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तीसरे लोग - 4

4.

पूर्णिमा का चांद अपने यौवन की पामीर पर था और समस्त अवनि एवं व्योम

उसकी दूधिया आभा से नहा उठे थे, किंतु अपार रूप को स्वामिनी, नववधू के

समक्ष चंद्रमा भी स्वयं को हीन महसूस करता दिखाई दे रहा था। फाल्गुनी की

प्रतीक्षारत उनींदीं पलकें पिया दरस को व्याकुल थी। तभी किसी की पदचाप से

उसके हृदय की धड़कनें बढ़ गईं। धीमे-से पलकों को उठाया तो स्वामी के गौर

युगल चरणों के दर्शन से धन्य हो उठी। लजाते हुए सेज से उठकर उसने श्रद्धा

सहित पति की चरण रज को अपने मस्तक से लगाया ।

स्मारक के हाथ उसे आशीर्वाद देते हुए कांप उठे । फाल्गुनी नतमस्तक हो नजरें

जमीन पर गड़ाए खड़ी रही । हृदय उत्तेजना से धड़क रहा था। नुपुर बंधे, मेहंदी रचे

पांव के अंगूठे के नाखून से व्यर्थ जमीन कुरेदते हुए इस आशा में खड़ी रही कि बस

अब उसका अपनी बलिष्ठ भुजाओं में उसकी कंचन काया को समेट लेगा,

परंतु यह क्या? उस निष्ठुर ने तो मुंह फेरते हुए अपनी सध ब्याहता को आदेश दे

डाला, “रात बहुत हो चुकी है, तुम भी थक गई होगी, सो जाओ।

फाल्गुनी की अपमान से लाल हुई आंखों ने पति की पीठ देखी और वह

भरे मन से हताश और प्याकषी है चुकी दुकान लैज पर सिमट गई । कानों में सखियों की छेड़खानी गर्म सीसा घोल रही थी, ' सुन मेरी बन्नो ! दूल्हे की बांहों

में मोम-सा पिघल मत जाना। याद रखना समस्त जीवन पति को यदि नैनों के

मायाजाल में बांधे रखना चाहती है तो उसे थोड़ा भूखा और थोड़ा प्यासा रखना

जरूरी है। अपनी कई ब्याहता सहेलियों की सुहागरात के किस्से सुन फाल्गनी

के कपोल किसी लुहार की तपती भट्ठी की तरह सुर्ख हो जाया करते थे और तब

वह अपनी सुहागरात की मधुर कल्पना में डूब-डूब जाया करती थी।

स्मारक की निष्ठुरता से आज फाल्गुनी पर उसके सपनोंवाला आकाश

भरभराकर गिर गया। उसके काजलजड़ित सीप से नैन समुंदर होते चले गए। न

जाने कितनी रात तक वह निःशब्द विलाप करते-करते सो गई। रिश्ते की ननदें,

भाभियां, देवर, फाल्गुनी से अंतरंग प्रश्न पूछते तो कभी सेज पे बिछी मखमली

चादर की सलवटें गिनने बैठ जाते।

और फाल्गुनी उनके छिछोरे मजाक को सुनकर किसी कुशल अभिनेत्री-सी

अधरों पर झूठी मुस्कराहट का स्वांग रचे, बड़ी कुशलता से अपनी विडंबना और

समस्त पीड़ाओं को हृदय में छुपा लेती। संसार की ऐसी कौन-सी नवोढ़ा होगी,

जिसे रात का बेसब्री से इंतजार न रहता होगा, लेकिन फाल्गुनी को अपनी रातें

किसी विकराल विषदंत अजगर-सी प्रतीत होतीं, जो अपने ठंडे लिजलिजे पाश में

उसे कसने को मुंह बाए बढ़ता चला आता और फाल्गुनी को अपना दम घुटता

हुआ महसूस होता।

विवाह के सातवें दिन वह “आणुं' (विवाह पश्चात्‌ मायके का प्रथम फेरा)

