तीसरे लोग - 9 Geetanjali Chatterjee द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तीसरे लोग - 9

9.

नीला आकाश शयमवर्णी मेघों का आवरण ओढ़े, ललचाई दृष्टि से अपनी ओर ताकती प्यास धरा को आज तृप्त करने के लिए उमड़-घुमड़ आगमन का संदेशा दे रहा था। उनकी सिंह गर्जना को सुनकर फाल्गुनी कालिदास रचित मेघदूत की यक्षिणी-सी सिहर उठी। स्मारक की सुकुमार छवि आज फिर उसकी सुप्त कामनाओं को निरंकुश करने लगी। लॉन में झूल रहे हिंडोले में बैठकर हौले-हौले पींगे मारती हुई एक गीत गुनगुना उठी ---

'रदीयड़ी रात मां, हूं ऐकली बेसी ने जोऊं तारी बाट रे ....'

(विलाप करते रात्रि में, अकली बैठकर मैं तेरी राह देख रही हूं ...)

वर्षा की मोटी-मोटी बूंदों उस विरहिनी की उत्तेजनाओं पर प्रहार करती चली गई और निर्मम बूंदों का प्रहार वह झेलती रही। बाहर से आत्मसंतुष्ट और संयमी दिखनेवाली फाल्गुनी को न जाने आज क्या हो गया था।

बहु को ढूंढ़ते हुए, सास हंसा बेन ऊपर उसके कमरे में आई। वहां उसे न पाकर वह बालकनी में आई तो बाहर वर्षा में भीग रही फाल्गुनी पर उसकी नजर पड़ी। ' हे भगवान इस लड़की को क्या ही गया आज। ' बड़बड़ाते हुए वह नीचे उतरकर छतरी लिए तुरंत लॉन में आई। "फाल्गु, ओ फाल्गु ! क्या हो गया तुझे बेटा ? बीमार पड़ जाएगी। चल-चल भीतर चल। " फाल्गुनी स्नेह सास से लिपटकर रोने लगी। इस वक्त उस विरहिनी की व्यथा को उसकी सास से अधिक और कौन समझ सकता था। उसकी नाज़ुक नुकीली चिबुक को उठाते हुए बड़ी ममता और स्नेहभरी झिड़की दी हंसा बेन ने ----

"पगली कहीं की। इसी तरह भीगकर तो बीमार पड़ जाएगी। फिर भला क्या जवाब दूंगी स्मारक को ? कहेगा, उसकी अनुपस्थिति में हमने बहू का ख्याल नहीं रखा हैं ना ? अच्छा चला दोनो आइनॉक्स में कोई अच्छी-सी पिक्चर देखने चलते हैं, फिर बाहर भी कहीं खा लेंगे। वैसे भी तेरे बापू जी को आज लौटने में काफी देर होगी। चल-चल जल्दी से कपड़े बदलकर तैयार हो जा।"

फाल्गुनी ने अनमने ढंग से कहा, "पर मां ! मेरा दिल नहीं है कहीं जाने को। "

"ओफ्फो ओ ! घर बैठ-बैठ और जी खराब होगा। देख मौसम भी कितना सुहाना हो रहा है। थोड़ा घूम-फिर आएगी तो फ्रेश हो जाएगा मूड। अब देर मत कर, जा जल्दी से तैयार हो जा। " कहकर हंसाबेन भी साडी बदलने चली गई। फाल्गुनी को बिलकुल भी मन नहीं था, लेकिन प्यारी सास का दिल दुखाना उचित नहीं समझा उसने।

ड्राइवर गाड़ी पोस्ट में खड़ी कर प्रतीक्षा कर रहा था दोनों साल-बहु घूमने चल पड़ी। पिक्चर देखने के बाद बाहर ही एक बढ़िया से रेस्तरां में दोनों ने खाना खाया। फिर जुहू-चौपाटी पर जाकर बारिश में भीगते हुए भुने-भुट्टे और कुल्फी का आनंद उठाया। घर लौटते हुए साढ़े नौ बज गए थे। बापूजी को नटु काका ने खाना खिला दिया था और वे टी.वी में समाचार देख रहे थे।

"अरे आ गए तुम लोग ? अच्छा किया हंसा ,जो बहु को घुमाने ले गई। कभी-कभी ऐसे ही घूम आया कर बेटा, दिल बहल जाएगा। तेरे चेहरे पर हम बुड्ढा-बुड्ढा-बुड्ढी उदासी देखते है तो हम भी उदास हो जाते हैं और तुझे खुशी देखकर हम खुश हो लेते हैं।" बापू जी के हंसमुख स्वभाव से माहौल हल्का-फुल्का हो गया।

फाल्गुनी सचमुच घूम-फिर कर फ्रेश हो गई थी। उसने अपने आपसे कहा, " ईश्वर ऐसे देवता समान सास-ससुर सबको दे।

