तीसरे लोग - 2 Geetanjali Chatterjee द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तीसरे लोग - 2

2.

वो-जनखा-सा देखनेवाला छोकरा किसना आज फिर गली के नुक्कड़ पर मसखरी करते आवारा लड़कों के बीच घिर गया। "अय ! हय ! ए किसना ! उफ ! तेरी चाल तो किसी दिन हम सबकी जान ले लेगी। " तो दूसरा टुच्चाई शक्लवाला छाती पर एक हाथ धरे, किसना कौन रखा रे, तेरा नाम तो राधा होना चाहिए था राधा, क्यों भाई लोग ?" कहकर उसने अपने बाईं आंख दबाई तो बाकी लड़के उसके इस भद्दे मजाक पर मुंह फाड़े हंसने लगे। एक और शोहदा-सा दिखनेवाला लौंडा, उसने कुछ ज्यादा ही जोश दिखाते हुए किसना की कमर में चिटकोटी काटी, " ऐ मौगा, चल तो जरा अपनी कमरिया लचका के नाच दिखा। " और फिर तो सारे मवाली लड़के उस गरीब को घेरे नाचने लगे, " तौबा ये मतवाली चाल होय ! झुक जाए फूलों की डाल होय !" और गाने के साथ अपनी तर्जनी और अंघूठे को जीभ के तले दबाकर फिउ-फिउ की सीटियां भी बजाने लगे। एन वक्त पर यदि मिसिर चाचा न आए होते तो न जाने उस अभागे को और क्या-क्या अपमान झेलना पड़ता। मिसिर चाचा ने अपनी चांदी की मुठवाली घड़ी को हवा में घुमाते हुए आवारा लड़कों को वहां से खदेड़ा।

" ऐ छोकरो ! काहे तुम लोग उस गरीब की जान के पीछे पड़ा है। चलो भागो इहां से हरामखोर कहीं के। " सारे लड़के सिर पर पांव रख भाग खड़े हुए। मुहल्ले और समूचे इलाके में मिसिर चाचा के रुतबे और रौब का दबदबा था।

राजनीति उनका नशा और पेशा दोनों ही थी। लोकसभा का चुनाव भी जीत चुके थे एक बार और अब विपक्ष में रहकर काम संभाल रहे थे। दोऊ हाथ उलीचिए पर विशवास करते थे और और शायद इसीलिए दोनों हाथों से पैसा कमाते भी और लुटाते भी। लगभग पैसंठ पार की उम्र, लेकिन नियमित मालिश और वर्जिश से अब भी पचपन के ही दीखते। उनकी भी अपनी एक कहानी है, जिसका जिक्र हम बाद में करेंगे।

किसना की हरिणशावक-सी आंखों में अपमान का सैलाब उमड़ आया। गोरे गाल प्रताड़ना की भट्ठी में दहकते अंगार हो उठे। बजाय सौदा खरीदने के, वह नीची नजरों कर तीर की तरह वहां से निकल, घर वापस आ गया।

अम्मा सुरसतिया, पपीते के ड़ंठल से फूंककर ठंडे पड़ते चूल्हे के कोयलों को सुलगा फिर देहरी पर आकर पुत्र की बाट जोहने लगी। आटा गूंथने के लिए जब कनस्तर खोला तो देखा छटांकभर आटा पड़ा है तले में। इसलिए उसने किसना को चक्की पर आटा लाने भेजा था। वह बड़बड़ाती रही। " अभी तक तो आ जाना चाहिए था, न जाने छोकरे को आज इतनी देरी क्यों हो रही ? फिर बेचैनी से उठाकर गली के छोर तक अपनी मोतियाबिंदावली आंखो से नजर डालने का प्रयत्न करती। दोबारा रसोई में आकर धीमी पड़ती आंच को ड़ंठल से फूंककर जिला ही रही थी की किसना चुपचाप अम्मा के पीछे सिर झुकाए आ खड़ा हुआ। बड़बड़ाती हुई वह पीछे मुड़ी ही थी की किसना को अचानक से देख चौंक उठी।

" अरे कब आया बिटवा ! और हाथ खाली काहे है रे ? " किसना अपराधी-सा चुपचाप ही रहा। अम्मा ने उसके कंधो को झकझोरकर, फिर घबराकर पूछा।

" अरे बोलना रे, का हुआ ? " किसना की आंखों से टप-टप बूंद ढुलककर अम्मा के पांव भिगो गई।

सिहर उठी सुरसतिया। संतान की पीड़ा समझने को सृष्टि की किसी भी जननी को किसी शिक्षा अथवा भाषा की जरुरत नहीं पड़ती। किसना ने रुंधे गले से कहा, " बस्स ! बहुत हुआ अम्मा, अब हम हियां न राहिब। गली का सब लड़का लोग हमका बहुत सताए आज। जनखा, जनखा कहके हमार मसखरी किया। ऊ तो मिसिर चाचा आय के बीच-बचाव किए, नहीं तो रामजी जाने आज हमार....."