की रस्म निभाने राजकोट आई स्मारक के साथ। मुंबई से राजकोट तक के हवाई

सफर में दोनों साथ-साथ किसी अजनबी की तरह बैठे रहे। मायके में दोनों का

जोरदार स्वागत किया गया।

सारा दिन पूजा पाठ, सत्यनारायण की कथा और रिश्तेदारों के बीच कट

गया। स्मारक को शाम की फ्लाइट से वापस मुंबई आना था। उसे एयरपोर्ट तक

छोड़ने उसके ससुर और अन्य कुछ रिश्तेदार भी आए थे। स्मारक के जाते ही

फाल्गुनी की सबसे अंतरंग और मुखरा सहेली जोगिया ने एकांत पाकर उसको

नुकीली चिबुक को उठाते हुए बनावटी शिकायत के लहजे में कहा-

“क्यों री फाल्गुनी, सासरियां जाते ही अपनी जोगिया को भूल गई? कहा

था, सुहागरात के दूसरे दिन फोन करेगी, मैं यहां इंतजार कर करके थक गई

तू है कि अपने श्याम की मुरली की धुन में अपनी जोगिया को भूल गई, क्यों

है ना?” फाल्गुनी के अधर कुछ कहने को खुले फिर कांप के बंद हो गए। “बोल

ना यार, तेरे सुहागरात के किस्से सुनने को बहुत बेचैन हूं।” कहकर जोगिया

मचल उठी तो फाल्गुनी ने अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए जवाब दिया,

“प्लीज जोगिया आज बहुत थक गई हूं, सारे दिन की भागमभाग और फिर

उपवास! चल ना कल दोपहर को इत्मीनान से बैठकर बातें करेंगे ढेर सारी, बस |

दैट्स अ प्रॉमिस, देख रुठना मत, कल पक्का आना ।” कहकर फाल्गुनी ने सांवली

जोगिया के लुनाईयुकत गालों पर चिकोटी काटी। न चाहते हुए भी जोगिया को

कल तक इंतजार करना था!

रस्मों-रिवाजों से फारिग होकर कोकिला बेन ने अपनी लड़की के कमरे में

प्रवेश किया तो फाल्गुनी ड्रेसिंग टेबल के समक्ष बैठकर अपने गीले बालों को

तौलिये से झाड़ रही थी। कोकिला बेन को बड़ा लाड़ आया। बेटी के सिर पर

स्नेह से हाथ फेरते हुए पूछा, “केम दिकरी सुखी छे ने सासरा मां?” (क्यों बेटी,

सुखी है ना ससुराल में?)

मां ने आईने में फाल्गुनी का चेहरा देखा तो फाल्गुनी ने झट से अपने चेहरे

पर खुशीवाला मुखौटा चढ़ा लिया। हँसते हुए बोली, “हां, मां! देवता स्वरूप सास-

ससुर और भोलेनाथ जैसा पति पाकर तो मैं धन्य हो गई हूं।”

फिर गीले बालों को पोंछते हुए हाथों को रोककर बोली, “मां, मेरी याद में

रोया मत करना, मैं सुखी हूं, बहुत ही सुखी हूं।'” मां ने अपने ममताभरे सीने से

बेटी को लगाकर निश्चिंत महसूस किया।

दूसरे दिन अलसाई दोपहर में फाल्गुनी अपने कमरे से सटी बाल्कनी में टंगे

बेंत के झूले में बैठी गुनगुना रही थी, “मने एकली मूकी ने श्याम क्‍या चाल्या

रे...(मुझे अकेले छोड़कर श्याम, कहां चले गए...) जोगिया ने दबे पांव आकर

की आंखें मूंद ली पीछे से आकर।

फाल्गुनी ने मुट्ठी में उसके खुले केशों को पकड़कर खींच लिया जोर से। “उई

मां! छोड़ देना प्लीज, क्या जीजाजी को भी ऐसे ही तंग करती है दुष्टा ?” कहकर

जोगिया को जकड़ लिया, पर न जाने क्यों आज फाल्गुनी का अभिनय जोगिया

कल के समक्ष फीका पड़ गया। उसने कुछ पल फाल्गुनी की आंखों को पढ़ने की

चेष्टा की तो उसे उन आंखों में वेदना और विषाद की काली छाया नजर आई।

“क्या बात है फालगु ? तेरी आंखों को बचपन से पढ़ती आई हूं और जानती

हूं ये आंखें कभी झूठ नहीं बोलतीं । सच-सच बता माजरा क्या है, तुझे मेरी सौगंध।”

फाल्गुनी का आज रोने का मन हुआ। अंदर दबाई हुई अपनी वेदना को

जोगिया के संग बांटने का जी हुआ। वह जोगिया को बांह से खींचती हुई अपने

कमरे में ले आई और दरवाजे की चिटकनी चढ़ा दी। पहले तो उसने रोकर अपना

जी हल्का किया, फिर पति की उदासीनता और उसके प्रति वैराग्य की सारी बातें

विस्तार से बताने लगी। जोगिया कुछ पल की खामोशी के पश्चात्‌ चिंतित स्वर

में कहने लगी, “तो क्‍या जीजाजी को किसी और से प्रेम है? तूने कभी टोह लेने

का प्रयत्न किया?”

