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रामचरितमानस-हिन्दी के विस्तार में मानस का योगदान

रामचरितमानस

1 हिन्दी के विस्तार में मानस का योगदान


निज भाषा उन्नति ऊहे सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।।

उन्नति पूरी है तबहि जब घर की उन्नति होय।

निज शरीर उन्नति किए रहत मूढ़़ सब कोय।।

करहु विलम्ब न भ्रात अब उठहु मिटावहु सूल।

निज भाषा उन्नति करहु प्रथम जो सब को मूल।।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ये पक्तियाँ जब जब मेरे मानस में आतीं हैं। मन हिन्दी की दुर्दशा देखकर बेचैन हो उठता है।

सम्भव है भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इन पक्तियों की तरह ऐसे ही विचार हिन्दी के सम्बन्ध में महाकवि तुलसीदास जी के अन्तस् में उनके समय में उठे हों और उन्होंनेे इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करने के लिए, रामचरितमानस जैसे ग्रंथ की रचना कर डाली हो। रामचरितमानस का प्रारम्भ इन पक्तियों से-‘वर्णानामर्थसंधानांरसयानां छनदसमापि। मंगलानाकर्तारौवन्देवाणी विनायकौ। वाणी और वाणी के देवता श्री गणेश जी की वन्दना अर्थात अक्षर अर्थ समूह एवं निज भाषा की वन्दना से मानस का प्रारम्भ। निश्चय ही वे हिन्हीं की दुर्दशा से र्व्यिथत थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि हिन्दुस्तान के बच्चे से लेकर वूढ़ों तक की नजर राम पर टिकी है।

स्वान्तः सुखाय तुूलसी रघुनाथ गााथा। भाषा निबन्ध मति मंज्जुल मातनोति।।

श्री रघुनाथ जी की कथा के द्वारा तुलसीदास जी ने अपने अन्तः करण के सुख के लिए, अत्यंत मनोहर भाषा की रचना में लग जाते हैं। वाणी अर्थात भाषा के विकास के लिए श्री राम का सहारा लेना ही वे श्रेष्ठ समझते हैं। क्योंकि-

राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहरेहु जो चाहसि उजियार।।

वे श्री राम की डोर पकड़कर, हिन्दी भाषा की वैतरणी को पार करने में लग गये। इस तरह रामचरितमानस की संरचना ने हिन्दी भाषा के विस्तार में एक नई चेतना जन- जन के समक्ष उपस्थित कर दी।

रामचरितमानस ने हिन्दी भाषा के पाठकों में जो आत्मविश्वास पैदा किया है उसे सारा विश्व महसूस कर रहा है। आज हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारी हिन्दी भाषा के पास एक दिव्य धरोहर मौजूद है जिसमें चारों वेदों,ं सभी पुराणों तथा सभी धर्म ग्रंथों का सार निहित है।

भाषा के विकास में जिन अवयवों की आवश्यकता होती है वे सभी अबयव रामचरितमानस ने समाज के समक्ष सहजता से प्रस्तुत कर दिये हैं। लोगों को मानस की पन्तियों का उपयोग लोकोक्तियों एवं मुहावरों की तरह करते हुए देखा जा सकता है। अपनी बात की पुष्टि के लिए भी लोग मानस की पक्तियों का सहारा लेते हैं। देश की सभी प्रान्तीय भाषाओं में रामचरितमानस की लोकोक्तियों एवं मुहावरों को पचाकर उनका प्रयोग किया जा रहा है। इस तरह हिन्दी हिन्दुस्तान के कोने- कोने की भाषा बन गई है।

भाषा विज्ञान की कसौटी पर कसने के लिए जिन तत्वों की किसी भाषा को आवश्यकता होती है, रामचरितमानस ने हिन्दी भाषा में वे सभी तत्व उपस्थित कर दिए हैं। हिन्दी में हम जो बोलते हैं वही लिखते भी हैं। स्वर- व्यंजन की ऐसी वैज्ञानिक संरचना, विश्व की बहुत कम भाषाओं में देखी जा सकती है। हिन्दी की पाचन छमता अद्वितीय है, जो शब्द हिन्दी के निकट आये कि हो गये वे उसके।

अब हम जन- जन की मनोवृति पर दृष्टि डालें। सारा विश्व रामकथा को जानना और समझना चाहता है। रामचरितमानस ने लोगों की इस प्यास को बुझाकर हिन्दी के विस्तार में अनन्त सम्भावनाएँ उपस्थित कर दी हैं। जो काम वेदव्यास एवं महार्षि वाल्मीकि और बड़े-बड़े तपस्वी ऋषि -मुनि नहीं कर पाये वह काम राम भक्त तुलसीदास ने कर दिखाया है। हिन्दुस्तान का बच्चा- बच्चा श्री राम के चरित्र से रू- ब-रू होना चाहता है। उसे पढ़ना चाहता है , उसे समझना चाहता है, इसी कारण वह हिन्दी की ओर मुखातिव होता जा रहा है।