सुरसतिया की अनुभवी दृष्टि सब ताड़ गई। उसने लाड से अपने बेटे को ममतामयी छाती में भींच लिया और धोती के छोर से उसका आंसुओं को पोंछ उसे ढांढस बंधाती रही।

ले-देकर , संसार में सुरसतिया की यही तो एक पूंजी थी किसना। किसना के बापू को परलोक सिधारे जमाना हो चला था। तब किसना को कोख में धरे सातवां महीना चढ़ा था सुरसतिया को। खेत में एक दिन किसना के बापू दरांती से गन्ने की खड़ी फसल काट रहे थे की झुरमुट में कुंडली मारे बैठे जहरीले भुजंग की पूंछ पर दरांती हाथों से छूटकर जा लगी। बस, फिर क्या था। चोट खाए फणीधर ने फुंकारकर ऐसा विष दंश दिया सुरसतिया के सोहाग के बाएं पैर पर की पलभर में शरीर स्याह होकर ऐंठ गया। ना तो मुंह से आह निकल सकी और ना ही पानी मांग सके। ' राम नाम सत ' के मंत्र के साथ अर्थी उठी। एक ओर तो वह सध विधवा मूर्छा खाकर वहीं धड़ाम से फर्श पर बिछ गई पेट के बल और ऊ ऊ आ.. के प्रथम क्रंदन के साथ सतमासे किसना का रुदन भी अपने बाप की उठती अर्थी पर सियापा कर उठा।

सुरसतिया के दुर्दिनों की उलटी गिनती शुरू हो चुकी थी। ससुराल से ' डायन, कुलीछन, खसमखाई, रांड.... और न जाने ऐसी कितनी ही उपमाओं का अलंकार माथे लिए सुरसतिया अपनी सूनी मांग, रिती कलाइयां, श्वेत वस्त्र और दुधमुंह किसना को छाती से शहर चली आई। जहां भी मजूरी-काम की तलाश में जाती, वहां के ठेकेदारों और मुनीमों की नजरें उसकी दूध उतरी छातियों से बात करतीं। देश-दुनिया आज जहां चांद और मंगल पर पहुंचकर इतनी तरक्की कर गए हैं, वहां क्यों पुरुषों की मानसिकता संकीर्ण सोच की गलियों में ही अटकी पड़ी है ? सुरसतिया अनपढ़ देहातन थी अवश्य, पर थी तो औरत। खूब पहचानती थी मर्दों की आंखों में झूलते उसके अवयवों को तौलनेवाले तराजू को। सचमुच आज भी भारतीय समाज में स्त्री के लिए वैधव्य से बड़ा कोई अभिशाप नहीं। विडंबना का ये कैसा विरोधाभास है कि एक पुरुष से अपना दामन बचाने के लिए उसे दूसरे पुरुष का दामन थामना पड़ता है।

ऐसे ही भादों कि एक दोपहर में भूख से सुकुड़ी अंतड़ियों को पेट में समेट और किसना को आंचल में लपेटे वह निरुद्देश्य दिशाहारा हो संगम के किनारे भटकते हुए, कमजोरी के चलते मूर्छित हो तपते रेत पर पड़ गई। भूख से बिखलते किसना कि ऊं... आ... का आर्तनाद पास से गुजरते एक बुजुर्ग बंगाली दंपती के कानों में पड़ा, जो शायद संगम में डुबकी लगाकर लौट रहे थे। मूर्छित जननी की छातियों में दूध की तलाश में मुंह मारते शिशु को देख कानों में जनेऊ लपेटे बनर्जी बाबू और उनकी स्त्री का कलेजा देहल उठा।

"ओ मां की काण्डो, ईश ! बाच्चा टार गला शुकिये गेलो जे कांदते-कांदते। आहा रे ! मां अज्ञान होय पोडे गेछे मोने हाय (ओ मां यह क्या घट गया ? बच्चे का गला सूख गया रोते-रोते। हाय ! रे मां बेहोश होकर गिर गई लगता है) कहकर उस ममतामयी स्त्री ने नन्हे किसना को गोदी में उठाकर छुप कराने का जतन किया। किसना उस ममता की पनाह में आते ही चुप हो गया और नन्हा अंगूठा चूसता हुआ बिटिर-बिटिर उस दयामयी की ओर देखता रहा। बनर्जी बाबू ने कमंडल से संगम जल के छीटें मारे उस अबला के चेहरे पर तो उसकी मूर्छा भंग हुई। टूटी-फूटी बंगला-मिश्रित हिंदी में उस स्नेही सज्जन ने सुरसतिया के माथे पर हाथ फेरते हुए पूछा, " ऐई जे मां, तुमरा नाम क्या हाय ? किधार (किधर) में रहता हाय (है) कोई असुविधा नई हाय तो हमको बताने को सकता है ?"

