मिशन सिफर - 18 Ramakant Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मिशन सिफर - 18

18.

प्रोजेक्ट इंजीनियर के रूप में राशिद को अच्छी-खासी तनख्वाह मिल रही थी। आइएसआइ के संपर्क सूत्रों ने अब उसे भारतीय रुपये पहुंचाने बंद कर दिए थे। उससे कहा गया था कि वह अपनी नौकरी से मिल रहे पैसों से ही अपना काम चलाए। राशिद का कोई खास खर्चा था भी नहीं। कमरे का किराया और खाने के पैसे देने के बाद और उसके छोटे-मोटे खर्चों के लिए पैसे निकालने के बाद भी ठीक-ठाक बचत हो जाती थी। इस प्रकार कई माह की नौकरी से उसके पास काफी बचत इकट्ठा हो गई थी। वह बाजार से आते समय घर के लिए कुछ ना कुछ लेता आता था। अब्बू और नुसरत के मना करने के बाद भी वह यह खर्चा अपनी खुशी से करता रहता।

नए विभाग में जाने के बाद, उसे कई बार ऑफिस के समय से बहुत पहले ऑफिस के लिए निकल जाना होता तो कभी देर रात गए तक ऑफिस में रुकना पड़ता। समय-असमय ऑफिस जाने-आने में उसे परेशानी होने लगी थी। इसे देखते हुए उसने तय किया कि वह अपने बचत के पैसों से एक स्कूटी खरीद लेगा। जब वह स्कूटी खरीद कर लाया तो सबसे ज्यादा खुश नुसरत हुई। उसने राशिद से कहा था – “यह काम आपने बहुत अच्छा किया है। अब आपको ऑफिस जाने-आने के लिए बसों या फिर टैक्सी का इंतजार नहीं करना होगा। घर भी थोड़ा जल्दी आ जाया करोगे।“

“हां, यही सोच कर लिया है। कई बार जब रात को बहुत देर हो जाती है तो वहां से बस या टैक्सी मिलना मुश्किल हो जाता है। फिर आप खाना लिये बैठी रहती हैं।“

“वो तो कोई बात नहीं है, बस मुझे तो यही लगता है कि आपको खाना खाने में बहुत देर हो जाती है।“

“मैंने कई बार आपसे कहा है, मुझे ज्यादा देर हो जाए तो खाना मेरे कमरे में रख कर आप समय पर सो जाया करें, पर आप सुनती ही नहीं हैं।“

“जब मुझे कोई परेशानी नहीं है तो आप इसको लेकर परेशान क्यों हैं। गर्म खाना खाने में तो अच्छा लगता ही है, सेहत के लिए भी अच्छा होता है।“

“ठीक है, मेरे मना करने से भी क्या होगा। करेंगी तो आप वही जो आप चाहेंगी। पर सच कहूं, मेरी तो मजबूरी है, पर आपके इतनी देर तक जागने और खाना लिये बैठे रहने से मुझे तकलीफ होती है।“

“अच्छा, आपको मेरी इतनी चिंता है? चलिए जाने दीजिए। कभी-कभी हमें भी अपनी स्कूटी की सैर करा कर इसका खामियाजा चुकता कर सकते हैं आप।“

“स्कूटी सिर्फ मेरी नहीं है, यह हम सबकी है, जब भी जरूरत हो आप इसका बेहिचक इस्तेमाल कर सकती हैं।“

“बहुत-बहुत शुक्रिया।“

स्कूटी ले लेने के बाद उसका ऑफिस जाना-आना सचमुच आरामदेह हो गया था।

उस दिन जब वह ऑफिस से लौट रहा था तो उसने देखा बाजार की कई दुकानों में मूर्तियां बनाई जा रही थीं। कल तक दुकानों पर इस तरह की मूर्तियां बनतीं उसने नहीं देखी थीं। जब वह अपनी गली में पहुंचा तो वहां भी कई दुकानों में मूर्तियां बन रही थीं। इतनी सारी मूर्तियां किसकी और किसलिए बन रही हैं। उसने ध्यान से देखा तो कई मुसलमान भी मूर्तियां बनाने में लगे हुए थे। ये मुसलमान बुत क्यों बना रहे हैं, यह उसकी समझ से बाहर था।

घर पहुंचा तो नुसरत उसका इंतजार करते हुए बाहर ही मिल गई। उसने उससे पूछ लिया था – “अचानक दुकानों पर बड़े सारे बुत बनते दिखाई देने लगे हैं। क्या है यह?”

