क्रूरता Ramnarayan Sungariya द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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क्रूरता

कहानी--

क्रूरता

आर.एन. सुनगरया,

आज मैं बहुत निश्चिंत हूँ, उसे मायूस और निष्क्रिय मेहसूस करके।

इतना उदास वह कभी नहीं रहा, जितना वह अभी-अभी कुछ दिनों से बुत बना हुआ है।

आज जैसे वह तपती रेत पर छटपटा रहा है। मुझसे उसकी यही बेवशी देखी नहीं जा रही है।

लगता है विषम हालातों की मार अब वह सहन नहीं कर पा रहा है। वह टूट चुका है! शायद! उसे मैं अपने आपसे भी ज्‍यादा जानता-पहचानता हूँ। सम्‍पूर्ण आन्‍तरिक एवं बाहरी स्थितियों व पहेलुओं से, द्वन्‍द्वों से गम्‍भीरता से सविस्‍तार जुड़ा हूँ।

समय-समय पर उन पर स्‍वभाविक रूप से विचार भी करता रहता हूँ। कभी-कभी तो मुझे काफी कुछ चौंकाने वाले परिणाम मिलते हैं। अनापेक्षित! जो अविश्‍वसनीय लगते हैं। हैरत में डाल देने वाले; आज वातावरण भौतिकवाद का है। जिसके सामने सारी सम्‍वेदनाऐं, सम्‍पूर्ण भावनाऍं व पूरे रिश्‍ते नज़र अन्‍दाज होते जा रहे हैं। बल्कि हो ही चुके हैं। सम्‍भवत: आत्मिक क्‍लेष का कारण भी यही है।

सामान्‍यत: मैं उससे कहा करता था ‍कि तुमने लोगों के लिये, अपने आपको खपाकर इतना कुछ अविस्‍मर्णिय एहसान किये हैं, कि वे अपने शरीर की चमड़ी उतारकर उनके जूते बनाकर तुम्‍हारे पैरों में पहना दें, तो भी, वे तुम्‍हारे कर्ज से उऋण नहीं हो पायेंगे!

अब वह इतना निरीह, बेचारा और असहाय मेहसूस करता है कि बहुत ही चिन्‍ता होती है। कहीं कुछ आत्‍मघाती कदम ना उठ जाये।

उदासीन खामोशी तोड़कर बोला, ‘’ऐसा लगता है कि मुझे पूरी तरह नकार दिया है। किसी को भी मुझसे कोई फायदे की उम्‍मीद नहीं बची, मैंने जो कुछ भी अपना खून-पसीना एक करके, अपने जवानी के सुनहरे दिनों को जमा करके, सबके लिये, जो कुछ किया, वह शून्‍य या अदृश्‍य हो गया। उसे देखने की किसी के पास कोई दृष्टि नहीं है।‘’

और जो मैंने, उनकी अपेक्षा अनुसार नहीं किया, नहीं कर पाया या फिर भविष्‍य में करूँगा अथवा नहीं। ऐसा कोई निश्चित आशवासन भी नहीं है।

उक्‍त स्थिति को नकारात्‍मक ग्रहण करके धारणा बनाकर मुझे हर स्‍तर पर प्रताडि़त कर रहे हैं। मतलब बोझ समझकर दुत्‍कार रहे हैं। कहीं हमें ना ले डूबे, खुद तो डूब ही रहा है, या यूँ कहो डूब ही गया है। खाली लिफाफे की तरह तैर रहा है। किस काम का है कचरा ??

जैसे मैंने अपने आप पर ही पूरी कमाई खर्च कर दी हो, ऐशो-आराम में ही पैसा उड़ाने में लिप्‍त रहा होऊँ, खूब मौज-मस्‍ती की हो, गुलछर्रे उड़ाये हों। अनावश्‍यक फिजूल खर्ची की हो.....।

‘’नहीं ऐसा कुछ नहीं.....।‘’ मैं ढांढ़स बंधाता हूँ, ‘’वे सब नमक हराम हैं। एहसान फरामोश हैं। तुमने तो उनके लिए रात-दिन एक कर दिया। अपने सम्‍पूर्ण शौक त्‍याग कर, दबाकर। आज तक अपने आप के भविष्‍य के लिये कुछ सोचा ही नहीं। मैं पूछता हूँ, ‘’उदास क्‍यों होते हो तुम्‍हारे तो बेटे हैं, बहू है, पत्‍नी भी साथ है, भाई-बन्‍धु भी हैं, जिनके लिये तुमने कुछ ना कुछ महत्‍वपूर्ण स्‍थाई सहयोग रिश्‍ते से भी ऊपर उठकर किया है। वह सब कोई कैसे भूल सकता है।‘’