फाल्गुनी ने दीवारों की तरफ नजरें टिकाते हुए कहा, “जोगिया कैसे पूछूं

उनसे। तू ही बता जिस आदमी ने अपनी पत्नी को अभी तक नजर भर के देखा

तक नहीं, उससे बातें तक नहीं हुई, फिर कैसे पूछ लूं? लोकलाज के भय से और

दिखावे के लिए यूं तो हम एक ही कमरे में रात बिताते हैं। सोफे पर वह लेट

जाते हैं और मैं पलंग पर सो जाती हूं। उनकी तो रातें कटती है-पत्रिका, उपन्यास

पढ़ने में या फिर लैपटाप लेकर सारी रात गुजार देते हैं। कमरे में किसी और के

अस्तित्व का उन्हें अहसास ही नहीं होता और मैं! सारी-सारी रात निःशब्द रोते

हुए या फिर करवटें बदलते हुए काट देती हूं।”

जोगिया सब कुछ सुनने के पश्चात थोड़ी देर सोचती रही, फिर चुटकी बजाते

हुए कहा, “सुन पगली, तेरे विश्वामित्र को रिझाने के लिए तो भई तुझे मेनका बनना

ही पड़ेगा। संसार का ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो नारी अवयवों के आरोह-अवरोह के

अनहद में डूबना नहीं चाहता? जब स्त्री की भावनाएं, उसके आंसू किसी पाषाण-हदयी,

निष्ठुर को पिघलाने में असफल हो जाते हैं, तब उसका रूप ही एक ऐसा हथियार

है, जो अच्छे-अच्छों को दग्ध कर देता है, समझी और जहां तक रूप और यौवन का

प्रश्न है तो ईश्वर ने तुझ पर कुछ ज्यादा ही कृपा की है। याद है तुझे, जब हम कॉलेज

जाया करते थे, एक लाइन में लड़के तेरी एक झलक पाकर धन्य हो उठते थे और

फिर तेरे विवाह की खबर सुनकर तो न जाने कितने लड़के देवदास बन गए।”

कहकर जोगिया खिलखिलाकर हँस पड़ी।

सांवली होने पर भी उस युवती की चंचल आंखों और तिर्यक हँसी में एक

कशिश थी, जो बड़ी सहजता से पुरुषों को अपनी ओर खींच लेती। फाल्गुनी को

सहेली की बातों से अब काफी सुकून मिला और हौसला भी।

दो दिन मायके में किस तरह कट गए, पता ही न चला। तीसरे दिन

स्मारक वापस ससुराल आया पत्नी को ले जाने के लिए। ढेरों उपहार और भीगी पलकें लिए फाल्गुनी विदा हुई। स्मारक की छुटियां समाप्त हो चुकी थी।

अस्पताल से लौटते-लौटते रात के नौ बज ही जाते।

उस दिन खाने की मेज विभिन्‍न ब्रका के व्यंजनों से अटी पड़ी थी।

फाल्गुनी ने सास से मनुहार कर रसोइए को हटाते हुए स्मारक का मनपसद हांडवा

बनाया था। जोगिया ने उस दिन उसे हँसकर कहा था, 'देख फल्गु पुरुष के दिल पर राज करना चाहती है तो उसके पेट से होकर गुजरना पड़ेगा, तभी उसकी हदय-साग्राज्ञी बन पाएंगी ।' डाइनिंग टेबल पर पति के साथवाली कुर्सी पर बैठी फाल्गुनी अपने ही दिल की धड़कनों से घबरा गई कि कहीं उसके कार्डियोलॉजिस्ट पति ने उन जोरों से धड़कनेवाली दिल की आवाज तो नहीं सुन ली? स्वादिष्ट हांडवा का मजा लेते हुए स्मारक ने गरमा गरम भाकरी (रोटी) परोसते अपने रसोइये से पूछा, “क्या बात है नटू काका! मजा आ गया। इससे पहले तो आपने कभी भी इतना स्वादिष्ट हांडवा नहीं बनाया, क्‍यों?”

