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एक दुनिया अजनबी - 18

एक दुनिया अजनबी

18-

आर्वी सब कुछ जानती थी, नॉर्मल बात होती तो अपने घर की इज़्ज़त को मुट्ठी में बंद रखकर पिता के परिवार की इज़्ज़त को बिखरने न देती | परिवार का गुज़र-बसर अच्छी तरह हो ही रहा था | कौनसी फिल्म नहीं देखी जाती थी? कौनसे स्टार होटल्स में खाना नहीं खाया जाता था? कौनसे सामजिक दायरों में शिरकत नहीं की जाती थी ?

माँ विभा को लगता कोई कितना भी असंवेदनशील क्यों न हो, पति-पत्नी के रिश्ते की डोर टूटनी इतनी आसान नहीं होती जब तक कि कोई दूसरा ही उनके संबंधों में सेंध न लगाए | दरसल, गलती चोर की नहीं होती, उस समय गलती घर के मालिक की होती है जो अपने द्वार, झरोखे खुले छोड़ देते हैं |

ऐसा क्या था कि परिवार के बुज़ुर्ग के जाते ही एकदम पहाड़ टूट गया, सारी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गई ? भुरभुरा गए रिश्तों के घर ! दहशत पसर गई |

आर्वी फ़ोन कान पर अड़ाए अजीब सी हो आई ;

"बोल भैया, क्या बात है ? आज जिम नहीं गया क्या ? "

"हाँ, जिम में ही हूँ | मैंने बताया था न यहाँ जिम में दो लड़कियों से मुलाकात हुई है, उनके साथ कॉफ़ी पीने चला जाऊँ? "

आर्वी ने ठहाका लगाया |

"तू कबसे मुझसे ऎसी परमिशन लेने लगा? "

"नहीं, ऐसा नहीं है ---" वह कुछ बोल न पाया, पता नहीं वह क्या कहना चाहता था ? कन्फ्यूज़्ड !

"तुझे जहाँ जाना हो जा, मुझसे पूछने की क्या बात है ? " दोनों भाई-बहनों में सवा वर्ष का ही अंतर होने से इसी प्रकार बात होती थीं, एक-दूसरे का नाम लेकर, तू-तड़ाक से दोस्तों की तरह !

प्रखर ने दूसरा फ़ोन अपने सहयोगी को किया, आज थोड़ी देर में पहुँचेगा | वैसे कोई बात नहीं थी लेकिन जिस स्थिति से वह गुज़र रहा था, काफ़ी कठिन थी वह ! पत्नी उसे पहले ही बहुत बार सुना चुकी थी ;

"तुम और तुम्हारी माँ दोनों ही भिखारी हो, तुम कँगालों के पास ही कुछ नहीं तो हमें क्या दोगे ? "

पहले साँप लोट जाता था प्रखर के सीने पर लेकिन जैसे-जैसे उसने अपनी स्थिति को जाँचा, अपनी वास्तविकता से रूबरू हुआ, अपने ऊपर कंट्रोल करना शुरू किया उसे लगा वह बेकार ही अपना रक्तचाप बढ़ा रहा है | पहले तो लगता था ये रिश्ते लेन-देन से ऊपर होते हैं अब लगने लगा, ऐसा नहीं है ये रिश्ते तो केवल और केवल पैसे पर टिके थे |ख़ैर जो होना है, वो तो होकर रहेगा ही |

संबंधों में बदला या बेचारगी नहीं होती, संबंध स्ट्रेट होते हैं |संबंधों में ग़रीबी-अमीरी भी नहीं होती |किसी का एक पक्ष कमज़ोर होता है तो दूसरा पक्ष स्थिति सँभाल लेता है | संबंधों की संवेदना ही उनके टिके रहने का वास्तविक आधार होते हैं | संबंध पैसों की कमी अथवा अधिकता पर टिके हों, वो कैसे संबंध ! उन पर मनों बोझ लदा रहता है |

अपने घुटनों पर बैठकर क्षमा माँगने से यदि कोई समाधान नहीं निकला तो ठीक ----अन्यथा एक-दूसरे को गाली देते, जूत पतरं शीश मध्यम करते हुए पूरी ज़िंदगी एक छत के नीचे गुज़ार लो | अगर शांति से रहना है तो आगे बढ़ो |है बहुत कठिन किन्तु 'मूव ऑन' करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं |

अपने दोस्त के इशारे पर वह सब कुछ भूल गई थी प्रखर की पत्नी ! परिवार के साथ की गई मस्तियाँ, बच्चों की छुट्टियों में गाड़ी अथवा हवाई-मार्ग द्वारा कहीं न कहीं घूमने जाना | प्रखर ने कभी अपनी ज़िंदगी अपने माँ-बाप से डिस्कस की ही नहीं, जो तस्वीर उसकी पत्नी ने आकर दिखाई उस पर माँ-बाप ने भरोसा कर लिया, ख़ासकर बेवकूफ़ माँ ने !

आर्वी जानती थी ताली केवल एक हाथ से तो नहीं बज सकती, उसका भाई दूध का धुला नहीं था लेकिन उसने उसे अपनी पत्नी से घुटनों पर बैठकर माफ़ी माँगते भी देखा था और तो और अपने परिवार व अपने भाई की ओर से उसने अपनी भाभी से स्वयं दिल से माफ़ी मांगी थी |

वह विश्वास ही नहीं कर सकती थी कि उनके जैसे 'लिब्रल' परिवार में कोई बाहर की लड़की आकर दुखी हो सकती है ! चक्कर कुछ और ही था जिसके लिए केवल और केवल प्रखर को दोषी ठहराया जा रहा था |

कुछ लोग इतने सरल होते हैं कि उन्हें सरल नहीं भौंदू कहना उचित है, बस ये माँ -बेटे दोनों भौंदू के दायरों में सिमटे-सिकुड़े थे | दुनिया की वास्तविकता से अनजाने से, सच में निरे भौंदू! समझ ही न पाएँ कि अगर तुम्हारा खीसा भरा नहीं है तो तुम पीपल के झाड़ पर उल्टे लटके चमगादड़ से अधिक कुछ नहीं हो |

प्रखर का अंतर असहज रहने लगा , बहुत असहज !अपनी गलतियाँ उसे खाए जातीं | बच्चों से बिछुड़ने के अहसास ने उसके भीतर की कॉन्फिडेंस की पक्की दीवार को कच्चा बना दिया था, बेहद कमज़ोर !

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