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तीसरे लोग - 11

11.

फाल्गुनी जी-तोड़ म्हणत कर रही थी अस्पताल इ निर्माण पर | अस्पताल लगभग बन के तैयार हो चुका था और अब फर्नीचर तथा इंटीरियर डेकोरेशन का काम चल रहा था | अपने पति स्मारक के साथ-साथ फाल्गुनी का भी यही सपना था की अस्पताल की ख्याति देश-विदेश तक फैले | उसे न तो खाने की सुध रहती, न सोने की | शायद इसलिए उस का मुख म्लान दिखने लगा था | अपने लिए मानो बिलकुल उदासीन हो उठी थी | श्रृंगार करे भी तो किसके लिए | हंसबेन भी पुत्रवधु की संसार के प्रति उदासीनता और गिरती सेहत के कारण चिंतित थी, परंतू वह हठी, स्वाभिमानी युवती किसी की सुने तो |

फाल्गुनी आज संतुष्ट थी और प्रफुल्लित भी | अस्पताल पूर्ण रूपेण तैयार हो चूका था | बस एक शुभमहूर्त देखकर नामकरण करना बाकी था | उसे घर लौटने में काफी विलम्भ हुआ | दरवाजे के भीतर प्रवेश किया ही था की उसकी सास ने लगभग दौड़ते हुए आकर उसे अपने वक्ष से लगा लिया | आनंद एवं उत्तेजना से हंसाबेन की सांसों फूल रही थी, " ओ फल्गु ! कल सुबह की फ्लाइट से स्मारक घर लौट रहा है | एक घंटे से तुझे फ़ोन लगाने की कोशिश कर रही हुं, लेकिन नेटवर्क जाम मिल रहा था | ममता की मारी माता आँखों से आंसू छलक आए | स्नेह से पुत्रवधु के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली-तेरा वनवास समाप्त हुआ | मेरी जानकी, ले अब तेरा राम कल पधार जो रहा है | ख़ुशी की यह खबर सुनकर फाल्गुनी का रोम-रोम आल्हादित हो उठा |

वह जानती थी की उसका प्रेम मीरा की तरह एक तरफ़ा है | फिर भी मुग्ध चकोर की तरह सारा जीवन अपने चांद को देखकर ही स्वंय को तृप्त कर लेगी | प्रियतम के आगमन की ख़ुशी में आज बहुत दिनों बाद उसे तृप्ति से खाते हुए देखकर सास और ससुर ने संतोष सांस ली | बहुत देर शावर के नीचे खड़ी होकर नहाती रही फाल्गुनी | अर्सो से दबी कामनाए आज परत-दर-परत खुलती चली गई और ठन्डे पानी की फुहारें से देह की तपिश को सुकून महसूस हुआ | गुनगुनाते हुए आईने के समक्ष आकर बैठ गई और अपने प्रतिबिम्ब को देखते ही सहम गई | ये क्या ! कड़ी धुप में अस्पताल निर्माण का निरिक्षण करते-करते उसकी पीतांबरी कंचन काया ताम्रवर्णी हो उठी थी | सीप-सा आँखों के तले विरह और क्लांति की स्याही जम गयी थी और फूल की पंखुड़ियां से अधरों पर वैराग्य, सुने जीवन की पपडियां पड़ गई थी | एक बढ़िया-सी क्रीम लेकर उसने चेहरे की मालिश की | अब श्रीमुख पर क्रीम की मालिश और पिया मिलन की बेला का असर होने लगा था | सुबह पांच बजे तक अलार्म सेटकर वह सोने की तैयारी करने लगी |