सफेद मूंछों तले मुस्कराते हुए नटू काका ने कहा, “अरे नाना (छोटा)

साहेब! आज तो बहूरानी ने बनाया है हांडवा ।”

अल्पभाषी स्मारक ने कनखियों से देखते हुए फाल्गुनी से कहा, “खाना

अच्छा बना लेती हो। ” पहली बार पति के मुंह से अपनी तारीफ सुनकर फाल्गुनी

के मन की तितलियां फिर से उड़ने-तैरने को व्याकुल हो उठीं। आज उसे अंधकार

के नागपाश का कोई भय न था, वरन्‌ वह स्वयं ही गहन रात्रि में पति के बाहुपाश

में समा जाने को विचलित हो उठी थी।

कमरे में आकर उसने अपने चंपई रंग के साथ मेल खाते हुए हल्के गुलाबी

रंग का साटिन का नाइट गाउन पहना। नितंबों को चूमती मेघवर्णी वेणी को उद्दंड

लहरों सा खुला छोड़ दिया। सीप से नैनों में काजल की रेखा खींचते हुए अपने

मनमीत को सीमाबद्ध करने की उद्दाम चाह लिए वह गुनगुना उठी,

“नैना है प्यासे मेरे, प्यासा हर अंग

मैं हूं एक बरखा के बिन जलता सा... ..

स्मारक ने कमरे में प्रविष्ट होते ही दरवाजे की सिटकनी चढ़ा दी। हल्की

नीली रोशनी में उसे फाल्गुनी की उपस्थिति का अहसास न हुआ। वह इत्मीनान

से कपड़े बदलने में लीन था और फाल्गुनी आल्मारी की आड़ में खड़ी होकर मोहित-लुब्ध दृष्टि से पति का नग्न, गौर शरीर, पद्मनाभ-सी भुजाएं और लोमष

आती को अपलक निहारती रही। जीवन के इस पड़ाव में जब उसका यौवन

कंचनचंगा के उत्तुंग शिखर-सा सिर उठा मदमस्त खड़ा था, तब ऐसे में किसी पुरुष

का एकांत सान्निध्य, उसके अवयवों को इतने करीब से देखकर उस पर एक

नशा-सा छाता चला गया और फाल्गुनी किसी उन्मादिनी नदी सी साहिल की

' सीमारेखा को तोड़ने को व्याकूल हो उठी।

सहसा वह दौड़कर स्मारक से इस कदर लिपट गई जैसे कोई लता वृक्ष से

लिपट जाती है। बेतहाशा, स्मारक के बिखरे केश, उन्नत गौरे ललाट, उसके कानों

को और लोमष छाती को चूमती चली गई और फिर मरुभूमि से तपते अपने अधरों

द्वारा स्मारक के अधरों की मरीचिका से जन्मों की पिपासा तृप्त करने को तत्पर हो उठी। पति के कामुक अधर-पुट को उसने अपने नाजुक भरे-भरे गुलाबी अधरों सेbसींच दिया, परंतु उस कामांध प्यासी नववधू को पति की आंखों के क्रोध में जलते अंगारे न दिखे। स्मारक ने एक झटके के साथ फाल्गुनी को अपने से अलग करते हुए कहा, “होश में आओ फाल्गुनी, ये क्या कर रही हो तुम ! पागल हो गई हो क्या ?”

मगर फाल्गुनी आज कोई बाधा, कोई अंकुश मानने को तैयार न थी। जब

मूक याचिका बनकर उसका भिक्षा-पात्र प्रणयदान से वंचित रहा, तब उसने पति

से वह अधिकार छीनकर लेना चाहा, जिस पर उसका एकछत्र आधिपत्य था।

फाल्गुनी की आंखें सन्निपात के रोगी की तरह टेसू के फूल हुई जा रही थीं। वह

विक्षिप्त-सी अपनी कंचन-सी कमनीय काया से एक-एक कर वस्त्र उतारती चली...

