हेतू।।

जीवन का यथार्थ समझकर व्यक्ति तप की ओर भागता है। बाबा तुलसी ने व्यंग्य को मर्यादा में बाँधकर रखा है। उसमें उच्छृंखलता नहीं आने दी किन्तु व्यंग्य की सौंधी सुगन्ध का आनन्द उनकी शब्दावली से लिया जा सकता है।

राम जी का राज्याभिषेक होने की तैयारी की जा रही है। इस अवसर पर प्रसंग बदलने के लिए बाबा तुलसी व्यंग्य का सहारा लेते हैं। कैकई के डाँटने पर मंथरा कहती है-

फोरै जोग कपारु अभागा।

भलेउ कहत दुःख रउरेहि लागा।।

उसके तीखे व्यंग्य की भाषा कैकई के हृदय को स्पर्श कर जाती है-

कोउ नृप होय हमहिं का हानी।

चेरी छांड़ि अब होब कि रानी।।

ऐसी बातें सुनकर कौन उसका विश्वास नहीं करेगा। कैकई उस पर विश्वास करने लगती है। वे उसे उससे बात की गहराई जानने के लिए पूछने लगती है तो वह कहती है-

तुम्ह पूँछहु मैं कहत डराऊँ।

धरेहु मोर घर फोरी नाऊँ।।

व्यंग्य की ऐसी बातें विश्वास करने के लिए किसी भी व्यक्ति को विवश कर सकती हैं। इसके बाद तो तो वह अपने तर्कों से कैकई जैसी बुद्धिमता की बुद्धि पलटने में सफल हो जाती है।

इस समय उस प्रसंग की याद आने लगी है जिसमें स्वर्ण मृग को देखकर,सीता जी उसकी मृगछाला के लिए कहतीं हैं। श्री राम जी उसे मारने के लिए जाते हैं। जाने से पहले वे लक्ष्मण को विवके के साथ सीता की रखवाली के लिए कह कर जाते हैं।

यहाँ ‘लक्ष्मण’ शब्द की आवाज जब सीता जी को सुन पड़ती है तो वे लक्ष्मण से राम जी की रक्षार्थ जाने के लिए कहतीं हैं। लक्ष्मण धर्म संकट में फस जाते हैं। सीता जी भयभीत होकर उनसे कहतीं है-

जाहु बेगि संकट अति भ्राता।

लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।।

भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।

स्पनेहुँ संकट परइ कि सोई।।

इस उपदेश का सीता के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तब वे कहनें लगतीं हैं-

मरम वचन जब सीता बोला।

हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।

अब यहाँ आकर प्रश्न खड़ा हो जाता है कि हृदय में चुभने वाले कौन से वचन सीता ने कहे। बाबा तुलसी उन्हें छिपा जाते हैं। निश्चय ही कोई गहरा व्यंग्य उनके हृदय में चुभा होगा। लक्ष्मण को विवश होकर वहाँ से जाना पड़ता है।

रामचरितमानस के अनेक प्रसंगों में व्यंग्य बिखरा पड़ा है। अब मैं सीधे आपको लंकाकाण्ड में लेकर चलता हूँ। अंगद रावण के दरबार में पहुँचता है। रावण बालि की कुशलता अंगद से पूछता है। अंगद का उत्तर देखिये-

दिन दस गएँ बालि पहि जाई।

बुझेहु कुशल सखा उर लाई।।

राम विरोध कुशल जसि होई।

सो सब तोहि सुनाइहि सोई।।

रावण के कुल नाशक के उत्तर में अंगद कहता है-

हम कुलघातक सत्य तुम कुल पालक दससीस।

अंधउ बधिर न अस कहहि नयन कान तब बीस।।

रावण जब हनुमान के अस्तित्व को स्वीकारता है तो अंगद रावण से कहने लगता है-

जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव फेर लघु धावन।।

हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहना की है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है। वह वहुत तेज चलता है। वह वीर नहीं है। उसको तो हमने खबर लेने के लिए भेजा था।

ऐसा उत्कृष्ट व्यंग्य भरा बाण चलाने वाला बाबा तुलसी का एक पात्र है। व्यंग्य की विधा अपने पर दृष्टि डालने की क्षमता प्रदान करने में सक्षम होती है। वह हमें अपना निरीक्षण करने की दृष्टि देता है।

व्यंग्य सत्य- असत्य में द्वन्द उपस्थित करता है। उससे जो लय फूटती है निश्चय ही वह सत्य न हो पर सत्य के निकट पहुँचाने में सहायक होती है। इसी कारण बाबा तुलसी ने व्यंग्य विधा का अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। जिससे हम रामचरितमानस के अध्येता उनके कृतज्ञ हो गये हैं।


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