गाडी पोर्च में आकर रुकी तो सधस्नाता फाल्गुनी सज-धजकर हाथ में आरती का थाल लिए सास के संग पति के स्वागत के लिए खड़ी थी | स्मारक ने उसे स्नेह से मुस्कराते हुए देखा | उन आँखों में पति को सुलझे साथी और एक अच्छे मित्र बने रहने का मूक आभार था और फाल्गुनी की आँखों में मेनका बनकर अपने विश्वमित्र को रिझाने का आमंत्रण | यद्यपि वह जानती थी की उनका रिश्ता किसी समांतर रेखा की तरह था, जो केवल साथ चलने के लिए बने थे, मिलने के लिए नहीं, तथापि, पति की भुवनमोहिनी छवि को देखते ही न जाने क्यों वह उन्मादिनी नदी की विक्षिप्त लहरों की तरह साहिल से टकराने को मचल उठी |

सारा दिन घर-भर में उत्सव का माहौल था | दामाद के विदेश से वापस लौटने की खबर पाते ही राजकोट से फाल्गुनी के माता-पिता भी भेंट करने के लिए आ गए | बेटी को ससुराल में खुश देखकर वे भी संतुष्ट हुए | दोपहर के भोजन में स्मारक की पसंद की सारी चीज़ें फाल्गुनी नटु काका के साथ मिलकर बनाई | श्रीखंड, पूरी, कठोर, रजवाड़ी कढ़ी, दाल ढोकली, उंधिया, फरसाण और न जाने क्या-क्या | हंसी-मजाक से वातावरण में पप्रफुल्ल्ता थी | इतने दिन विदेश के अंग्रेजी भोजन के बाद घर का खाना उसे अमृत से बढ़कर स्वादिष्ट लगा | फाल्गुनी उसके बगल में ही बैठी थी | उसने प्रेम और आग्रह के साथ अपने हाथों से फाल्गुनी को एक-दो निवाले भी खिलाए | फाल्गुनी को ऐसा लगा की आज ईश्वर ने दुनिया की सारी खुशियां उसके दामन में भर दीं |

 

विदेश से लौटकर अमूमन गंभीर रहनेवाला अल्पभाषी स्मारक थोड़ा बातूनी हो गया था | शाम को फाल्गुनी के माता पिता ने विदा ली | समधीजी ने काफी आग्रह किया एक दो दिन रुक जाने के लिए, परंतु फाल्गुनी के पिता अपने मित्र और समधीजी की पीठ थपथपाते हुए कहा की बेटी की ससुराल में ठहरने का अपराध वो नहीं कर सकते |

 

स्मारक ने मुखवास (मीठी सौंफ ) मुंह में धरते हुए अपने शयनकक्ष में प्रवेश किया | पीछे-पीछे फाल्गुनी भी कमरे में प्रविष्ट हुई | फाल्गुनी को बैठने का आग्रह कर उसने बड़े से सूटकेस का ताला खोला और उसके लिए लाए एक-एक उपहार को निकलता चला गया | सब एक से बढ़कर एक | ब्रांडेड कंपनियों की महंगी चीज़ों

उसने फाल्गुनी को लाद दिया | गुच्ची का हैंडबैग, रे-बेन की सन ग्लासिज, सिनोरिटा के सैंडल, ग्लैडरैग्ज का नाईट गाऊन, मैक्सफैक्टर की लिपस्टिक और न जाने क्या-क्या | पति की उम्दा पसंद की दिल खोलकर तारीफ की फाल्गुनी ने | वैसे भी संसार प्रत्येक पत्नी के लिए पति द्वारा भेंट की गई कोई भी वस्तु अमुल्ये ही होती है, क्योंकि उसमे पति का प्रेम छुपा होता है | फिर यहां लगता है स्मारक अमेरिका का पूरा शॉपिंग मॉल उठाकर लाया था अपनी पत्नी के लिए | स्मारक ने थोड़ा झिझकते हुए कहा ," पता नहीं, तुम्हे ये सब पसंद आए भी या नहीं, क्योंकि मैंने तुम्हारी पसंद-नापसंद जाने की कोशिश ही नहीं की कभी |"

 

