एक दुनिया अजनबी - 13 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 13

एक दुनिया अजनबी

13-

विभा रसोईघर में जाने के बजाय बाहर निकल आई, पता नहीं उस दिन मृदुला को देखकर उसे कुछ जोश सा आ गया था ;

"मैंने तो कभी बुलाया नहीं आपको ---फिर क्यों --? " अंदाज़ कड़वा था विभा का |
"अरे ! भक्तन ! तुम्हारे कल्याण के लिए ---देखो, हम तो तीन महीने में आते हैं ---जगत कल्याण के लिए हरिद्वार से आते हैं | देखो, तुम्हारे लिए भी गंगाजल लेकर आता हूँ हर बार ---ये रही तुम्हारे हिस्से की बोतल ---" उसने झोली से निकालकर एक प्लास्टिक की बोतल विभा को पकड़ाने की कोशिश की |

"नहीं चाहिए आपका गंगाजल महाराज, ले जाओ इसे ----"

विभा को आज वाक़ई काफ़ी गुस्सा आ रहा था, तीन महीने में तीन-चार बार आ टपकता है और हर बार नई डिमांड ! कोफ़्त होती थी विभा को ! न जाने शहर में कितने दिन रहता है ? जाने कहाँ से पानी भर लाता है ?

विश्वास न होने पर किसीको सह पाना बड़ा मुश्किल होता है |

पता नहीं कब मृदुला उसके पीछे आकर खड़ी हो गई, गेरुएधारी की आँखों में हिंसक चमक सी आने लगी थी | गेट खोलकर वह अंदर आ गया |

"मैंने कहा न आप जाओ यहाँ से ---" विभा ने कुछ कड़ककर कहा |

"आज तो हम अपनी भक्तन से मच्छरदानी लेकर ही जाएँगे ---" हद होती है बेशर्माई की !

विभा की समझ में कुछ नहीं आया, उसके चेहरे पर नासमझी के चिन्ह सिमट आए ;

"मच्छरदानी ----" वह बड़बड़ाई |

"हाँ भक्तन , मच्छरदानी ---जहाँ हम विश्राम करते हैं वहाँ मच्छर बहुत काटते हैं |" कितना बेशरम बंदा !

"मेरे पास कई मच्छरदानियाँ हैं पर तुम्हें दूंगी नहीं | तुम तो संत हो, भला मच्छर तुम्हें कैसे काट सकते हैं ? " ये सब बकवास करने की क्या ज़रुरत थी विभा को !

"अरे! मच्छरदानी नहीं चाहिए तुम्हारी, पैसे दे दो, खुद ही बाहर से खरीद लेंगे ---पहले चाय तो पिला दो, भक्तन ---"

विभा के तन-बदन में जैसे किसी ने आग लगा दी हो |पता नहीं, कैसे-कैसे लोग पाल लेते हैं हम भी !उसकी आँखों में बेबस क्रोध छलक आया |

प्रखर के पिता घर पर थे नहीं और प्रखर माँ से कहकर पीछे के गेट से गाड़ी निकालकर सपरिवार बाहर चला गया था |वैसे उसे इससे निबटने के लिए कुछ कहा जाता तो झगड़ा-टंटा ही होता, उसे तो पहले ही इन लोगों से चिढ़ थी | आज तो उसकी आँखों के दो काँटे एक साथ ही घर में आ गए थे

"दीदी ! इन्हें चाय पिला ही दीजिए ---मेरे लिए तो बना ही रही हैं आप !" मृदुला ने विभा को कुछ इशारा दिया |

"तुम नहीं जानतीं मृदुला, यह बहुत परेशान करते हैं | भक्तिन-भक्तिन कहकर और खुंदक पैदा कर देते हैं | " विभा आराम से मृदुला के सामने भुनभुना देती थी |

"परिवार है क्या तुम्हारे? मृदुला ने बरामदे में पड़ी कुर्सी खिसका ली और आराम से बैठ गई|

"हाँ, है न !क्यों नहीं, बिलकुल है ! " उसके इतनी ऐंठ से कहने पर विभा और चिढ़ गई |

"कहाँ? "

"राजस्थान में ---"

"बच्चे-वच्चे हैं? " मृदुला आज उसे छोड़ने के मूड में दिखाई नहीं दे रही थी |

"अरे! सब है ---बीबी, बच्चे --पूरा घर -परिवार है ----" चौखटे पे मुस्कान ओढ़ते हुए उसने जवाब दिया |

"कितने बच्चे? " मृदुला ने फिर अपनी सी.आई.डी वाली निगाह से उसे तोलते हुए पूछा |

"छह हैं जी ----दो बेटे, चार बेटियाँ --" छह बच्चों का बाप था जी, अकड़ना बनता था |

"काम कैसे चलता है? पालते कैसे हो इतने बड़े टब्बर को ---? "

"खेती-बाड़ी है ---भौत सारी ---" उसने आँखें चौड़ी कीं, हाथ लंबाकर अपनी लंबी-चौड़ी खेती दिखा दी |

"परिवार छोड़कर क्यों चले गए? "

"क्या रखा है माया में बस --मन उखड़ गया ---"

"कौन करता है खेती-बाड़ी? " बंदूक में से गोलियाँ लगातार दाग रही थी मृदुला, 'हरामखोर कहीं का' मन में बड़बड़ाते हुए वह उसकी ऎसी-तैसी करने के भयंकर मूड में थी |

"अरे हैं न बीबी, उसकी बहन-भाई ---सब्ब संभाल लेते हैं जी ---" उसने बड़े चैन से कहा और हाथ ऊपर की ओर जोड़ दिए | फिर बोला ;

"इस दुनिया से मोह छूट गया---"

"ओहो ---तत --तत, वैसे छोटा बच्चा कितना बड़ा है? "

"होगा कोई नौ-दस महीने का---" फिर अकड़न!

"गधे की औलाद ! दुनिया से मोह छूट गया---और ढेरों बच्चे पैदा करता जा रहा है |" गुस्से के मारे विभा की जगह मृदुला खौल गई, उसकी आँखें क्रोध से लाल भभूका हुई जा रही थीं |

"बेवकूफ़ समझ रखा है -साला ---" मुँह से और गाली निकल न जाए उसने अपनी जीभ दाँतों में दबा ली |

"अरे ! तू कौन है? तूने जने हैं क्या बच्चे ? परिवार तो होता है नहीं तुम्हारे, तुम्हें क्या पता बच्चे की कीमत क्या है ? " मृदुला की कमज़ोर नस पर कुठाराघात था |शायद उसके हाथ में कुछ होता तो वो उस पर घुमाकर दे मारती |

"कमीने ! तुझे पता है बच्चे क्या होते हैं ? पैदा करके चल देता है | अपनी भूख मिटाकर किसी बेसहारा पर छोड़ देता है और ---कमबख़्त ! बता नहीं सकती तुझे बच्चे किसे कहते हैं, बस चलता तो बताती ----" मृदुला की आँखों की कोर गीली हो गईं थीं |