आज बेहद उसम-भरी शाम थी। आकाश काले बादलो से अटा-पटा था, लेकिन जिद्दी घोड़े की तरह अड़ियल वहीं आकाश में टंगा हुआ था। फाल्गुनी सिर धोकर-नहाकर, बालकनी से बादलों के मिजाज को समझने की कोशिश के रही थी।

अब स्मारक का फ़ोन आया था, तब वह बाथरूम में नहा रही थी और व्ही संदेश देने हंसाबेन उसके कमरे में आई। बहु के गीले खुले केश देखकर उन्होंने समझाया, " सांझ के वक्त सुहागने केश खुला नहीं छोड़ती मेरी बच्ची। चुड़ैल का साया पड़ जाता है। " सास की बात सुन फाल्गुनी हंस पड़ी।

"क्या मां ! आप भी ऐसी बातों पर विशवास करती हो ?" देख बहु ! औरत कितनी भी पढ़ी-लिखी हो या आधुनिक हो, लेकिन पति और संतान के अमंगल को रोकने के लिए बड़ी सहजता से ऐसी अंधविश्वास-भरी बातों पर विशवास करने को मन से बाध्य हो जाती है। "

फिर बड़े दुलार से उन्होंने बहु के गीले केशों को तौलिये से पोंछकर एक ढीला-सा जुड़ा सा लपेट दिया। अपनी आँखों से काजल चुराकर फाल्गुनी के मस्तक पर नज़रबट्टू लगाते हुए बोली उठी, " हे जगदम्बे मां, मेरी चाँद-सी बहु पर कभी किसी की बुरी नज़र का साया ना पड़े। " फाल्गुनी ने कई बार मन होता की वह अपनी स्नेह सास को पति के साथ अपने संबंधों के विषय में सब कुछ खुलकर बता दे, लेकिन प्रत्येक बार खुद को रोक लेती और आज फिर एक बार वह कहते-कहते संभल गई। क्या कोई माता अपने पुत्र के प्रश्नवाचक पौरुषता को सहजता से स्वीकार कर सकेगी ? नहीं-नहीं, वह उन्हें इतना बड़ा आघात नहीं दे पाएगी और फिर उसका सुहाग भी तो अपमानित होगा। कैसे झेल पाएगी अपने सुहाग का असम्मान। "

गाँव की जमीन पर अस्पताल की नीवें पड़ चुकी थी। बापूजी को इस उम्र में भी इतना भाग-दौड़ करते देख फाल्गुनी को बड़ा कष्ट हो रहा था। एक तरफ बिज़नेस तो दूसरी और अस्पताल की जिम्मेदारी। उस दिन रात के भोजन के बाद बापू जी ने वलियारी (सौंफ) लाने को कहा अपनी बहु से। फाल्गुनी ने वलियारी की डिबिया बापूजी को थमाई तो उन्होंने स्नेह से कहा, " आ दीकरी बेस मारी पासे।" (आ बेटी बैठ मेरे पास ) देखो बेटी, ये अस्पताल स्मारक के लिए एक मंदिर है। तुम्हे अर्धांगिनी होने के नाते उसका साथ देना होगा। कहते हुए उन्होंने आशातीत दृष्टि से बहु को देखा। फाल्गुनी से मौन स्वीकृति पाकर उन्होंने अधूरी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, " आज आर्किटेक्ट कंस्ट्रक्शन की डिज़ाइन दे गया है। तीन-चार नमूने हैं और मैं चाहता हूं तुम्हारी पसंद का डिज़ाइन पास हो। "

फाल्गुनी भावविभोर हो बोल उठी, " बापूजी बहुत दिनों से कुछ कहना चा रही थी आपसे। हाँ ! हाँ ! नि:संकोच बोल बेटी ! क्या कहना चाहती है ?" बापूजी के प्रोत्साहन से फाल्गुनी ने भूमिका बांधी, "इस उम्र में कितना काम करेंगे आप ? थोड़े आराम की भी तो आव्यशकता है आपको। यदि कोई आपत्ति न हो आप लोगों को तो मैं देख लूं अस्पताल के निर्माण काम ? वैसे भी सारा दिन खाली ही तो बैठी रहती हूं। न जाने कैसे-कैसे बुरे ख्याल आते रहते हैं। आप यदि हां कह दे तो मेरा भी मन लगा रहेगा। "