गई और नदी की तरह स्वयं को समुंदर में विलय करने के लिए पति के समक्ष

विवस्त्र हो खड़ी हो गई।

“आज तुम मुझे मेरा प्राप्य दे दो। किन गुनाहों की सजा दे रहे हो मुझे

कि समुंदर के सामने खड़े होकर भी मैं प्यासी हूं?” कहकर वह किसी भिक्षुक-सी

दीन-हीन अपने आराध्य देव से प्रणय की याचना करने लगी।

परंतु यह क्या? जिस सौंदर्य प्रतिमा की एक झलक पाने को सैकड़ों जोड़े

पुरुष नैन बिछ-बिछ जाते थे, आज उसी वीनस की प्रतिमा का दर्प खंडित करते

हुए उस पाषणहृदयी ने पत्नी के पुष्प-कोमल कपोलों पर अपनी चौड़ी हथेलियों

की लाल-छाप, एक झन्‍नाटेदार थप्पड़ के साथ छोड़ दी।

नारी रूप और यौवन का ऐसा भयावह अपमान? फाल्गुनी अपमान और _

वेदना की भट्ठी में जलकर भस्म हो गई। क्षणभर पहले आया भयंकर तूफान हिमखंड-सा जम गया। स्मारक ने उसके निर्वस्त्र शरीर पर कपड़े डाले और

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल बालकनी में चला आया। फाल्गुनी अपमान और तिरस्कार की अथाह वेदना से पीड़ित हो, न जाने कितनी रात तक फर्श पर औंधी पड़ी अविरल नि: शब्द रोती रही।

रात्रि का दूसरा पहर। स्मारक एक के बाद एक सिगरेट फूंकता चला जा

रहा था। कभी स्वयं को कोसता, कभी किस्मत को धिक्कारता हुआ विचारों की

उधेड़बुन में उलझ्ककर रह गया था। उसे फाल्गुनी को थप्पड़ नहीं मारना चाहिए

था। उस बेचारी का भला क्या दोष है? आखिर पत्नी का हक ही तो मांग रही

थी एक ऐसे पति से, जो केवल शरीर से पुरुष है। अब वह उसे समझाए भी तो

किस तरह? तो क्या वह अपने किए पर माफी मांग ले? नहीं, कभी नहीं। पत्नी

से माफी मांगकर शायद वह बौना हो जाएगा। संसार के प्रत्येक पुरुष की यही

एक प्रवृत्ति समान है और वह है पत्नी से क्षमा न मांगना।

स्मारक की पुरुष काया में उसकी प्रवृत्ति भले ही स्त्रीयोचित रही हो, परंतु

इस एक जगह पर आकर उसकी मानसिकता कहीं न कहीं अन्य पुरुषों से मेल

खाती थी और वह उसका “अहं” था। शायद संसार कें प्रत्येक पुरुष की पौरुषता

की पहचान और प्रमाण उसके अहं से ही होती है। खैर, जब विचारों के

ताने-बाने से वह थक गया तो ऊबकर कमरे के भीतर पुनः प्रविष्ट हुआ।

फर्श पर औंधी पड़ी फाल्गुनी की देह निःशब्द क्रेदन से अब भी कांप रही

थी। स्मारक के कदम उसके पास आकर ठिठक गए। पति के कदमों की आहट

से फाल्गुनी एक अहम फैसला लिए उठकर बैठ गई। रुंधे गले से पूछा, “आज

आपको मेरे प्रश्नों का उत्तर देना ही होगा। आपको यदि किसी और से प्रेम था

तो क्यों मेरा इतना बड़ा सर्वनाश किया? आप तो सैकड़ों लोगों के हृदय का इलाज

करते हैं, परंतु आप स्वयं एक हृदयहीन पाषाण हैं। पत्नी को उसका वांछित

अधिकार देने का जो वचन आपने अग्नि को साक्षी मानकर लिया था तो क्‍या वह

एक मिथ्या आडंबर था? समाज के साथ छलावा मात्र था?” फिर एक तिर्यक हँसी

हसकर आगे कहने लगी, “मैंने जो कुछ भी आज किया, मुझे उसका कोई पछतावा

नहीं, क्योंकि मैंने तो वही किया, जो एक पत्नी का धर्म बनता है और प्रकृति

का भी यही नियम है, परंतु तुमने पति धर्म से मुंह मोड़कर अपनी कापुरुषता का

परिचय दिया आज |” एक सांस में बोलकर वह किसी नागिन-सी फुंकार उठी।

स्मारक का ह्रदय पत्नी के तरको-वितर्कों से कांप कर रह गया। फाल्गुनी को कंधों से पकड़कर उठाते हुए उसे बिस्तर पर बैठाया। फाल्गुनी की देह अब भी अपमान और उत्तेजना से पीपल के पत्तों की तरह कांप रही थी। स्मारक ने ठंडे पानी का गिलास खाली कर गई। उसे थोड़ी राहत महसूस हुई। अब स्मारक ने बोलना प्रारंभ किया। उसकी वाणी में विडंबना थी, पीड़ा थी। पता नहीं उस पीड़ा को फाल्गुनी ने महसूस किया या नहीं।