“आपने अहमदाबाद में भी तो इस वक्त ये मूर्तियां बनती हुई देखी होंगी?”

राशिद ने तुरंत बात बदलते हुए कहा था – “हां, वहां भी बनती तो हैं। लेकिन, यहां तो बहुत ज्यादा बन रही हैं।“

“बताती हूं, महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी से यह त्योहार शुरू हो जाता है। इस दिन घर-घर गणपति बप्पा की मूर्ति लाई जाती है। डेढ़ दिन से लेकर ग्यारह दिन तक उन्हें घर में रखा जाता है, उनकी पूजा आरती की जाती है। हर दिन तरह-तरह के फंक्शन आयोजित किए जाते हैं और फिर बहुत धूम-धाम, गाजे-बाजे के साथ किसी तालाब, नदी या समुद्र में उनका विसर्जन किया जाता है। सच, इन दिनों में पूरे महाराष्ट्र में त्योहार का माहौल बना रहता है। मुंबई में तो हर घर, हर मोहल्ले में लोग इसका आनंद लेते हैं। आपको पता है, सलमान खान तो खुद अपने घर में गणपति बैठाते हैं और ढ़ोल-नगाड़ों के साथ उनका विसर्जन करते हैं। मैंने सुना है, वो अपनी गोद में उठा कर मूर्ति को विसर्जन के लिए ले जाते हैं। विसर्जन के समय रास्तों में इतनी भीड़ हो जाती है कि कुछ रास्ते बंद कर दिए जाते हैं।“

“वो तो ठीक है, पर इसके लिए मुसलमान बुत बनाएं और .........।“

“बुत बनाते ही नहीं, वे इस त्योहार में शामिल भी होते हैं। विसर्जन के दिन शर्बत की प्याऊ भी लगाते हैं।“

“यह तो बुत-परस्ती हुई।“

“कैसे हुई? बुत बना कर बेचना तो तिजारत हुई ना? फिर हिंदू लोग अगर ईद की खुशी में शामिल हो सकते हैं तो मुसलमान हिंदुओं के त्योहारों की खुशी में शामिल क्यों नहीं हो सकते? गुजरात में तो नवरात्री के त्योहार में गरबे में सभी मजहब के लोग शामिल होते हैं। आपने अहमदाबाद में कभी गरबा नहीं खेला।“

“मुसलमान काफिरों के त्योहारों में शामिल हों, शरीयत इसकी इजाजत नहीं देती।“

“शरीयत तो बहुत सी चीजों की इजाज़त नहीं देती। पर, दूसरों की खुशियों में शामिल होने की तो कहीं भी मुमानियत नहीं है। नवरात्री में काली मां की लाखों मूर्तियां बनती हैं और उन्हें मुसलमान बनाते हैं। हमारे मुल्क की यही तो खासियत हैं, यहां सब मज़हब के लोग मिलजुलकर रहते हैं।“

राशिद को यह सब सुनकर अच्छा नहीं लग रहा था। उसे हैरत जरूर हो रही थी कि जिस देश में वह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हद दर्जे की नफरत और एक-दूसरे के जानी दुश्मन होने की धारणा लेकर आया था वहां तो उसे कुछ और ही देखने को मिल रहा था। यह सच्चाई उसे तकलीफ दे रही थी। यहां मुसलमानों की बदतरीन हालत का जो खाका उसके ज़हन में था, उसी की वजह से वह मन में बदले की आग भर कर लाया था, कहीं यह आग मंद तो नहीं हो जाएगी। यह सोच कर उसमें बेचैनी भरने लगी थी।

फिर उसने अपनी आंखों से वह सब देखा था, बड़े ही उत्साह से जगह-जगह गणपति के खूबसूरत पंडाल बनाए गए थे। ग्यारह दिन तक पूरे शहर में मेला सा लगा रहा था और विसर्जन के दिनों में “गणपति बप्पा मोरया, अगली बरस तू जल्दी आ” के घोष के साथ नाचते-गाते लोगों के हुजूमों को देखकर राशिद स्तंभित होकर रह गया था। नुसरत ने सही कहा था, इस धूम-धड़ाके में सभी मजहबों के लोग जोशो-खरोश के साथ शामिल थे।

