पुस्तक समीक्षा ‘मंथन -शिव बरुआ ramgopal bhavuk द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

पुस्तक समीक्षा ‘मंथन -शिव बरुआ

पुस्तक समीक्षा

आंचलिक जिन्दगी का रोचक ‘मंथन

शिव बरुआ

बरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार ग्वालियर

रामगोपाल भावुक ‘डबरा’ भवभति नगर का उपन्यास ‘मंथन’उनकी रचना धर्मिता के उठान की कहानी भी है। अंचल की अधकचरी जिन्दगी के बीच जब कोई व्यक्ैित बहैसियत लेखक के जीवित रहता है तो वह साहित्यिक साधु होता है। भावुक का भाषागत पक्ष इसका साक्षी है।

मंथन आंचलिक जिन्दगी की उन समस्याओं को अंत तक मथता है जो ग्राम के स्तर पर शीत युद्ध की तरह उभरकर शांत नहीं होती हैं। मंथन की पृष्ठभूमि में गांव की राजनीति प्रमुख है। रामगोपाल भावुक एक ऐसे गांव के दर्शक हैं जहाँ मजदूरों और किसानों का शोषण महन्त करता है। वह चुनाव जीतता है। पुरातत्वीय महत्व की मूर्तियां विदेशियों को बेचता है। वही महन्त अंततः मार दिया जाता है।

समूचा उपन्यास डा0रवि उनकी पत्नी जो विवाह पूर्व साधना है, समाजसेवक बशीर और महन्त के आसपास है। उपन्यास का केन्द्र यद्यपि रवि की पत्नी रश्मि और बशीर है लेकिन लेखक उदेश्य के आसपास आकर बिखर जाता है। कथासूत्र का आधार रश्मि है जो अपने पति को नशे की आदत से मुक्ति दिलाती है। रामगोपाल भावुक ने रश्मि के जिस चरित्र सृष्टि की है वह प्रभावित करता है, एक प्रबुद्ध स्त्री के संवादों की संरचना में लेखक ने श्रम किया है। रश्मि के माध्यम से धीरे धीरे उन परम्पराओं का उल्लेख भी कराया है जो प्रथा मात्र हैं। वह पति के साथ चिकित्सा कार्य तो करती है साथ ही बशीर के आग्रह पर राजनीति में सक्रिय होती है।

बशीर समाज सेवक है और आपातकाल में बंदी बनाये जाते हैं। वह रश्मि कों राजनीति में सक्रिय करते हैं। बशीर आपातकाल के पश्चात जनपद के चुनाव में महन्त को परास्त करते हैं। लेखक ने इस बीच आपातकाल की तानाशाही गांव में व्याप्त भय परिवार नियोजन से त्रस्त लोगों का चित्रण किया है। यद्यपि आंचलिक परिवेश को समाहित नहीं किया गया है। यद्यपि लेखक ने ग्रामीण से उच्च हिन्दी के सम्बादों के स्थान पर आंचलिक बोली का ही प्रयोग कर वाया है, यह उनकी समझबूझ की ओर संकेत करता है।

गांव का महन्त सामन्तवादी वृति का है और वह उस वर्ग का प्रतीक है जो पुलिस पटवारी और तहसीलदार से मिलकर छोटे स्तर की राजनीति करते करते मात्र अपना हित साधन करता है। स्वाभाविक रूप से उसके अधिकार में पंचायत के फैसले हैं और जातिगत वहिष्कार करवा सकने की शक्ति। इस वहिष्कार का वहिष्कार करते हैं रवि रश्मि और बशीर।बशीर विद्रोही है तथा महन्त का प्रति़द्वन्द्वी है इसलिए उन्हें पंचायत में नहीं बुलाया जाता है। महन्त के विरुद्ध रश्मि का संघर्ष महन्त द्वारा उसे धोखे से नशा करवाकर बलात्कार करना, बशीर यह जानता है और वह रवि के सहयोग से रश्मि को सार्वजनिक जीवन में लाकर महन्त के विरुद्ध मोर्चा बनाता है।

रवि बहुत सुलझा व्यक्ति है अतः अंत में रश्मि अपनी बलात्कार की कहानी भी उसे सुना देती है। रवि विश्वास से भर जाता है क्योंकि वह रश्मि छिपा भी सकती थी, लेकिन उसने छिपाया नहीं।

मंथन आरम्भ में आंचलिक परिवेश लोकगीत लोकमान्यताओं और ग्रामीण में पढ़ी लिखी बहू के प्रति व्याप्त अवधारणाओं बहू का सार्वजनिक जीवन में आने पर सामाजिक विरोध जैसी समस्याओं को बहुत बारीकी से चित्रित करता है। आरम्भ के लिये लेखक बधाई का पात्र है लेकिन अंत में वह कथानक को समाप्त करने के लिये व्यग्र हो उठता है- सो घटनाक्रम फिल्मी स्टाइल परं चला जाता है।

रामगोपाल भावुक की भाषा सहज और सरल लगती है। यूं भी कहा जा सकता है यह आम आदमी के बोलचाल की भाषा है किन्तु लेखक ने रश्मि के संवादों के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया है कि वह एक विचारक है और शब्दों को नापतौल कर गढ़ने में सिद्ध हस्त है। सो वहां की बोली को देवनागरी में उतार सका है। यह प्रयास भी प्रशंसनीय है।

मैं यह भी कहना चाहता हूं कि रामगोपाल भावुक ने राजनैतिक परिवेश की जो सृष्टि की है वह काल्पनिक भी है। संभवतः सीधे सीधे एक ईमानदार लेखक की हैसियत से राजनीति में तैरने और डूबने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई है। लेखक ने बशीर को मार्क्सवादी पार्टी का सदस्य बताया है वहीं मार्क्सवादी राष्ट्रवादी नहीं होता है। वह पीकिंग में ओलम पढ़ता है। इसी तरह आपातकाल के पश्चात जनता पार्टी में मार्क्सवादी पार्टी का विलय नहीं हुआ है, लेकिन भावुक जी का बशीर मार्क्सवादी पार्टी का व्यक्ति राष्ट्रवादी भावना भी रखता हो इसीलिये यह चित्रण कर डाला हो?

रामगोपाल भावुक का मंथन उपन्यास ग्रामीण जीवन का बेहत्तर चित्र उपस्थित करता है। लेखक का उसमें छिपी संभावनाओं के प्रति आश्वस्त भी करता है। कुल मिलाकर उपन्यास आद्योपांत रोचक है। नीरसता उसे कहीं भी नहीं छूती है। पाठकों को अवश्य ही पसंद आयेगा।

पुस्तक- मंथन

लेखक- रामगोपाल भावुक

समीक्षक- शिव बरुआ

प्रकाशक- प्रमोद प्रकाशन दिल्ली

पृष्ठ-116

मूल्य-सोलह रु0।

प्रकाशन वर्ष-1981 ई0