एक दुनिया अजनबी
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कुछ संबंध अचानक ज़िंदगी में आ जाते हैं, कुछ ऐसे जो काफ़ी समय रहकर ऐसे छूट जाते हैं जैसे कभी कोई संबंध रहा ही न हो | पानी के साथ चलते, थिरकते संबंध, कभी उफ़ान आने पर इधर-उधर छलकते, उभरते संबंध ! कभी शन्ति से जिस ओर का बहाव हो, उधर बहने लगते, कभी बिना बात ही मचल जाते |स्थिर कहाँ रह पाता है आदमी का मस्तिष्क !एक समय में कितने अनगिनत विचारों की गठरी ढोने वाला मन कहाँ कभी एक समय में, एक विचार पर जमकर बैठता है ?
कुछ ऐसे भी संबंध बन जाते हैं जिनसे न जान, न पहचान लेकिन वो अपने दिल की ज़मीन पर ऐसे राज करते हैं जैसे साथ ही जन्में हों | न जाने इस जाति से प्रखर की माँ का कैसा और क्या संबंध था और वह कोई नया नहीं था, बरसों से था |
प्रखर व आर्वी जब नन्हे-मुन्ने थे उनकी माँ विभा अक्सर मेरठ जाती रहतीं , अपने मायके ! बरोडा से दिल्ली की गाड़ी, वहाँ से दूसरी रेलगाड़ी में प्रखर के पिता वहीं से ही आरक्षण करवा देते | उन दिनों रेलगाड़ी में तीन दर्जे होते थे, प्रथम, द्वितीय, तृतीय ! उनका परिवार अन्य उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों की भाँति अधिकतर द्वितीय श्रेणी में यात्रा करता | जब कभी द्वितीय श्रेणी में आरक्षण नहीं हो पाता तो प्रथम या तृतीय श्रेणी में भी सफ़र करना पड़ता | लेकिन बर्थ आरक्षित ज़रूर होती | बच्चों के साथ बिना आरक्षण के यात्रा करना बहुत कठिन था |
दिल्ली में विभा के चचेरे भाई आ जाते जिससे उसे बच्चों व सामान के साथ गाड़ी बदलने में कुछ कम परेशानी होती |
बात उस समय की है जब विभा की गोदी में छह माह की बिटिया थी और बेटा होगा कोई पौने दो साल का | एक साल कुछ माह का ही तो अंतर है उसके दोनों बच्चों में ! हर बार की तरह इस बार भी दादा यानि चचेरे बड़े भाई जो दिल्ली में ही रहते थे, रेलगाड़ी बदलवाने स्टेशन आ गए थे |
इस बार जिस डिब्बे में सीट थी, वह ज़नाना डिब्बा था यानि 'लेडीज़ कम्पार्टमेंट' ! गाड़ी प्लेटफॉर्म पर रेंगने लगी थी, वह खिड़की में बैठी बेटे के नन्हे हाथ को अपने हाथ में लेकर मामा को 'टा-टा' करवा रही थी | गाड़ी ने थोड़ी गति पकड़ी और अचानक ही कोई भागता हुआ डिब्बे में प्रवेश कर गया |
अभी तक विभा डिब्बे में पूरी तरह नज़र भी नहीं डाल पाई थी |उसकी सीट लंबी बर्थ पर थी, अब नज़र घुमाकर देखने पर पता चला कि उसकी बर्थ के सामने वाली बर्थ पर लगभग साठ वर्षीया महिला अपने पैर ऊपर करके बैठी थीं | उनके हाथ में पकड़ी माला के मनके खूब जल्दी-जल्दी घूम रहे थे और तेज़-तर्रार आँखें डिब्बे की तलाशी लेती हुई उसके व उसके बच्चों पर तैर रही थीं |माला फिराने के इस तरीके से विभा के थके हुए चेहरे पर भी क्षीण सी मुस्कान पसर गई |
उनके मुख पर वक्रता पसर आई और विभा यह देखने के लिए मज़बूर हो गई, आख़िर डिब्बे के दरवाज़े पर खड़े बंदे को देखकर वे अपना चेहरा क्यों टेढ़ा-मेढ़ा कर रही थीं ? दरवाज़े के हैंडिल को पकड़े साड़ी में सुसज्जित एक सुंदर सा किन्नर खड़ा था | विभा की दृष्टि उससे मिल गई, वह कुछ डरा हुआ सा था जैसे किसीके घर में कोई जाए लेकिन प्रताड़ना का भय हो और वह दरवाज़े पर ही अटका रह जाए |वैसे यह न किसीका घर था और न ही किसीकी कोई निजी संपत्ति !