पितातुल्य स्नेही सज्जन के वात्स्ल्यपूर्ण शब्दों को सुन सुरसतिया स्वंय को रोक न सकी और कई दिनों की सही वेदना का सैलाब उसकी गाय जैसी निरीह आंखों से बहता चला गया। उसे रोते देख बनर्जी साहब फिर बोल उठे, " एई देखो ! आबार कांदे बोका में। " (ये देखो फिर रोने लगी बुद्धू लड़की) पत्नी ने उन्हें इशारे से समझाया की उसे रोने दो, जी हल्का हो जाएगा। स्वंय को थोड़ा स्थिर करने के पश्चात सुरसतिया ने अपनी आपबीती सुनाई। इशवर इतना भी निष्ठुर नहीं है। कभी-कभी ऐसे दिशाविहीन संबलविहीन मनुष्य का हाथ थामें अपने उदारवादी रूप का परिचय दे ही देता है। बनर्जी दंपति के घर में अब उस बेसहारा विधवा को आश्रय मिला और रसोईघर की जिम्मेदारी उसने ऊपर ले ली।

उन भद्र महाशय की अर्द्धांगिनी पारुल देवी के स्नेह की शीतल छाया में सुरसतिया पुन: जी उठी। बंगाली मसालों के दुर्लभ मिश्रण-मांस-मछली, शक्तो, चच्चडी से लेकर मुड़ी घंटों छेनार पायेश, सब कुछ उसने इतनी त्तपरता और लगन से रांधना सीख लिया, मानो बरसों से इन्हीं संस्कारों और परिवेश में रही हो। पहले पहल तो सरसतिया को मांस-मंछली की गंध से उबकाई-सी आती, मछलियां तलते, पलटते अक्सर वे टूट-टूट जाती, परंतु पारुल देवी बड़े स्नेह से उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहती, " एई जे, तोर अनेक आशुबिधे होच्छे, ताई ना ? किंतु की कोरबो बोल, माछ छाड़ा तो आमार गला थेके भात नाबेना, शाधोबा मानुष। " ( ये लो, तुझे बहुत असुविधा हो रही है, है ना ? किंतु क्या करुं, बिना मछली के तो मेरे गले से भात का कौर नहीं उतरता, सधवा औरत हूं। ) (बंगाल में सधवा औरतों का मछली खाना अनिवार्य और शुभ माना जाता है अपने सुहाग की खातिर ) मछली तलना और तलते वक्त कायदे से पलटना भी एक कला है, जो सुरसतिया अब सीख चुकी थी। खुशमिजाज पारुल देवी जर्दा-पान अपने गालों में दबाए भुवनमोहिनी हँसी की छटा बिखेरते हुए प्राय: कोई श्याम संगीत (काली का भजन) गुनगुना उठती। अद्भुत कंठ पाया था उस काली भक्तिन ने ----

" इच्छामयी तारा तूमी, तोमार कर्म तुमी करो मां.... शंखध्वनि के साथ सांध्य पूजन समाप्तकर पारुल देवी मुंह में बनारसी जर्दा पान की गिलौरी धरे हारमोनियम लेकर बैठ जाती। रसगुल्ले-सी मिठास लिए उनका कंठ-स्वर आरोह-अवरोह में चाशनी की तरह ही घुलमिल जाते। रकित्म आलता-जड़ित युगल चरणों में बैठी सुरसतिया की आंखों उनके गीतों की वेदना से भावविभोर हो अविरल बहती चली जाती। सच ही तो है, संगीत, भाषा, जाति से परे है। कभी-कभी पारुल देवी सुरसतिया के सांवले चिबुक को उठाते हुए आग्रह करती, " लोक्खी टी (लक्ष्मी जैसी) तुमरा नाम सुरसतिया है और सुरसतिया का मायने है सरस्वती। तो जिसका नाम ही सरवस्ती है, उसको तो गाना आता ही होगा। एक ठो गान (गाना) गाओ तो मां। " और सुरसतिया को याद आते अतीत के गुजरे वो प्रण्यभरे दिन जब उसका पति जीवित था। खेतों में काम करते हुए जब जेठ की भरी दोपहरी में किसी अमराई की छांव तले अपनी नई-नवेली दुल्हन यानी सुरसतिया की गोदी में सिर रखकर उससे मनुहार करता।

 

" ए सुरो एगो बिरहा या कजरी गाय के सुनाय हो ? और सुरसतिया सकुचाते हुए अपने घूंघट को और खींच लेती और 'चेती' का मुखड़ा शुरू करती।

'चढ़ल चइत चित लागो ना रामा बाबा के भवनवा

कब होइ है पीया से मिलनवा हो रामा ....'

