एक दुनिया अजनबी - 16 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

एक दुनिया अजनबी - 16

एक दुनिया अजनबी

16 -

अपने आपको संयमित करना बहुत ज़रूरी था, प्रखर के लिए बिखराव की स्थिति थी | स्वयं को स्ट्रॉंग करने के लिए कभी जिम जाता तो कभी क्लब तैरने लेकिन उसे शांति नहीं मिल रही थी, संयमित नहीं हो पा रहा था वह ! जब तक बाहर रहता, ठीक था, व्यस्त रहता | कुछ नए प्रोजेक्ट्स, कुछ पुराने काम को फिर से पटरी पर लाने का भरसक प्रयास !लेकिन घर में एक कमरे में पड़े, उसको नींद अपनी उन गलतियों की गलियों में खींचकर ले जाती | समय पछतावा देता है, उसका वापिस आना कठिन ही नहीं असंभव है |

मौन और एकांत आदमी को सुकून देते हैं लेकिन जबरन का एकाकीपन और ओढ़ा दी गई चुप्पी दमघोंटू होती है |प्रखर के लिए भी दमघोंटू स्थिति थी | सबके होते हुए भी अकेलापन उसे काट खाने को आता लेकिन बेहद घुटन भरे माहौल में जीवन की कठोरता के गर्म कंबल ने उसे ऐसे ढक लिया था जैसे भीष्म ग्रीष्म में ताप की जलन !

सुबह पाँच/साढ़े पाँच वह जिम जाता और अपने को बेहद थकाकर लौटता फिर तैयार होकर टूटे हुए काम को जोड़ने का प्रयास, रोज़ की दैनिक चर्या थी |

कुछ टीस काँटा लगने से ही समझ आती हैं, बड़े-बुज़ुर्गों ने यूँ ही थोड़े ही कहा होगा ;

'जाके पाँव न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई ---" या फिर कुछ यूँ ---

'जब तक पाँव में काँटा न लगे, तब तक चुभन का अहसास नहीं होता |' इस चुभन की पीड़ा बहुत कुछ सिखाती है, बहुत कुछ बोलती है और आगे के लिए रास्ते भी खोलती है |

'ट्रेडमिल' पर चलकर थका हुआ प्रखर जिम में कोने की एक कुर्सी पर बैठा टॉवल से पसीना पोंछ रहा था ;

" हलो प्रखर !" प्रखर ने चौंककर आँखें फाड़ दीं | उसका कोई पहचान वाला इस जिम में नहीं आता था |वह सबसे आँखें चुराने लगा था, जहाँ जानने वालों की मिलने की उम्मीद हो वहाँ जाने से बचता था |

"आप? अरे ! आप यहाँ कैसे ? " प्रखर पहचान गया था, वह लड़की उस दिन वहाँ मिली थी जहाँ वह मृदुला को खोजने गया था |

"पहचान गए आप ? " लड़की ने मुस्कुराकर पूछा |

"जी, बिलकुल ----आप यहाँ कैसे ? "

"जैसे आप !" उसने मुस्कुराकर उत्तर दिया |

" इतने दिनों से आता हूँ, कभी आपको देखा नहीं --बस--इसीलिए ---" प्रखर ने संकोच से कहा |

वह संकोची जीव नहीं था, जीवन की दुर्घटनाओं ने उसे अपने बारे में सोचने को विवश कर दिया |वैसे दुर्घटना भी कहना उचित नहीं, ये घटनाएँ सबके जीवन में होती हैं, उन्हें कैसी भी दृष्टि से नाप लीजिए |

"मैंने अभी दो ही दिन हुए आना शुरू किया है |" लड़की बड़ी सहज थी |

"ये निवि है, मेरी मित्र --निवेदिता ---यह आती है कुछेक महीनों से, इसके कारण ही मैंने भी आना शुरू कर दिया ---| "वह मुस्कुराई |

"सॉरी, आपका नाम भूल गया ----" प्रखर ने झिझकते हुए दूसरी लड़की पर नज़र डालते हुए कहा |

