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तीसरे लोग - 1

1.

नर्मदा नदी के तट पर जलती चिता की लपटों का आग्नेय रंग अस्ताचल में ढलते सूरज की लालिमा में विलीन होता चला जा रहा था। फाल्गुनी के विलाप के संग आज नर्मदा की लहरें भी " छाजिया " (मृत्यु पर किए जाने वाला समूह संताप) गा रही थी। उन लहरों में आज प्रणय का मधुर संगीत कहां ? बस थी तो केवल दग्ध हृदय का करुण क्रंदन। कुछ दिनों पहले तक यही लहरें साक्षी थी फाल्गुनी के प्रेम एवं स्मारक की बांसुरी से उठती मधुर तान की। शायद इसलिए लहरे आज उनके चिर बिछोह से हाहाकार करती प्रतीत हो रही थी। फाल्गुनी निर्विकार की दृष्टि से स्लेटी रंग के धुंए को देखकर एक अन्तद्रद में घिर गई, की पति का चिर-बिछोह समस्त जीवन विरह-वेदना देनेवाला शूल था या फिर सिंदूर की रेखा के छलावे से मुक्ति का अहसास ? तर्क चाहे जो भी हो उसने तो अंत:सलिला की तरह समस्त वेदनाओं और भावनाओं को भीतर समेटे रखा और पति के सम्मान, वर्चस्व, प्रतिष्ठा तथा प्रश्नवाचक पौरुषता पर आंच तक ना आने दी। फाल्गुनी ने इसे त्याग नहीं, अपना कर्तव्य और तपस्या ही तो समझकर स्त्री धर्म का पालन किया। शायद यही सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा है, जहां न तो कोई प्रेम के प्रतिदान में झोली फैलाए खड़ा याचक है और ना ही बही-खाते में प्रेम का मूल्यांकन करनेवाला व्यापारी।

" पीठी चोड़ो रे पीठी, वर नई माता....(हल्दी लगाओ हल्दी वर की माता) शायद पास के गांव में किसी कन्या की हल्दी रस्म का गीत गाया जा रहा था। फाल्गुनी एक दीर्घ नि:शवास लेते हुए अतीत के गलियारे में पहुंच गई। राजकोट शहर की विशाल हवेली " लीलसदन " पिछले दो दिनों से शहनाई, तोशे-नगाड़ों की मंगल-ध्वनि से गुंजायमान थी। पास के गांव से ढोलियों के समूह को ख़ास बुलाया गया था। ये आदिवासी ढोली गले में राम ढोल बांधे लोक गीतों को बड़े ही सुरीले स्वर में गए रहे थे। खूब रुपये वारे जा रहे थे उनके रामडोल पर और एक-एक कदम बढ़ाते ढोल बजाते हुए, रिवाज के मुताबिक पैसे न्यौछावर किए जा रहे थे, उनके बढ़ते क़दमों के साथ-साथ। आंगन में शामियाने तन चुके थे। हवेली के पिछवाड़े टंगी कनात के नीचे बड़े-बड़े देगो में पकते सुस्वादिष्ट पकवानों की खुशबू राजकोटवासियों की जठराग्नि को और हवा दे रही थी।