रामानन्द सागर ने इसी नब्ज को समझा। उसे ही पकड़कर रामायण धारावाहिक को हिन्दी के माध्यम से श्री राम के सहारे विश्व के धरातल पर रख दिया। आज हिन्दी विश्व के कोने - कोने में पहुँच गई है। हिन्दुस्तान की सभी प्रान्तीय भाषायें उसके लिए स्वागत के द्वार खोलकर खड़ी है। हिन्दी भी प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों को अपनााने में लगी है। धीरे- धीरे आपस का द्वन्द समाप्त होता जा रहा है। कल देखना प्रान्तीय भाषायें व हिन्दी मानस के सहयोग से मिलजुलकर एक ऐसी संरचना करेंगी कि विश्व इस धरोहर को देखता रह जायेगा।

अब तो मानस की प्रत्येक पक्ति जन-जन तक पहुँचने के लिए व्यकुल है। वे मानस के सहारे जन-जन तक पहुँच भी रहीं हैं। लोगों के अन्तस् को चेतना प्रदान करके उन्हें लाभान्वित भी कर रहीं है। प्रान्तीय भाषाओं के लोग मानस के मन्त्रों का प्रयोग करके अपने को उदात्त बनाने में लगे हैं।

भारतीय संस्कृति के दर्शन रामचरितमानस में किए जा सकते हैं। भारतीय संस्कृति के छात्र भी मानस को अपनाकर अपने को तृप्त करने में लगे हैं। हमारी संस्कृति क्या है उससे समाज की उन्नति कैसे हो सकती है। इत्यादि सभी बातों का हल मानस में सहजता से उपलब्ध हो जाता है। आदमी को इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीें रहती। राम राज्य की अनूठी संरचना पर दृष्टिपात तो कीजिए-

दैहिक दैविक भोतिक तापा। रामराज्य नहिं काहुहि व्यापा।।

सब नर करहीं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।

चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहु अघ नाहीं।।

राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परमगति के अधिकारी।।

अल्प मृत्यु नहीं कबनिउ पीरा। सब सुन्दर सब निरुज शरीरा।।

नहीं दरिद्र कोई दुःखी न दीना। नहीं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।

राम राज नभ गेस सुन,सचराचर जग माहिं।

काल कर्म स्वभव गुन, कृत दुःख काहुहि नाहि।।

समाज को मर्यादा प्रदान करने वाला यह महाकाव्य, हमारी संस्कृति का संविधान है। संस्कृति के सारे नियम कानून इसमें भरे पड़े हैं। इन्हें समझने की जरूरत है तो हमें हिन्दी भाषा को सीखना ही पड़ेगा तभी हम उनसे रू-ब-रू हो पायेंगे और समाज को सही दिशा दे पायेंगे। हमारे समाज का दिशासूचक यंत्र हिन्दुस्तान की धरती पर यदि कोई है तो वह है रामचरितमानस। पति पत्नी की मर्यादाएँ, भाई-बहिन के सम्बन्ध तथा माता- पिता की आनबान, गुरु में शिष्य की श्रद्धा बनाये रखने के लिए मानस का अमूल्य योगदान है। विश्व इस धरोहर को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा है।

हिन्दी के विस्तार में मानस का योगदान बहुमूल्य है। मानस की संरचना ने यह घेषित कर दिया है कि अब हिन्दी किसी की मोहताज नहीं है। वह अपने पैरों पर खड़े रहने की शक्ति अपने पास रखती है। अब वह जन-जन का उपकार करने में लगी है। ज्यों- ज्यों मानस का प्रचार - प्रसार बढ़ता जायेगा हिन्दी का विस्तार त्यों- त्यों होता चला जायेगा। जीवन जीने की कला हमें सीखना है तो हम रामचरितमानस से सीखें। अहार-व्प्यवहार, आचार- विचार मानस की पक्ति-पक्ति में भरे पड़े हैं। आज हिन्दुस्तान का सच्चा मित्र है तो वह है श्री रामचरितमानस।

अब हम श्री रामचरितमानस की आरती गाकर देखें-

गावत वेद पुराण अष्टदश, छओ शास्त्र सब ग्रंथन को रस।

मुनि जन धन संतन को सरबस, सार अंश सम्मत सब ही की।।

कलिमल हरनि विषय रस फीकी, सुभग सिंगार मुक्ति जुवती की।

दलन रोग भव मूरि अमी की, तात मात सब विधि तुलसी की।।

एक राष्ट्र के लिए जो आवश्यक तत्व होना चाहिए, वे हिन्म्दुस्तान की धरती पर

हिन्दी के बिना पूर्ण नहीं होसकते। यदि एक सशक्त राष्ट्र का सपना देखना चाहते हैं तो फिर हिन्दी को हमें अपनाना ही होगा।

मित्रो, हम रामचरितमानस को पढ़ें और अपने पड़ोसियों को पड़ावें। यदि हम अपने घर,परिवार, समाज और राष्ट्र का उद्धार करना चाहते हैं तो रामचरितमानस के नजदीक होते चले जायें। हम इस सागर में गोते लगाते जायें। अब आप समझ गये होंगे कि आपको कल्याणकारी राजपथ मिल गया है, वह पथ है रामचरितमानस।


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