"वैसे, इनको तो देखा है कई बार ---अरे ! वैसे आप कहीं वो तो नहीं जिन्होंने मेरी अस्पताल में सहायता की थी ? " प्रखर को याद आया, इस लड़की को यहीं जिम में ही नहीं , अस्पताल में भी मरीज़ों की सेवा करते हुए देखा था | उस चेहरे पर उदासी की झाईं थी |

" जी, मैं कई बार आपसे अस्पताल में मिली हूँ, अब आप ठीक हैं न ? " निवि ने धीरे से पूछा |

"हाँ, अब बिलकुल ठीक हूँ ---"

" मतलब --आप लोग पहले से एक-दूसरे को जानते हो? " सुनीला ने अपनी आँखें चौड़ी कीं |

"कैसा संयोग ! " वह बड़बड़ाई, फिर बोली ;

"मैंने अपना नाम बताया ही कहाँ था ---इसका परिचय करवा रही थी, खुद अपरिचित हूँ --" वह खुलकर हँस पड़ी |

"मेरा नाम सुनीला है -----पर कहते हैं सब मुझे सुनी -- " उसकी खिली हुई दंतमुक्तावलि से प्रखर के मुख पर भी मुस्कान खिल उठी |

'आप जो चाहे कह लें ----आपकी चॉयस -----" उसने फिर से एक मुक्त हँसी बिखेरी |

"वैसे आप कैसे हैं ? आपकी मानसिक थकान कुछ दूर हुई ? " सुनील ऊर्फ़ सुनी ने बहुत सहजता से पूछा |

प्रखर ने कोई उत्तर नहीं दिया | क्या कहता ? उसके पास कहने को कुछ नहीं था |

"रोज़ आते हैं न यहाँ? इसी टाइम ? "

"हूँ ---" उसने छोटा सा उत्तर दिया और चलने के लिए उठकर खड़ा हो गया |

"तब तो रोज़ मिलना होगा ---चलो, हम भी निकलते हैं, इसे यूनिवर्सिटी जाना है --"

याद आया प्रखर को। उस लड़की निवि को उसने अस्पताल में मरीज़ों से बात करते सुना था, वह दरसल अस्पताल में 'पी.आर.ओ' थी यानि पब्लिक रिलेशन ऑफ़िसर जो मरीज़ों का हाल-चाल पूछने दिन में एक बार मरीज़ों से मिलने आती थी |

ये नई पहचान अच्छी लगी उसे, अपने पुराने सभी रिश्ते उसने धीरे-धीरे करके खो दिए थे, दोस्ती के भी | दोस्त-मित्र, संबंधी ---सब अपने अपने अनुसार सलाह देने की कोशिश करते | किस-किसकी सुन सकता था वह ? ज़रुरत के बिना उसका सबसे मिलना -जुलना बंद हो गया|

दरसल, कुछ स्थितियाँ ऎसी होती हैं कि आदमी खुद से ही मुह चुराने लगता है | ऊब रहा था वह सबकी सलाहें सुन-सुनकर !

सामजिक प्राणी होने के नाते अकेले रहना भी उसके वश में नहीं था | जीवन में कभी हाथ हिलाएं हों तब भी ठीक लेकिन उसे तो साँस लेने से लेकर खाने-पीने ---तक दूसरे के सहारे जीने की आदत थी |

गर्मी लग रही है और एक बार लेट या बैठ गए तो खुद खड़े होकर ए.सी का स्विच ऑन नहीं होगा, प्यास लगी तो फ़्रिज के पास खड़े भी पानी खुद नहीं लिया जाएगा | वही सब पिता की बातें उसने विरासत में ओढ़ ली थीं, उनकी अच्छी आदत वह नहीं ले पाया था कि वे परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए कितने सचेत रहते थे !

यह न भी हो तब भी किसको संबंध की ज़रूरत नहीं पड़ती ? हर आदमी को एक केयर चाहिए, परवाह !