“फाल्गुनी सच ही तो कहा तुमने कि मैं कापुरुष हूं। मुझे तुमसे कोई

शिकायत नहीं। तुम्हारे जैसी पत्नी तो कई जन्मों के पुण्य से किसी पुरुष को प्राप्त

होती है। दरअसल में ही तुम्हारे काबिल नहीं या यू कहना उचित होगा कि संसार

की किसी भी स्त्री के ही काबिल नहीं हूं मैं, परंतु ईंसका अर्थ यह भी नहीं कि.

में नपुंसक हूं।” फाल्गुनी पति की बातें ध्यान से सुन तो रही थी, परंतु समझ

नहीं पा रही थी।

स्मारक पत्नी के भावों को ताड़ते हुए आगे कहने लगा, “फाल्गुनी, मेरे कहे

शब्दों को सुनो और उनकी भावनाओं को समझो। जानती हो, ईश्वर ने मेरे साथ

बड़ा ही भयावह और क्रूर मजाक ही तो किया है, तभी तो मैं स्वयं पुरुष के रूप

में होने पर भी किसी अन्य पुरुष की काया से ही उत्तेजना पाता हूं, बिल्कुल

सामान्य नियमों के विरुद्ध और यही सबसे बड़ी विडंबना है कि इस पुरुष काया

के भीतर समस्त वही स्त्रीयोचित गुण हैं, लालसा है, कामना है, जो तुम्हारे या .

अन्य किसी भी स्त्री के भीतर होती है। संसार की ऐसी कौन-सी नारी है, जो इस

स्त्रियोचित गुणोंवाले पुरुष को लुभा सकी? जिस प्रकार तुम पुरुष की बलिष्ठ

भुजाओं में बर्फ की तरह पिघलना चाहती हो, मैं भी ठीक उसी तरह किसी पुरुष

को आलिंगनबद्ध करके उत्तेजना का अनुभव करता हूं।”

फाल्गुनी अब कुछ-कुछ समझने लगी थी। पति को बीच में ही टोकते हुए .

कह उठी, “यानी कि तुम अ एक सम... "

“हां, ठीक समझा फाल्गुनी, (मैं समलैंगिक हूं) आई एम ए गे।"

फाल्गुनी पर आज उसके सपनोंवाला आकाश बिजली बन टूट पड़ा था।

दोनों काफी देर तक मौन रहे। ये खामोशी प्रचंड झंझावात के बाद की के थी। स्मारक ने खामोशी की परत को बींधते हुए धीमे, मगर सधे स्वर में कहना शुरू किया, “फाल्गुनी तुम मेरी तरफ से पूर्णतया आजाद हो। जानता हूं, जाने-अनजाने मैंने जो तुम्हारे साथ अन्याय किया है, उस अपराध का दंड आजीवन मुझे ग्लानि के रूप में भीतर ही भीतर खाता रहेगा, परंतु अब उपाय भी तो नहीं सूझता। चाहो तो तुम दूसरा विवाह कर एक नए जीवन की शुरुआत कर सकती हो, और तुम्हें सुखी एवं स्थापित देखकर मेरी ग्लानि का बोझ भी थोड़ा हल्का होगा।" पति की बातें किसी धारदार खंजर-सा फाल्गुनी के दग्ध हृदय को और लहूलुहान कर गईं।

वह तड़पकर बोल उठी, “नहीं, ये संभव नहीं। मैं कोई किस्मत के हाथों झूलती कठपुतली हूं, जो जब जी चाहे किसी भी दिशा में झूलती चली जाए? मेरी भावनाओं, मेरे प्रेम को समझे बगैर कितनी आसानी और निर्ममता से तुमने कह दिया तुम आजाद हो ? जानती हूं पति का सुख, बच्चों की किलकारी से समस्त जीवन वंचित रहूंगी, परंतु समाज ने तो मुझे आपकी अर्द्धागिनी का दर्जा दिया है, उस मर्यादा का पालन करना भी मेरा धर्म है, भला उस धर्म से कैसे मुह मोड़ लूं। सच्चाई जानकर समाज आपको अपनाएगा नहीं, यह निश्चित है, परंतु मैंने तो आपको ही देवता मानकर अपने मन-मंदिर में प्रतिष्ठित किया है और देवताओं के आसन नहीं बदलते

फिर एक फीकी-सी हँसी हँसकर फाल्गुनी अब मानो अपने आपसे ही बातें.