विभा ने उसे देखकर उसकी ओर एक मुस्कान उछाल दी | प्रत्युत्तर में उसने भी एक खुली मुस्कान से विभा को धन्यवाद दिया, वह कुछ रिलेक्स्ड सा महसूस करने लगा जैसे| डिब्बे का गेट खुला था, वह वहीं सीढ़ियों पर पैर लटकाकर बैठ गया |
"कहाँ जा रही हो बीबी ? " अचानक माला फेरने वाली महिला उसके बैठते ही उससे मुख़ातिब हुई | उनके हाथ में चिपकी माला और भी जल्दी-जल्दी घूमने लगी थी |
"जी --मेरठ ---" विभा ने बिटिया को बर्थ पर लिटाते हुए विनम्रता से उत्तर दिया | वैसे उस स्त्री में कोई विशेष श्रद्धा नहीं हो रही थी उसे लेकिन इसमें भी तो कोई संशय नहीं था कि वह उससे उम्र में काफ़ी बड़ी थीं |
"मेरठ में किसके यहाँ ? कहाँ पे, किस मुहल्ले में ? "एक साथ प्रश्नों की बौछार !
"जी, 'ऑफिसर्स-स्ट्रीट' में ----" विभा ने क्षण भर उसे देखा फिर धीरे से उत्तर दिया |
"लो, कल्लो बात ---वहाँ तो हमने कित्ती कोठियों में खाना बनाया है ? मिसराइन हैं हम, पक्के बाम्मण ! अर --एक ओर बात --हम बाम्मण के अलावा किसीके घर खाना बनाने नीं जात्ते ----"
विभा मुस्कुरा दी, क्या कहती उनसे ? कैसी सोच की सहयात्री मिली थी उसे !
फर्स्ट या सैकेंड श्रेणी के डिब्बे में आरक्षण न मिलने के कारण पति को उसका दिल्ली से मेरठ तक का आरक्षण तीसरी श्रेणी में करवाना पड़ा था |हर बार तो दूसरी या पहली श्रेणी में आरक्षण मिल जाता था, अवसर की बात है, नहीं मिला इस बार ! बरोडा से दिल्ली तक तो वह खूब आराम से आ गई थी|
"कौनकी बेटी-बहुरिया हो ? "
पहले विभा का मन हुआ उनसे बात करना टाल जाए पर कम्पार्टमेंट में गिने-चुने यात्री थे | वो बुज़ुर्ग थीं, वैसे भी छोटे बच्चों के साथ कभी भी किसी सहायता की ज़रुरत पड़ सकती थी| यह उसका स्वार्थ ही था लेकिन था तो था ---सच्चाई थी | उसने एक-दो बार उस दरवाज़े पर पैर लटकाए बैठे किन्नर की ओर भी देखा जो गाड़ी के संगीत के साथ बड़ी मस्ती से गीत गुनगुना रहा था |
"डम डम डिगा डिगा, मौसम भीगा भीगा,
बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, मैं तो गिरा|
हाय अल्ला ! सूरत आपकी सुभानअल्ला !"
'अरे भई, जैसे बैठा है, वहाँ से तो वैसे ही गिरने के चांसेज़ ज़रा ज़्यादा हैं, ऊपर से गाना भी ऐसा ही गा रहा है ! 'विभा ने मन में सोचा, मुस्कुराहट चेहरे पर पसर गई | उसकी मुस्कुराहट में सामने माला फेरने वाली माँ जी ने घुसपैंठ कर दी |
"कैसी बेसरम होवै हैगी जे जात ---" बामनी भुनभुनाई फिर विभा की ओर दुबारा मुख़ातिब हो बोली ;
"अय ---बताया ना --किसके घर की हो ? " उस भक्तन स्त्री की दृष्टि में एक खोज थी |
"डॉ.मुकुल शर्मा की बेटी हूँ-”विभा ने धीरे से कहा, वैसे उसे बताने में बिलकुल रूचि नहीं थी | आख़िर क्या ज़रूरत थी बताने की ? विभा ने शब्दों के मुख से निकलते ही अपनी ज़बान दाँतों में काट ली | अब पक्का, ये दिमाग़ चाटने वाली हैं, उसने मन में सोचा |
"अरे ! ये बाल धूप में न सफ़ेद किए हैंगे जी ---पहले ही समज गई थी, हो तो किसी बाम्मण खानदान की !तुम बोई न हो जो गुजरात में रहवै हैगी उनकी बेटी? हमारी बऊ ने तो तुम्हारे बिया में भी रसोई सँभाली है पूरे महीना भर ! तुमारे घर बंसी न रहवै था --नौकर ? हम तो तुम्हारे घर भौत जावैं थे |तुमें याद नाय ? "उसके हाथों ने खुश होकर एक ज़ोरदार ताली मारी जिससे उसके हाथ में पकड़ी माला ज़ोर से लहरा गई |