कुछ ही दिन बाद नवरात्री का त्योहार शुरू हो गया था। अब मुसलमान कारीगर दुर्गा की मूर्तियां बनाने में लगे थे। जगह-जगह दुर्गा की स्थापना के लिए वैसे ही बड़े और सुंदर सजावट वाले पंडाल बनाए गए थे। रात को गरबा शुरू हो गए थे। इसमें सभी मज़हब के लोग शामिल हो रहे थे। ज्यादातर गुजराती गानों की नाचने को मजबूर करने वाली धुनों पर लोग मस्त होकर गरबा कर रहे थे। वैसे ही उत्साह से विसर्जन का आयोजन किया जा रहा था। राशिद यह सब देखता तो हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमानों के एक-दूसरे के खून के प्यासे होने की जो तस्वीर उसके मन बैठी हुई थी, उस पर ठेस पड़े बिना न रहती।

नवरात्री का त्योहार खत्म होने से पहले ही विजयादशमी के त्योहार की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं। रावण के साथ-साथ कुंभकरण और मेघनाथ के भी बहुत ऊंचे-ऊंचे पुतले बनाए जा रहे थे। ये पुतले ज्यादातर मुसलमान कारीगरों द्वारा बनाए जा रहे थे। मुंबई सहित पूरे देश में दशहरा बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। कई जगह रामलीला आयोजित की जा रही थी। रामलीला देखने वालों में सभी मज़हब के लोग शामिल थे। राशिद के लिए हैरत की बात यह थी कि रामलीला के बहुत से किरदार मुसलमान कलाकारों द्वारा निभाए जा रहे थे। जब वे अपना किरदार निभा रहे होते, हिंदू लोग उनके प्रति भी वैसी ही श्रद्धा दर्शाते जैसी हिंदू कलाकारों के प्रति दर्शाते थे। वे उन पर फूल बरसाते और उनके पैर छूते। मेले लग रहे थे और उन मेलों में मुसलमान तीर-धनुष और गदा जैसे अस्त्र-शस्त्र के खिलौने बना कर बेच रहे थे और बिना किसी भेदभाव के हिंदू उनसे खिलौने, मिठाइयां आदि खरीद रहे थे।

राशिद को उसके ऑफिस के लोगों से पता चला था कि इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित थीं। जिनमें सबसे लोकप्रिय कथा इस दिन भगवान राम द्वारा रावण का वध किये जाने से संबंधित थी। इसलिए इसे बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर मनाया जाता था। वैसे कहा यह भी जाता है कि इस दिन मां दुर्गा ने राक्षस महिषासुर पर विजय पाई थी और उसका वध करके उसके आतंक को समाप्त किया था। इसलिए इस दिन शस्त्र पूजा भी की जाती है।

राशिद को दशहरे का एक सांस्कृतिक पहलू भी बताया गया था। इस समय किसान अपनी मेहनत से उगाई फसल काट कर उसे अनाज के रूप में घर लाता है। यह उसके लिए उल्लास और उमंग का दिन होता है। वह इसके लिए ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करता है और खुशियां मनाता है। महाराष्ट्र में इसे “सिलंगण” के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शाम को सभी ग्रामवासी नए कपड़े पहन कर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों को स्वर्ण के रूप में लूटकर गांव वापस आते हैं और फिर उन पत्तों को ‘सोना’ कहकर एक-दूसरे को देते हैं और बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और छोटों को शुभकामनाएं देते हैं।

विजयादशमी के दिन रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के विशाल पुतलों में पटाखे भर कर उन्हें राम का किरदार निभा रहे पात्र द्वारा अग्निवाण चलाकर जलाया जाता है। ये पटाखे भी ज्यादातर मुसलमान कारीगरों द्वारा ही बनाए गए होते हैं। मज़हबों का भेद मिटाता यह त्योहार असत्य पर सत्य की विजय का संदेश देता है।

दशहरे के बीस दिन बाद दिवाली आती है। दिवाली को भारत में हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस त्योहार का धार्मिक महत्व तो है ही, सामाजिक महत्व भी है। माना जाता है कि इस दिन भगवान राम चौदह वर्ष के वनवास के बाद और लंका पर विजय के बाद अयोध्या लौटे थे। उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीप जलाए थे और वे खुशी में नाचे-गाए थे। तब से आज तक यह प्रकाशपर्व हर्ष और उल्लास से मनाया जाता है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। अपने घरों और दुकानों आदि की लोग सफाई करते हैं और रंग-रोगन करते हैं। बाजारों और गलियों को सजाया जाता है। पूरा शहर जगमगा उठता है।