करती प्रतीत होती थी, “न जाने माता-पिता ने क्या सोचकर मेरा नाम फाल्गुनी

रखा था? तब क्या वे जानते थे कि उनकी फाल्गुनी को फल्गु नदी की तरह ही

समस्त जीवन अपनी भावनाओं और वेदनाओं को भीतर समेटे, धरती के नीचे,

निःशब्द निर्वाक होकर बहते रहना होगा। अन्य नदियों की तरह अपने आवेग,

अपनी उत्तेजनाओं को लहरों के माध्यम से व्यक्त करने का उसे कोई अधिकार

ही न होगा।

" खैर, अब तो मैं तुम्हें भी दोष नहीं दूंगी। शायद नियति की यही इच्छा है की हम दोनों एक ही छत के नीचे अजनबियों की तरह जीने को विवश रहें, परंतु समाज के द्वारा दिए गए पति-पत्नी की मान्यतां का मान तो हर हाल में

रखना ही होगा। मैंने तो तुम्हे प्रेम किया है सच्चे मन से, फिर वास्तविकता समक्ष

आने पर जो अपमान तुम्हारा होगा, उसकी पीड़ा से मैं हर्गिज तुम्हें व्यथित होते नहीं देख सकूंगी। "

स्मारक उसके तर्कों-वितरकों को सुनकर स्तब्ध रह गया। बीच में ही पत्नी को टोकते हुए कहने लगा, " पर फाल्गुनी मेरे जैसे दोहरे रूपवाले व्यक्ति की परछाई में चलोगी तो सिवाय अंधकार के कुछ भी हासिल न हो सकेगा। क्या तुम्हारा अस्तित्व मेरी पनाह में धूमिल न हो जाएगा?”

परंतु बुद्धिमति पत्नी के पास पति के प्रत्येक संशय का उत्तर था। वह बोल उठी, “किस अस्तित्व की बात कर रहे हैं आप ? वैसे भी हम भारतीय नाररियों का अपना अलग अस्तित्व, अपनी पहचान कभी थी ही कहां ? यदि राम के बिना सीता अधूरी थी तो कृष्ण के बिना राधा को कौन पहचानता भला ? हम स्त्रियों की मान-मर्यादा, असिमता सभी कुछ पति के दायरे में सीमित है। चाहे वह गले में झूल रहा मंगलसूत्र का बंधन  हो अथवा चुटकीभर सिंदूर से चमकती मांग की लक्ष्मण रेखा। अब इन्हीं बंधनों में ब्याहता का सौभाग्य या दुर्भाय बंधा हुआ है और फिर हमारे समाज में औरत चाहे जितनी भी पढ़ी-लिखी हो, कितनी भी ऊंची हस्ती क्यों न हो, परंतु आज भी परित्यक्ता स्त्री को समाज संदेह की दृष्टि से

देखता है। चाहे हम चांद पे पहुंचे हों या मंगल पे, लेकिन इस पुरुष प्रधान समाज की सोच उतनी ही संकीर्ण है, जितनी की आज से पांच सौ साल पहले थीं, क्योंकि आज भी पुरुष वर्ग किसी भी परित्यक्ता स्त्री को ही मुजरिमों और दोषियों के कटघरे में खड़ा करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। “ऑल मेन आर ब्लडी हिपोक्रेट्स ! (सारे पुरुष दोहरे विचारों के हैं)। ”