‘’हॉं हैं तो सब.....!!!’’ क्रोधित मुद्रा में सबकी परतें प्‍याज के छिलके की तरह खोलने लगता है। तारीफों, गुणों का बखान शुरू कर देता है, जैसे अपने अन्‍दर उबलते लावा को बाहर निकाल रहा हो, ‘’सबके सब.....नाशुक्रे, बेफिकर, मतकमाऊ, आलसी, आरामतलब, मुफ्तखोर, असम्‍वेदनशील, स्‍वच्‍छन्‍द, ढर्रेबाज, मनमर्जी की दिनचर्या, रोका-टाकी-नसीहत से नफरत ज्‍यादा दबाव डालने पर काम कराने पर, ऐसा कुछ करेंगें कि काम देने वाला अपना माथा फोड़ लेगा, सर के बाल नोंच लेगा, मगर आयन्‍दा इनसे किसी काम के लिये नहीं कहेगा। भले ही चाहे अपना कितना भी नुकसान कर लेगा। यह नियति है।

ना भविष्‍य की चिन्‍ता ना पिछली गलतियों से तौबा ना ही कोई सबक। हर सहूलियत समय पर मिलना चाहिए। ऑंखें दिखाकर और भावात्‍मक ब्‍लैकमेल करना, हथियार की तरह उपयोग करके अपना ढर्रा सुरक्षित हो जाने को ही अपना कर्त्तव्‍य मान लेते हैं। गैरत नाम की कोई चीज नहीं कि अभी जो ऐशोआराम उपलब्‍ध है, यह किस कारण और किसके द्वारा है। अगर वह कारण हट गया तो क्‍या हालात होंगे। यह तो अटल सत्‍य है, कि एक दिन वह कारण हटना स्‍वभाविक है।

सच है, जो समय नष्‍ट करता है, उसे समय तहस-नहस कर देता है। समय रहते सम्‍हलो!

मगर नहीं, उन्‍होंने धारणा बना रखी है कि कोई ना कोई तो अपनी छवि बचाने के लिये आगे आयेगा ही। हमें प्रयास करने की, माथा-पच्‍ची करने की, क्‍या आवश्‍यकता है। हमारा ढर्रा बरकरार रहना चाहिए। उसमें कोई रद्धोबदल नहीं होनी चाहिए। गूलर की जड़ पकड़कर बैठे रहें, झकमारकर लोग मदद करेंगे ही। मगर कौन? कब तक?

जिस परिवेश में जिसका लालन-पालन होता है, उसका व्‍यक्तित्‍व भी उसी के अनुरूप निर्मित होता रहता है। उसकी प्रकृति भी वैसी ही आकार ले लेती है। बात व्‍यवहार उसी के अनुसार विकसित होता है।

ताज्‍जुब है कि उसकी औलाद, उसके विपरीत विचार धारा के निकले। सम्‍भवत: डी.एन.ए. के अलावा कहीं कोई समानता नहीं है। इस बात से वह दु:खी है। बहुत दु:खी!

कहता भी है- हर अभिभावक को चिन्‍ता स्‍वभाविक ही है कि सन्‍तान उसके जीते जी आत्‍मनिर्भर हो जाये तथा समाज में अपनी एक सम्‍मान-जनक छवि बना ले, ताकि घर-परिवार से लेकर सम्‍पूर्ण जनसमुदाय में लोग उनसे प्रभावित हों। वक्‍त-बे-वक्‍त कुछ उम्‍मीद भी रखें।

काफी लम्‍बे समय तक उन्‍हें भनक तक नहीं लगी कि वे इतने अच्‍छे, हॉं अपनी क्षमता से भी ऊपर उठकर उनका लालन-पालन किया कि वे एक आदर्श नागरिक बनें।

मगर जब परखने का समय आया तो सारे के सारे किले ढह गये। पैरों तले जमीन खिसक गई। एक झटका सा लगा। सम्‍पूर्ण भ्रम टूट गये। मतलब चकनाचूर हो गये।

वह कहता है—जो लोग मुझसे अपनी खुन्‍दक रू-ब-रू नहीं निकाल सकते थे, उन्‍होंने, साजिश करके मेरे ही हथियार मेरे विरूद्ध उपयोग किये। दरअसल मेरे प्रति उन्‍होंने इतना जहर बच्‍चों के दिमाग में, हितचिंतक बनकर, भरा कि सहज ही अपना मकसद पूरा कर लिया। अपने-आपको परम संतोष पा लिया। जिनके दिमाग को उन्‍होंने दूषित किया; वे अपरिपक्‍व थे, विवेक शून्‍य थे, अनुभवहीन थे, दुनियादारी की चालाकी नहीं जानते थे, आसानी से उनके बहकावे में आ गये। लेशमात्र भी वे सोचते कि जो व्‍यक्ति हमारे लालन-पालन में और वह भी एक सर्वमान्‍य सम्‍भव स्तर पर रात-दिन अपना खून-पसीना बहा रहा है। कड़ी से कड़ी मेहनत करके अपने-आप को खटा रहा है। हर स्‍तर पर हमें सुविधाएँ उपलब्‍ध करा रहा है। अपना कोई शौक पूरा नहीं कर पा रहा है। वह हमारे लिये खराब कैसे हो सकता है। अर्थात ये लोग हमें अपने स्‍वार्थपूर्ति के लिये भड़का रहे हैं। बरगला रहे हैं। हमें अपने कर्त्तव्‍य से विमुख कर रहे हैं। सौ बात की एक बात हमारी बुद्धि-सोच को भ्रमित कर रहे हैं। यानि बुद्धि भ्रष्‍ट करना चाहते हैं।