दीपावली के दिन लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं। एक-दूसरे को बधाइयां देते हैं, मिठाइयां बांटते हैं और पटाखे चलाकर अपनी खुशी प्रदर्शित करते हैं। कहना न होगा कि इन तैयारियों में सभी मज़हब के लोग हाथ बंटाते हैं। साफ-सफाई करने में, गलियों-बाजारों को सजाने में, पटाखे बनाने में, मिठाइयां बनाने में और दीपावली की बधाइयां देने में सभी मज़हब के लोग शामिल होते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर मोक्ष दिवस के रूप में और सिक्ख धर्म के लोग इसे ‘बंदी छोड़’ दिवस के रूप में मनाते हैं।

होली के त्योहार में सभी मज़हब के लोगों को शामिल होता देखकर राशिद को इतनी हैरत नहीं हुई थी। उसने खुद अपनी आंखों से यह देख लिया था कि हिंदुस्तान में सभी मज़हब के लोग एक-दूसरे के त्योहारों में और खुशियों में शामिल होते हैं। यहां अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच का भाईचारा ऐसा उदाहरण था जो शायद ही कहीं और देखने को मिलता।

क्रिसमस का त्योहार मनाने के लिए हिंदुओं और मुख्तलिफ़ मज़हब के लोगों द्वारा अपने घरों में सजाने के लिए क्रिसमस-ट्री ले जाते देखकर भी राशिद को अब उतना आश्चर्य नहीं हो रहा था।

क्रिसमस या बड़ा दिन ईसामसीह के जन्मदिन की खुशी में मनाया जाने वाला त्योहार है। इस दिन विश्वभर के गिरजागरों में प्रभु यीशु के जन्म से संबंधित गाथाओं की झांकियां प्रस्तुत की जाती हैं। इस दिन गिरजाघरों में प्रार्थनाएं की जाती हैं। भारत में सभी धर्मों के लोग प्रार्थना सभाओं में शामिल होकर प्रभु यीशु का ध्यान करते हैं।

क्रिसमस ने भी अब धार्मिक पर्व के साथ-साथ सामाजिक पर्व का रूप ग्रहण कर लिया है। इस पर्व पर सभी धर्मों के बच्चे सांताक्लाज़ का बेसब्री से इंतजार करते हैं। सांताक्लाज बच्चों के लिए तोहफे जो लेकर आता है। राशिद ने भारत में जब इसाइयों के त्योहार क्रिसमस को सभी धर्मों के लोगों द्वारा मनाये जाते देखा तो उसे अपने मुल्क की याद आ गई। वहां अल्पसंख्यक ईसाई ही इस त्योहार को मनाते थे। मुसलमान उनके इस पर्व में शामिल नहीं होते थे। लेकिन, भारत में उसने देखा कि सांताक्लाज का वेश धरे लोग सड़कों पर घूमते रहते हैं और बच्चों को तोहफा देते समय यह नहीं देखते कि वे किस धर्म के हैं। मान्यता है कि 25 दिसंबर की रात को संत निकोलस, जिन्हें सांताक्लाज़ के नाम से बेहतर जाना जाता है, बच्चों के लिए उपहार लेकर आते हैं। वे आधी रात को गरीबों और बच्चों के लिए चुपचाप उपहार रख जाते हैं ताकि उन्हें कोई देख न पाए। इसीलिए दूसरे दिन सुबह बहुत जल्दी उठकर बच्चे वह उपहार ढूंढ़ते हैं जो संत निकोलस या सांताक्लाज उनके लिए रख कर गए हैं।

ईसाई ही नहीं सभी धर्म के बच्चों को सांताक्लाज़ के इस गिफ्ट का इंतजार रहता है। राशिद ने देखा कि बच्चों की खुशी के लिए उसके मज़हब के कई लोगों सहित अन्य मज़हब के लोग खुद बाजार से गिफ्ट खरीद कर लाते हैं और रात को उन्हें बच्चों के सिरहाने रख देते हैं ताकि वे सुबह उठकर अपना गिफ्ट पा सकें। बच्चे यही समझते हैं कि सांताक्लाज़ रात में उनके लिए गिफ्ट रख गए हैं। गिफ्ट देखकर बच्चों को जो खुशी मिलती है उसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।