सौराष्ट्र से चुन-चुन कर रसोईया-महाराज अपनी फौज के साथ पधारे थे और एक के बाद एक, विशाल दहकते चूल्हों की पूजा विधि कर पाक कलाओं का जादुई पिटारा खोलते चले जा रहे थे। कभी उनके सिद्धहस्त काठियावाड़ी देसी घी में पकते मोहनथाल पर बड़े-बड़े कड़छुल मुस्तैदी से चलाते तो कभी अंगूरी बांसुदी (रबड़ी) के लिए औटाए जा रहे दूध के गाढ़ेपन को नापते। सुबह के नाश्ते की तैयारी में भावनगर और जूनागढ़ से आए काठियावाड़ी महाराज बड़ी-बड़ी पगड़ी बांधे जुटे हुए थे। देसी घी में मूलजीभाई के निपुण हाथ गरमागरम लच्छेदार जलेबियां छानकर गरम चाशनी में उतार रहे थे तो रावजीभाई के हाथ व्यस्त थे गज-गज भर लंबे फाफड़ा तलने में। (गुजरात की प्रसिद्ध बेसन की नमकीन)। रिश्तेदारों के समूह अपने-अपने गुटों में बंट शामियाने के नीचे कुर्सियां फैलाए बैठा था। कुछ मीन-मेख निकालने में तत्पर थे तो कुछ परनिंदा-परचर्चा में जुटे थे। बुजुर्ग रिश्तेदार अपने धार्मिक पंथों और गुरओं के वर्चस्व का बखान करने में व्यस्त थे तो कहीं राजनीति पर बहस-चर्चा छिड़ी थी। युवाओं का समूह संगीत प्रेमी जान पड़ता था। बाकायदा तबले-हारमोनियम की संगत में महफिल जम चुकी थी। संगीत विश्वविद्यालय से सघविशारद कर आई जोगिया ने ठुमरी की तान छेड़ी।

" खुल-खुल जाए बाजूबंद, जादू की पुड़िया भरभर मारी,

हे बाजूबंद खुल खुल जाए.....

तो जवाब में मैलिन पंडया ने अपने मंजे गले से दादरा का मुखड़ा शुरू किया, " तड़प-तड़प जिया जाए सांवरिया बिना, गोकुल छाड़े मथुरा में छाए, किन संग प्रीत लगाए..। "

मसालेवाली खालिस दूध की बनी चाय से सब अपना गला गर्म कर कातिल ठंड को भगाने का जतन कर रहे थे। लीलासदन के मालिक यानी शहर के सबसे बड़े जौहरी सेठ भीमजीभाई, कानजीभाई अपने बुंदेलखंडी विभाजित दाढ़ी को एक हाथ से सहलाते हुए और दूसरे से सोने की मूठवाली घड़ी को शान से हिलाते विवाह की तैयारियों का निरीक्षण कर रहे थे। साथ में उनका सेक्रेटरी हंसमुखभाई हाथ में फाइल धरे हैरान-परेशान-सा घूम रहा था। " हंसमुख ! अभी और क्या-क्या बाकी रहा ? जनवासे की तैयारियां में देखना कोई कमी-कसर न रह जाए और हां ! प्रत्येक बाराती की पसंद- नापसंद की लिस्ट एक बार फिर चेक कर लेना। " हंसमुखभाई ने सेठजी को बीच में टोकते हुए कहा, " बापजी ! तमे जराय चिंता ना करता (आप बिल्कुल चिंता ना करें) मां अंबे की कृपा से सब कार्य धूमधाम से संपन्न हो जाएगा। " अरे भलामाणस ! दीकरी ना लगन छे वरी चिंता तो थायज ना। " (अरे भले आदमी लड़की की शादी है भाई चिंता तो होगी ना) सेठ भीमजी भाई ने जेब से रुमाल निकालकर माथे पर झलक आए पसीने को पोछतें हुए कहा उनकी कन्या फाल्गुनी आज सप्तपदी के बंधन में बंधने जा रही है। गंधर्व कन्या सी रूपवान, पुण्डरीकाक्षिणी, वासवदत्ता सी क्षीण कटि की स्वामिनी फाल्गुनी के रूप की चर्चा पूरे शहर में थी।

पीठी (हल्दी रस्म) की तैयारी शुरू हो चुकी। फाल्गुनी को उसकी सहेलियों ने पकड़कर बाजोट (मंगल पीढ़ी, जिस पर बैठकर हल्दी रस्म की जाती है) पर बैठा दिया तथा औरतों उसे घेरकर बैठ पीठी गाते हुए उसकी धुली हुई चांदनी-सी काया को कुंदन-सा पीतवर्णी करने उतावली हो उठीं।

"पीठी चोड़ो पीठी रे, वरनी माता,

घाणी पीलो घाणी रे, वरनी माता, मारा ना ना होंसीला...."