फाल्गुनी ने गदगद होकर जवाब दिया, " मेरा सबसे श्रेष्ठ उपहार तो आपकी वापसी है | आपको सामने पाकर मैंने तो सब कुछ पा लिया है | " स्मारक इस बुद्धिमती युवती के उत्तर से मुस्कराकर रह गया | फाल्गुनी खुश थी की स्मारक परदेस से लौटने के बाद उससे खुलने लगा था |

दोनों काफी रात तक बाते करते रहे | स्मारक ने उसे अपनी रिसर्च के विषय दी जानकारियां दी और समलैंगिकों की समाजिक परिस्थति और पारिवारिक कठिनाइयों के विषय में चर्चा करता रहा | विज्ञान अभी तक इनकी प्रवृति और मनोविज्ञान को समझने तथा जाने में अक्षम है | विश्वभर में ऐसे व्यक्तियों पर प्रयोग, अनुसंधान और सर्वे किया जा रहा है | हो सकता है आने वाले दिनों में वे सफलता का परचम लहराएं, परंतु फिलहाल तो इसे सृष्टि का उपहास ही माना जा रहा है | फाल्गुनी नेभी अस्पताल के विषय में पूरी जानकारी दी और उसकी तसवीरें भी दिखाई |

स्मारक ने फाल्गुनी को ही उसके सपनों को साकार करने का पूरा श्रेय दिया | फिर यकायक गंभीर होते हुए कहने लगा, "फाल्गु तुम्हारा ऋण न जाने कैसे चूका पाऊंगा इस जन्म में | मेरी कायरता के कारण ही आज तुम एक तपस्वनी का जीवन यापन करने को बाध्य हो | तुम्हारे जैसी देवी का मैं अपराधी हूं | हां फाल्गु मैं ही तुम्हारा दोषी हूं | मुझे इस ग्लानिबोध से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी |" कहकर अचानक से स्मारक की भावनाएं अश्रु-जल बनकर अविरल बहती चली गई | वह फाल्गुनी के चरणों में सिर रखकर रोता चला गया |"

 

फाल्गुनी पति के इस व्यवहार से घबरा गई | वह समझ न पाई की क्या करे इस स्थिति में, परंतु उसका नारी हृदय पति की व्यथा से दग्ध हो गया | " नहीं, नहीं , ऐसा न कहो | अगर मैं तपस्वनी का जीवन भोग रही हूं तो आप भी तो सन्यासियों की तरह ब्रमचर्य का पालन करने को मजबूर हैं | अपने-आपको इतना दीन -हीन न बनाइए, मैं टूट जाऊंगी |

 

यह कहते हुए उसने पति के अश्रुसिंचित चेहरे को स्नेह और ममता से अपने वक्षस्थल में भींच लिया | उस छुअन में आज रत्तीभर वासना की चिंगारी न थी | आज उसमें था अपार श्रद्धा, वातसल्य और त्याग का हिमखंड | स्मारक को उसने जी भरके रो लेने दिया | आसुओं के साथ उसकी हीन भावना भी धुलने लगी थी | उसने एक नए जोश, एक नए रूप के साथ कहा, " फाल्गु क्यों न हम बाकी की जीवन अस्पताल के रोगियों की सेवा में समर्पित कर दें और एड्स के असध्या रोग से पीड़ित मरीज़ों के अंतिम दिनों के साथी बन जाएं ? कहो डौगी मेरा साथ ?"

 

पति के इस नए आत्मविश्वास से भरे रूप को देखकर फाल्गुनी भाव-विभोर होते हुए बोली, " क्यों नहीं, क्या पुण्य अकेले ही कमाना चाहते हो ? परछाई हूं आपकी, साथ तो देना ही होगा |" दोनों हँस पड़े | अंधरे करवटे बदलकर सो चुके थे | भोर का तारा अंशुमाली की प्रथम किरण को चूमने की प्रतीक्षा कर रहा था |

 

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