राशिद ने पाया कि हिंदी सिनेमा में सबसे अच्छे और लोकप्रिय गीत मुसलमानों ने लिखे, मुसलमानों ने उनकी धुन बांधी और मुसलमानों ने ही गाया। उसे यह जानकर अजीब लगा कि “मन तड़पत हरि दर्शन को आज” जैसा भजन मोहम्मद रफी ने गाया था और नौशाद ने उसकी धुन बनाई थी। कहा जाता है कि जब इस गाने की रिकॉर्डिंग की जा रही थी तो नौशाद साहब ने अपने सभी साजिंदों से कहा था कि वे नहा-धोकर पवित्र होकर आएं ताकि इस भजन में पाकीजगी झलक सके। इसी तरह बहुत सी प्रसिद्ध नात हिंदुओं ने लिखीं, उन्होंने ही उन्हें स्वरबद्ध किया और गाया।

यह सब देखकर राशिद को एक बात तो अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि हिंदुस्तान में मुसलमानों की बदतरीन जिंदगी के बारे में उसके मुल्क में जो तस्वीर बनाई गई थी, उसमें सच्चाई बहुत कम थी। वह इस बात को समझने लगा था कि हर मुल्क में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अमनो-अमान के खिलाफ काम करते रहते हैं। हिंदुस्तान में भी कुछ सियासी तबके तो कुछ धार्मिक तबके ऐसे थे जो विशेषकर हिंदू-मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा करने में लगे थे। एक बार बातों ही बातों में अब्बू ने उसे बताया था – “बेटा, किसी भी आदमी के पास इतना समय नहीं है कि वह दंगे-फसाद करता-कराता रहे। सारे मज़हब के लोग यहां अमन-चैन से रहना चाहते हैं और रहते भी हैं। मुसलमानों के लिए हिंदुस्तान से ज्यादा महफूज और कोई मुल्क नहीं है। आपने आतिका फारुखी की वह नज्म सुनी है जिसमें उन्होंने हमारे मुल्क की गंगा-जमुनी तहजीब का बड़ी खूबसूरती से बयान किया है?”

“याद नहीं आ रहा है, शायद नहीं सुनी है।“

“कोई बात नहीं, मैं सुनाता हूं आपको। तो सुनिए” –

‘मेरी आंखों ने मक्का भी देखा है मथुरा भी

मेरे पूर्वजों ने ईद भी मनाई और दिवाली भी

मंदिरों के रास्तों में रफ्तार धीमी की हमने

मस्जिदों की सीढ़ियों पर रुक कर अजान सुनी

ईसाइयों के स्कूलों में तालीम पाई

सिखों के घरों में जिंदगी बिताई

मेरे दोस्तों की फेहरिस्त में रंग बहुत हैं

मेरी दुनिया के दायरों में तरंग बहुत है

मेरे खाने में मेरा मज़हब साफ नहीं दिखता

मेरे घर के दरवाजे पर धर्म नहीं रहता

मेरे पहनावे में तहज़ीब है, धर्म की छाप नहीं

मेरी जुबां पर मेरी परवरिश है, मज़हब की ताप नहीं

मेरे त्योहारों में कोई त्योहार इज्जत से खाली नहीं

क्रिसमस भी मेरी, लोहड़ी भी मेरी, सिर्फ एक दिवाली नहीं

धर्म से लोग एकजुट नहीं किए जाते

काश कि वे घरों से निकलें और जानें

अपनी सोच को बड़ी करके, दुनिया की सरहदें लांघें

अल्लामा इकबाल के पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे

हम निवाला और हम प्याला ही हमसफर हुआ करते हैं

इश्क उससे होता है जिससे घर की दीवारें मिलती हैं

दिल उनसे जा लगता है जो एक पेड़ की छांव में बैठे हों

अहले किताब में जिंदगी की गांठ नहीं बांधते

डर सिर्फ आखिरत का नहीं, रहती जिंदगी का भी है

क्या मालूम कि तुमसे मज़हब तो मिले, सोच नहीं

हमें दफनाया तो एक सलीके से ही जाए

पर जीवन की हर एक बात एक-दूसरे पर बोझ रहे

तो क्या कि मेरे खुदा का नक्श नहीं और तेरे रब की शक्ल है

तो क्या कि मेरा अंत जमीन में है और तेरा हवाओं में

तो क्या कि तेरे पैदा होने पर कुछ और

मेरे पैदा होने पर कुछ और हुआ था जश्न

तो क्या कि तेरी किताब ऐसी और मेरी किताब वैसी

तो क्या कि तेरे वास्ते नेताओ ने कुछ और वादे किए

तो क्या कि मेरे लिए नेताओं ने कुछ और झूठ कहे

तो क्या कि तेरे नाम के आगे कुछ

और मेरे नाम के साथ कुछ और जुड़ा है

तो क्या कि हमारे इबादत खानों में फूल अलग हैं

तो क्या कि तू संस्कृत में और मैं अरबी में दुआ मांगू हूं

तो क्या कि उन्हें हमारी दोस्ती से है डर इतना

कि टीवी पे चलाते हैं मुहीम नफरत की

तो क्या कि उनकी आंखों में है खौफ हमारे लिए

कि हम एक दिन उठेंगे और उन्हें बेनकाब कर देंगे’