पीठी के साथ जो हंसी- ठिठोली का माहौल अश्लीलता की सीमारेखा को रह-रहकर लांघने लगा, उन्हें सुनकर फाल्गुनी बेचारी लाज से गठरी हुई जा रही थी। अमेरिका से आई उसकी बुआ, जीवन के सत्तर बसंत देखने के बावजूद कम रसिया ना थी। विलासिता और अपार दौलत के साथ-साथ कूल्हों पर भी चर्बी की परत चढ़ती चली गई, लेकिन जो उन्होंने अपने विशाल उदर और कूल्हों को मटकाकर नाचना शुरू किया की घर की बहुएं, बेटियां मुंह में पल्लू ठूंस के हंसती हुई एक-दूसरी पर गिरती-पड़ती रही। "फिर बुआ ने कत्थे-चूने से सने होठों को गोल करते हुए कहा, " ए छोकरी सुन, दूल्हे को पहली ही रात में सब मत देना। मरद को थोड़ा भूखा, थोड़ा प्यासा रखना चाहिए, समझी। पहली ही बार सब भरपेट खिला देगी तो दोबारा देखेगा भी नहीं तेरी ओर। और सुन ! उसे आंखें फाड़-फाड़कर पहली रात में देखते ना रहना।

" फोई शुं तमे पण " (बुआ क्या आप भी !) कहकर फाल्गुनी ने हया से अपनी श्वेत ग्रीवा झुका ली। मेघवर्णी , नितंब चुंबी अलकों का ढीला जुड़ा रह-रहकर फाल्गुनी की सखियां जितना भी समेटकर बांधने का जतन करती उतनी ही तत्परता से उसकी उद्दंड लहरों सी केश-राशि बंधन तोड़कर उसके कंधों से टकराकर खुल-खुल जाती।

अपने अठ्ठारवे बसंत में जिस श्याम ने चुपके से आकर उसके हृदय में मुरली बजाई थी, उसी शाम के साथ आज तीन वर्ष पश्चात वह राधा बनी प्रणय हिंडोले में संग-संग झूलने की बेला का इंतजार कर रही थी। लगभग तीन वर्ष पूर्व शहर के टाउन हॉल में ध्रुपद महोत्सव का आयोजन किया गया था। अनेक बड़े-बड़े नामचीन संगीतज्ञाों में डॉ. स्मारक भी निमंत्रित थे। पेशे से सर्जन डॉ. स्मारक, ध्रुपद गायकी एवं बांसुरी वादन के छेत्र में जाने-माने संगीतविद, फाल्गुनी के पिता के करीबी मित्र सेठ चिमनलाल के पुत्र थे। शहर में होने वाले प्रत्येक जलसे में सेठ भीमजीभाई यानी फाल्गुनी के पिता खास आमंत्रित होते थे। कारण बहुत सरल है, लाखों की चैरिटी उनके खाते से जाती थी ऐसे समारोहों पर।

और फाल्गुनी पर तो लक्ष्मी-सरस्वती दोनों ही मेहरबान थी। जैसा अपार रूप वैसा ही मधुर कंठ पाया था उस रूपगर्वित ने।

स्मारक ने बांसुरी पर जब राग यमनकल्याण का थाट शुरू किया तो फाल्गुनी की हृदयवीणा के समस्त तार, मंद्र सप्तक से लेकर तार सप्तक तक झाला-वादन करने लगे। फाल्गुनी कुछ सुन रही थी ? वह तो बस मुग्ध द्रिष्टि से उस कामदेव की प्रतिमा को निहार रही थी। सुदर्शन काठी, खुजराहो की प्रतिमा सी गढ़ित सुतवां नाक, कमान से खींची भौंहों के नीचे मनिकजड़ित चक्षुओं की युगल जोड़ी और कामुक रसीले अधरों के ऊपर दुधारी तलवार सी राजपूताना मूंछें। उन्नत गौरवर्णी ललाट पर गंगा की उच्छृंकल लहरों सी अठखेलियां करते घुंघराले केशवाले उस कामदेव की प्रतिमूर्ति को देख फाल्गुनी के मन की रति मोहित हो थिरक उठी। फाल्गुनी इस बात से अनभिज्ञ थी कि दोनों परिवारों ने मित्रता को समधियाने में परिवर्तित करने का फैसला तो बरसों पहले ही कर लिया था और ये समारोह एक माध्यम था स्मारक और फाल्गुनी का एक दूसरे से परिचय कराने का।