स्‍वभाविक है कि अभिभावकों ने हमें सम्‍हाला, तो हमारा भी फर्ज बनता है कि अब हम उन्‍हें राहत दें। उनकी समुचित देखभाल करें, यही प्रकृति का नियम भी है। यही परम्‍परा है। मॉं-बाप की छवि ऐसी हो कि हम भी गर्व कर सकें या हमारी हैसियत भी ऐसी हो कि हमारे अभिभावकों को गौरव का अनुभव हो।

अब भी समय है, हम सुधार कर सकते हैं, अन्‍यथा इतनी चौड़ी खाई हो चुकी होगी कि उसे पार पाना असम्‍भव हो जायेगा। समय निकलने के बाद पश्‍चाताप के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा।

प्रत्‍येक दादा-दादी नाना-नानी अपनी औलाद की सन्‍तान पर अपना सम्‍पूर्ण लाड़-प्‍यार, दुलार स्‍नेह और दुआऍं सब कुछ हंसी-खुशी लुटाने में अपना परम सौभाग्‍य समझते हैं।

पोता-पोती, नाती-नातिनों की अठखेलियॉं, बाल सुलभ भोलापन उनके अधिकार युक्‍त जिद, पर अपनी सारी निश्‍च्‍छल भावनाऍं, सहज ही खुशी-खुशी कुर्बान करने में अपने आप ईश्‍वर का शुक्रगुजार मानते हैं, कि हमें प्रभु ने इतने शाश्‍वत अमूल्‍य सुख से धन्‍य किया......हमारे सारे क्‍लेष मिट गये, जीवन सफल हो गया। कोई तमन्‍ना शेष नहीं रही।

मुझे पश्‍चाताप इसलिये नहीं है कि मैंने जो निर्णय लिये हैं वे बहुत ही सोच समझकर और तात्‍कालिक परिस्थितियों को एवं भविष्‍य की सम्‍भावनाओं को ध्‍यान में रखकर लिये हैं, और सबकी भलाई के लिये, फैसलों को क्रियान्वित किया है। क्रियाशीलता के जिम्‍मेदार, जिन महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भों को बनाया, वे कर्णधार ही ढह जायें, तो फिर सोचिए हानि किसकी होगी.....? और दोष किसके सर होगा?

अपनी चमढ़ी बचाने हेतु और झूठ-सच बोलकर वास्‍तविक सीरत छुपाकर पूरा के पूरा असफल होने का ठीकरा मेरे सर फोड़ने से, वे बरी हो जायेंगे? तत्‍काल तो खैर उनके झूठ की चादर ओड़कर बच निकलेंगे, मगर एक ना एक दिन तो असलियत खु‍लेगी ही। अपने मुँह मियॉं मिट्ठू बनना दीर्घ कालिक सुरक्षा ना दे सकेगा!

हर व्‍यक्ति के जीवन में पड़ाव दर पड़ाव आते हैं। हर पड़ाव की अपनी आवश्‍यकता और अहमियत होती है। इसका निर्धारण हर व्‍यक्ति एक पड़ाव में रहते हुये, अगले पड़ाव का इन्‍तजाम करता चलता है। तो जि़न्‍दगी तनाव रहित और प्रत्‍येक अप्रत्‍याशित चुनौतियों से जूझती हुई अपना जीवन पूरा कर लेता है।

दहलीज पर कुत्ता जब दुत्‍कार दिया जाता है, तो वह दोबारा उस जगह नहीं जाता। इतनी गैरत तो होती है, उसमें।

शासकीय संस्‍थान में अधिकारी रहते कई लोग मातहत रहते हैं पोस्‍ट की पावर, रहती है। अपने कार्यक्षेत्र में पारंगत रहते हैं। समाज में सम्‍मान जनक छवि बनाते हैं। सुख-शान्ति, सुनहरा भविष्‍य, आत्‍म-सम्‍मान, सुसंस्‍कार, रूतबा, सम्‍पूर्ण शहर में पूछ-परख, हर स्‍तर पर जुबान की साख, वेल्‍यू, संगी-साथी, बुद्धीजीवी वर्ग में आत्‍मविश्‍वास, मामूली सी भी असुविधा होने, छोटी सी भी विपत्ति आने पर अनेकों लोग हित चिन्‍तक; मदद के लिये प्रत्‍येक मसले पर सहायता करने हेतु तत्‍पर रहते हैं।

ऐसे व्‍यक्तित्‍व को मझधार में ही, हालात की ऐसी मार पड़ती है कि वह चपटा हो जाता है। ....मगर छटपटाता हुआ कोशिश करके उठता है। खड़ा हो जाता है। रीड़ की हड्डी सीधी करता है, और संकल्‍प लेता है कि अधूरे कार्य पूर्ण करेगा। करना है। पूरे दमखम को समेटकर जुट जाता है। अपनी नई छवि बनाने में। आसान काम है क्‍या यह !!? क्रूरता से उबरना।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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