आगे चंद सतरे और भी हैं। पर उनकी नज्म की ये लाइनें हर हिंदुस्तानी के दिल में वह जज्बा पैदा करने के लिए काफी हैं जो उन्हें “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” के मंत्र की रूह तक पहुंचाता है। पर, यह भी सच है कि कुछ सियासतदां और कुछ दोनों तरफ के मज़हबी ठेकेदार अपने स्वार्थ के लिए दोनों को आपस में लड़ाने के काम में लगे रहते हैं। हिंदुस्तान में अमनो-अमन देखकर कुढ़ने वाले देश, खासकर कुछ पड़ोसी मुल्क भी इसमें पीछे नहीं हैं।“

अब्बू ने पाकिस्तान का नाम तो नहीं लिया था, लेकिन राशिद समझ गया था कि उनका इशारा उसी तरफ था। राशिद को बुरा तो लगा था, पर कुछ सच्चाईयां उसके सामने थीं। बेसाख्ता वह सोचने लगा था कि वह खुद भी तो इस सबके लिए एक मोहरा बना था। लेकिन, इस ख्याल को उसने तुरंत झटक दिया था। वह तो अपने वतन और मज़हब के लिए अपना फर्ज निभाने निकला था। हिंदुस्तान उनके लिए दुश्मन मुल्क था और उसे हर तरह से कमजोर करना जायज था। उसने खुद को समझा लिया था और वह अपने मकसद को पाने के लिए नए जोश से भर उठा था। वतन और अल्लाह की राह में उसे हर तरह की कुर्बानी मंजूर थी।

इस निश्चय के साथ ही उसकी आंखों के सामने नुसरत और अब्बू के चेहरे उभर आए। उन्हें नहीं पता था कि वह उनके साथ, उनके मुल्क के साथ और उनके प्यार के साथ छल कर रहा था। वे उसे अपना मान बैठे थे, कहीं न कहीं वह भी उन्हें अपना मानने लगा था। उनसे जो प्यार और अपनापन उसे मिला था, वह उसे कभी भी नहीं भूल सकता था।

उसे अपने भीतर चल रही कशमकश से अजीब सी बेचैनी होने लगी थी, जिसे दूर करने के लिए वह समुद्र के किनारे जाकर बैठ गया। रजिया का प्यार और उसकी अपनी मजबूरी उसकी बेचैनी को और बढ़ा रही थी। बेबसी से उसकी आंखें नम हो आईं। वह बहुत देर तक वहां बैठा हुआ खुद से लड़ता रहा। उसे कोई रास्ता नहीं सुझाई दे रहा था। उसने दुआ के लिए अपने हाथ फैला दिए। वह जानता था कि ऊपरवाले के अलावा उसे इस जंजाल से और कोई नहीं निकाल सकता था। जब हम कोई फैसला नहीं ले पाते तब वही है जो राह दिखाता है।

शायद अल्लाताला ने उसकी सुन ली थी। उसके भीतर से प्रश्न उठा था – “राशिद, तुम यहां क्या करने आए थे? उसे तुरंत जवाब भी मिला था – तुम यहां आए थे, एक बड़े खुफिया मिशन को अंजाम देने। अपने वतन और अल्लाह की राह में कुर्बानी का इरादा लेकर। तुम यहां आए थे, भारत की नई परमाणु प्रणाली को खत्म करने और ऐसी जानकारियां जुटाने जो तुम्हारे मुल्क को दुश्मन मुल्क से दशकों आगे ले जाए। तुम यहां रिश्ते बनाने और प्यार के बंधन में बंधने के लिए नहीं आए थे। जिस काम से आए हो उसे पूरा करो, यह तुम्हारा फर्ज है – अपने वतन, अपनी कौम और मज़हब के लिए।“

इस विचार के साथ ही उसके मन की धुंध छंट गई थी और फिर वह वहां से उठकर घर की ओर चल दिया था। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि अब वह अब्बू और नुसरत से ज्यादा से ज्यादा दूरी बना कर रखेगा।