संगीत सम्मेलन की समाप्ति पर फाल्गुनी अपने माता-पिता के संग स्मारक से मिलने गई। उसके हौले से कहे नमस्ते का उत्तर स्मारक ने जब मुस्कुराकर दिया तू फाल्गुनी के हृदय में उसका मधुर स्वर कोमलनिषाद-सा बज उठा। उसके कर्ण-चुंबी चक्षु हया से गुलाबी हो उठे।

पीठी चोड़ो रे.. रंग-बिरंगे बाजोट (मंगल पीढ़ी) पर हया की गठरी बनी बैठी फाल्गुनी को उसकी सहेलियां हल्दी का उबटन लगा रही थीं। मुंहजोर चपला सखियां उसकी मुट्ठीभर गोरी कमर पर चिकोटी कंटती तो कभी बेहयाई से उसके उन्नत वक्ष स्थल पर हल्दी मलते हुए कानों में कुछ फुसफसाती और फाल्गुनी उनकी अश्लील टिप्पिणियों को सुनकर अबीरी-सिंदूरी हो उठती, मारे लाज के। हल्दी-रसम संपन्न होते ही औरतें आंचल में "खारक" (रस्म में दिए जानेवाले छुआरे) बांधे अब चलने लगी थीं।

फाल्गुनी को दुल्हन के रूप में आपाद-मस्तक सजाया जा रहा था। वैभवशाली साधन-संपन्न पिता ने अपनी नाजो-पली पुत्री को आज हीरे, माणिक, पन्ना, सोना में तोलकर उसी में मढ़ दीया था। कपड़ों के व्यवसायी धनाढय मामा के घर से " मामेरु " (मामा के घर से आए गहने) में बेशकीमती गहने-माणेक स्तंभ, दामणियों और किडियासेर पहने फाल्गुनी किसी इंद्रलोक की अप्सरा सी दिख रही थी। बेजोड़ "पाणेतर" (गुजराती वधु का वस्त्र) में लिपटी उसकी कंचन काया सप्तदी के लिए संपूर्ण रूपेण तैयार थी।

द्वार पर बाजे-गाजे के संग बारातियों का आविर्भाव हो चुका था। घोड़ी पर सवार किमखाब की बनी मयूरपंखी रंग की शेरवानी पहन और मस्तक पर " उपरणू " (सेहरा) बांधे, युगल चरणों को स्वर्णमंडित मोजड़ी में कैदकर आज स्मारक सबके स्वप्न्लोक का राजकुमार लग रहा था। सजीले दूल्हे की एक झलक पाने को घरभर कुंवारी लड़कियां, भाभियां, सब एक-दूसरे पर गिरी पड़ी जा रही थी। " आय हाय ! कोई नी नजर ना लागे, केटला व्हाला देखाए छे वर राजा। " (किसी की नजर ना लगे, कितना सुंदर दिख रहा है वर राजा) भावनगरवाली संतोष फोई (बुआ) ने अपने दैत्याकार कूल्हे से धकेलते हुए सारी कुवांरी कन्याओं को खदेड़ते हुए मीठी झिड़की दी, " अरी ओ छोकरियों चालो चालो खसो पाछड़। " (लड़कियो चलो चलो हटो पीछे)।