सेठ भीमजीभाई पुरानी पीढ़ी के आवश्य थे , परंतु नई पीढ़ी के जज्बे की कदर करना जानते थे। उनके लिए बेटा, बेटी ,पुत्रवधू सबका एक ही स्थान था। फाल्गुनी उनका स्वभाव जानती थी तभी तो पूछने का साहस हुआ और उसे आशा थी कि वह कभी इंकार नहीं करेंगे। पुत्रवधु की बात सुनकर उन्होंने थोड़े चिंतित होते हुए कहा, "अगर तू चाहती है कि साइट में जाकर निर्माण का काम देखे तो मुझे क्या अप्पति हो सकती है ? पर बेटी आसान नहीं है। वहां कड़ी धूप में घूमना पड़ेगा, मजदूरों, ठेकेदारों के बीच सिर खपाना क्या सहज बात है ? और बीमार पड़ गई तो ?" कई शंकाओं- कुशंकाओं को उन्होंने जाहिर किया, लेकिन लाड़ली पुत्रवधु की बात को न टाल सके। फाल्गुनी ख़ुशी से झूम उठी। हंसाबेन पति से मुखातिब हो कहने लगी, "क्या आप भी। वह बेचारी वहां जाके करेगी भी क्या ? और ईंट, पत्थर , रेत , सीमेंट के बीच उसका क्या काम ? खुली धुप में रंग झुलस जाएगा। बेटे को क्या जवाब देंगे, सोचा है तुमने कभी ? बिना सोचे-विचारे झट से हां कर दी। "

फिर फाल्गुनी से अनुनय की, " ना-ना बेटी कोई जरूरत नहीं। अस्पताल के निर्माण का काम देखने-संभालने के लिए तेरे ससुर के पास सैकड़ों कर्मचारी हैं। चम्पई-सा रंग कोयला हो जाएगा, कह देती हूं। "

सास ससुर की नोक-झोंक देखकर फाल्गुनी को आज बड़ा मजा आ रहा था। सचमुच सुखी दांपत्य जीवन का असली मजा तो तब है, जब इसके व्यंजन में सब स्वादों का मिश्रण हो। मिठास, खटास, नमकीन, कड़वाहट, तल्खी। फाल्गुनी की दादी अक्सर कहा करती थी की सुखी दाम्पत्य जीवन तो एक स्वादिष्ट मसालेदार अचार की तरह है। अगर मसालों का तड़का सही मात्रा में पड़े तो सारा जीवन अचार का स्वाद बना रहता है। सड़ने की गुंजाईश ही नहीं रहती |”

अभी भी दोनों की बहस और नोक-झोंक चल रही थी। अंत में जीत ससुर की हुई तो रूठी सास को मनाने के लिए फाल्गुनी ने उनके इर्द-गिर्द गलबहियां दाल दीं। बहु के लाड से सास का मन नरम हुआ।

तय हुआ की हफ्ते में तीन दीं फाल्गुनी अपने श्वसुर के सबसे पुराने और भरोसेमंद सेक्रेटरी शांतिलाल काका के साथ साइट पर जाया करेगी। मुंबई से साइट तक का कार द्वारा सफर लगभग चार-पांच घंटों का था। वह सुबह के पांच बजे निकलते और साढ़े-नौ, दस बजे तक साइट पहुंच जाया करते थे। नटु काका सुबह चार बजे उठकर बहुरानी का नाश्ता, दोपहर का खाना, चाय-कॉफी सब गाडी में रखवाकर फाल्गुनी को खाना समय पर खा लेने की हिदायतें भी देते रहते। " हां काका ! चिंता मत करो, मैं सब समय पर खा लिया करूंगी बस !" कहकर उस बूढ़े रसोइए को तसल्ली देते हुए रवाना होती।

अस्पताल का निर्माण कार्य बड़ी तेजी से चल रहा था। फाल्गुनी की सौम्य-सुंदर छवि से उन कंक्रीटों में भी जा आ गई। सारा दीन काम की व्यस्त्तता के बीच वह अपने नीरस, प्रेमहीन, जीवन को भूल जाने में सफल रहती, परंतु रातें बड़ी निर्ममता से उसके एक तरफा प्रेम में मिले तिरस्कार और उसके रूप के अपमान की घटनाओ की छवि को किसी उद्दंड बालक-सा उसकी आंखों के समक्ष लिए खड़ी हो जातीं। सृष्टि ने नारी को सहनशक्ति की अद्भुत भेंट दी है और इस हकीकत को पुरुष भी स्वीकार करता है, परंतु सारा संसार की ऐसी कौन-सी रूपवान स्त्री होगी, जो अपने रूप और यौवन का तिरस्कार और अपमान सहने की शक्ति रखती है ? फाल्गुनी के रूप और यौवन का दर्प तो उसी के हाथों चूर हुआ, जिसके पास वह स्वंय समर्पित होना चाहती थी।

पति का बिछोह और काम की अधिकता के कारण फाल्गुनी का श्रीमुख किसी तपस्विनी-सा तेजस्वी हो उठा था। सारा दिन वह रूपसी, पुरुषों के बीच रहकर काम करती थी, लेकिन उसके इर्द-गिर्द खिंची लक्ष्मणरेखा को लांघने का दुस्साहस किसी रावण में नहीं था। मानो वह एक चंपा का फूल थी। एक ऐसा फूल, जो सर्वगुण होने पर भी जिसके इर्द-गिर्द भ्र्मर का उड़ना वर्जित था।