फाल्गुनी की अब उत्तेजना से सांसें फूलने लगी थीं। स्मारक हैरान और

हतप्रभ था। अब तक वह फाल्गुनी को एक अल्पभाषी, शांत युवती के रूप में ही

देखता आया था, परंतु आज उस बुद्धिमती स्त्री के तर्कों ने उसे निर्वाक्‌ कर दिया।

फिर भी उसने अपनी शंकाओं और संशय को व्यक्त करते हुए कहा, “फाल्गुनी

तुम्हारा एक-एक तर्क सही है, ये मैं स्वीकार करता हूं, परंतु मुझ जैसे व्यक्ति के

संग जीवन निर्वाह करके तुम्हें क्या मिलेगा? सिवाय एक दिशाहीन अंधकारमय

भविष्य के अलावा मैं तुम्हें दे ही क्या सकूंगा। नए सिरे से जीवन को शुरुआत

कर तुम अपना भविष्य संवार सकती हो। लोगों की सोच में फर्क आया है। फाल्गुनी, अब तो स्त्रियां पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में काम करी करती हैं और पुरुष भी पॉजिटिवली सहयोग करते हैं। तुम तो गुजरे जमाने की मेंटेलिटी की बात कर रही हो। एक उच्च शिक्षिता स्त्री होकर भी तुम्हारी धारणा पुरुष वर्ग के प्रति काफी नेगेटिव है। देखो फाल्गुनी मैं फिर कहता हूं तुमसे कि मैं तुम्हें

कुछ भी नहीं दे सकूंगा। अपनी कायरता के कारण तुमसे विवाह करके मैंने ये

घोर पाप व अन्याय किया है, उस पाप का प्रायश्चित करने का अवसर मे

उबार लो अन्यथा तुम्हें हमेशा तपस्विनी का जीवन व्यतीत करते देखा तिल-तिल कर जल मरूंगा। मुझे तुम्हारा जीवन संवारने का बस एक मौका दे दो। " कहकर स्मारक याचक की तरह दीन-हीन खड़ा रहा अपना दामन फैलाए, परंतु फाल्गुनी का निश्चय अटल था। उसने पुन: अपने पक्ष की दलीलें देते हुए कहा, " आप अपनी जगह ठीक हो और मैं आपकी भावनाओं का सम्मान करती हूं पर आप ही बताइए, आनेवाले भविष्य में यदि मैं ससुराल की दहलीज लांघने का दु:साहस कर भी लेती हूं तो क्या मुझे भी सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुजरना न होगा। सतयुग में भी राम खामोशी से सीता को अग्निपरीक्षा देते देखते

रहे और वर्तमान युग में भी प्रत्येक सीता को पति के रूप में पुरुषोत्तम राम जलते

देखते रहेंगे। क्या आप समाज के सामने मेरा हाथ थामकर कह सकेंगे कि मेरी

सीता तो पवित्र है, पर मैं मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं? आपकी समलैंगिक प्रवृत्ति के

बारे में सिर्फ हम दोनों जानते हैं, परंतु शारीरिक रूप से आप एक सीधे पुरुष हैं

और इसीलिए कारणों की खोज, उसका विश्लेषण किए बगैर आपका पुरुष प्रधान

समाज आपको तो क्षमा कर देगा, परंतु मेरा दोष? मैं इसलिए केवल दोषी ठहराई

जाऊंगी, क्योंकि औरत हूं और यही हम स्त्रियों की सबसे बड़ी विडंबना है कि

औरत होने का दंड हमें हर हाल में भुगतना पड़ता है। समस्त जीवन अपना दामन

समेटने में ही बीत जाता है कि कहीं उसके दामन में कलंक की स्याही की एक

भी बूंद भूले से न लग जाए। इसलिए मेरी आपसे बस यही विनती है कि आप

चाहे जो दंड दें मुझे, परंतु मुझे मेरा स्त्री धर्म निभाने दें।”

स्मारक जो अब तक फाल्गुनी के तर्कों को अवाक हो सुन रहा था, सहसा

अपने भीतर उसे बड़ी तीव्रता से ग्लानि एवं पश्चाताप का बोध हुआ। फाल्गुनी

आज उसकी नजरों में एकाएक महान हो उठी और उसे पत्नी के समक्ष अपने

बौनेपन का अहसास हुआ। अपनी हार स्वीकारते हुए बड़ी गंभीरता से कहने लगा,

" तुम ठीक ही कहती हो फाल्गुनी, भले ही शारीरिक रूप से मैं पति धर्म का पालन करने में असमर्थ हूं परंतु तुम्हारे पत्नी धर्म का उल्लंघन करने का मेरा कोई अधिकार भी तो नहीं। आज से हम दोनों बाहरी दुनिया के समक्ष पति-पत्नी हीरहेंगे और अपने-अपने तरीके से जीवन निर्वाह करेंगे।”

रात्रि का अंधकार छंटने की कगार पर था और आकाश रोशनी के प्रथमसोपान पर चढ़ चुका था।

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