तो जामनगर से आई भीमजीभाई की बूढी चाची, अपने माथे पर पल्लू खींचते हुए पोपले मुंह से दूल्हे की बलाइयां लेकर उंगलियों को माथे पर चटकाते हुए बोल उठी, " जीवतो रह जंवाई राजा, तने मारी उमर पणलागी जाए। " (जीता रह जमाई राजा, तुझे मेरी उम्र भी लग जाए) एक से बढ़कर एक गोटेदार जामनगरी " चणीया चोली " पहने और कच्छी हाथ काम के रंग-बिरंगी बांधनी चुनरिया लहराते फाल्गुनी के रिश्ते की बहने दौड़तीं, हांफती उसके कमरे में प्रविष्ट होते हुए चिल्लाई " फाल्गुनी बेन, फाल्गुनी बेन, वर राजा पधारया छे, उपरणा बांधी ना तो खरेखर कनुड़ो लागे छे। " (वर राजा पधार चुके हैं, सेहरा बांधकर तो सचमुच कन्हैया लग रहे हैं) फाल्गुनी के मन-मंदिर में स्मारक के नाम की मुरली बज उठी और साथ ही अति व्यस्तता और व्यग्रता के साथ उसके रिश्ते की चाची, मांमियां, भाभियां और सहेलियां मंगल गीत गाते हुए फाल्गुनी को विवाह-बेदी पर ले जाने लगी—

" नाना वटी रे साजन बेठू मांडवे,

लाखोंपति रे साजन बेठू मांडवे,

एवा भरी सभा ना राजा, एवा नानावटी बैठु मांडवे.... "

फाल्गुनी की मां कोकिला बेन विवाह की व्यस्तता के बीच भी रह-रहकर अपनी लाडली कोखजायी को नजर भर देख जाती और उसका ममतामयी ह्रदय बिदाई की कल्पना से सिहर उठता। एक के बाद एक रस्मों का सिलसिला शुरू हुआ। पहले हस्तमिलाप, फिर मंगलसूत्र और उसके पश्चात सप्तपदी।

विदाई की घड़ी भी आप पहुंची और इस विदा बेला में मां कोकिलाबेन को बरसों पहले पढ़ी हुई कवि ऋतुराज की एक कविता " कन्यादान " की कुछ पंक्तियों का स्मरण होते ही वह बेटी को वक्ष से लगाए उसके कानों में भरीए कंठ से बुदबुदा उठी--

" पानी में झांककर अपने चेहरे पर मत रीझना,

आग रोटियां सेंकने के लिए है, जलने के लिए नहीं

वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह,

बंधन है स्त्री जीवन के... "

भीमजीभाई ने कलेजे पर पत्थर रखते हुए बड़ी मुश्किल से अपने आंसुओं पर काबू पाते हुए कहा, " जा बेटी, जिस घर में राजरानी बनकर जा रही है, वहां देवता जैसे सास-ससुर तुझे पलकों पर बिठाए रखेंगे, पर याद रखना, जिस खानदान की बेटी है तू, उस खानदान की मान-प्रतिष्ठा बनाए रखना। पति के सम्मान और ससुराल की मान-मर्यादा पर कभी कलंक का टीका न लगे। तू एक क्षत्राणी है क्षत्रिय नारी अपने सुहाग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व के लिए जान की बाज़ी तक लगा देती है। " फाल्गुनी की सास हँसा बेन ने अपनी अंतरंग सहेली और समधन के आसुओं को पोंछते हुए हौसला दिया " कोकिला बेन, आप निश्चिंत रहो। बस यूं समझ लो की फाल्गुनी एक मां के घर से विदा होकर दूसरी मां का घर संवारने जा रही है। आज से उसकी दो मां और दो पिता है। " कोकिला बेन के ह्रदय का बोझ हल्का हुआ समधन के वचन से।

मुंबई के वर्सोवा के पॉश इलाके में नववधू के भव्य स्वागत का सेठ चिमनलाल वेलजीभाई की विशाल दोमंजिला कोठी " तुलसी निवास " आज दुल्हन की तरह सजाई गई है। नए रिश्तों, नूतन परिवेश के बीच फाल्गुनी को सुबह से ही कई रीति-रिवाजों के पायदानों से गुजरना पड़ा था और अब वह बेला भी आ पहुंची जब अपने देवता के दर्शन एवं स्पर्श से पारस बनने को है उद्विग्न थी। पाटन की दुर्लभ सुर्ख पटोला साड़ी में लिपटी फाल्गुनी, रजनीगंधा, जूही, चंपा और मोगरे के तोरण से सुसज्जित विशाल संखेड़ी पलंग पर घुटनों में अपनी नुकीली गौर की चिबुक को सटाए पिया मिलन की बाट जोह रही थी।

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