और गाने को बीच में अधूरा ही छोड़ उसका पति बंसीधर मौका पाते ही पत्नी का घूंघट उघाड़कर उसके संतरे की फांको से रसीले अधरों चूस लेता। वह धत्त कहकर भाग जाती वहां से।

पारुल देवी उसे झकझोरकर पुन: वर्तमान में खींच के ले आई। " की होलो, की भाबाछिलिश ?" (क्या हुआ, क्या सोच रही थी) और सुरसतिया बड़ी चालाकी से मधुर स्मृतियों से भीग आईं पलकों को छुपाकर बाईं हथेली कान पे धरे विदाई गाने बैठी---

" काहे को ब्याहे बिदेस, अरे लखिया बाबुल मोरा ... "

अब किसना चलने-फिरने लगा था और तोतली जबान से अम्मा, दादा, दादी की रट से सारे घर के प्राणियों की आंखों का तारा बन चुका था। बनर्जी महाशय इस प्रयागनगरी इलाहाबाद में एक लॉज के मालिक थे। एक ब्याहता बेटी थी, जो कोलकाता में अपने संयुक्त परिवारवाले ससुराल में सुखी जीवन बीता रही थी। वर्ष में एक-दो बार मायके आती तो खासकर किसना के लिए ढेरों उपहार भी उठा लाती। किसना भी मासी, मासी की रट लगाए उसकी गोदी में टंगा रहता और मैत्रेयी (बनर्जी बाबू की बेटी) सुरसतिया से कहती, " ए सुरसतिया तू तो सांवली, पर तेरा किसना तो दूध का कटोरा है री। बिलकुल अप्सरा है, लगता है भगवान् ने इसे लड़की बनाते-बनाते लड़का बना दिया। " सुरसतिया मैत्रेयी दीदी की बांतों को मजाक में लेती, पर अभागी अंजान थी इस बात से की विधाता स्वंय उसके किसना से ऐसा वीभत्स मजाक करेंगे, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी।

 

दिन-महीने गुजरते चले गए, बनर्जी महाशय के रोग-व्याधि भी उम्र के साथ-साथ बढ़ते रहे और फिर एक दिन नींद में ही हार्ट-फेल से परलोक सिधार गए। उस भले आदमी के जीवन में कभी किसी चींटी को भी गलती से रौंदा ना होगा, वह अंत समय में भी बिना किसी को कष्ट-यंत्रणा दिए इस प्रकार चुपचाप निकल जाएंगे अनंत यात्रा के लिए, ये पारुल देवी ने कभी सोचा भी न था। वैधव्य ने उनकी सिंदूर से दप-दप करती, गंगा के पाटों-सी चौड़ी मांग को मरुभूमि की सुनी पगडंडी बना दिया। कत्था-चुना की लालिमा लिए रक्तिम अधरों पर विषाद की पपडियां जम गई। पारुल देवी ने सुरसतिया के नाम पुराने मुहल्ले का दो कमरावाला मकान कर दिया और बाकी सब कुछ बेटी के नाम पर, सिर मुंडवा के काशी चली गई थी। " माईजी, हमका भी साथ ले चल, हम तो अनाथ हो गए माईजी ले चल। " परंतु पारुल देवी ने मानो समस्त मोह- माया का बंधन तोड़ सन्यासिनी का रूप धार लिया था। सीने में पथ्तर रख, बिना पीछे मुड़े वो चुपचाप तांगे में बैठ गई। सुसतिया और किसना दोनों रोते-रोते गली के नुक्क्ड़ तक तांगे के पूछे भागे थे उस दिन।

किसना की उंगली थामे और अपना थोड़ा-सा असबाब लिए वह इस मुहल्ले में चली आई। छत की व्यवस्था सिर के ऊपर तो हो ही गई थी और इतने बरसों में सुरसतिया ने थोड़ी-बहुत पूंजी भी जमा कर ली थी। परुलदेवी ने उसके नाम का खाता खुलवा दिया था डाकखाने में। काशी जाने के पहले उन्होंने बार-बार सुरसतिया को हिदायत दी थी की जैसे भी हो किसना को अवश्य ही स्कूल भेजे। सो, पास की ही एक सरकारी पाठशाला में किसना की भर्ती कराई गई। किसना को स्कूल भेजकर सुरसतिया भिन्न-भिन्न प्रकार की बड़ियां और अचार बना-बनाकर घर घर फेरी लगाती।

गली के दूसरे लड़के जब गिली-डंडा, सतोलिया, क्रिकेट अथवा कंचे खेलते, तब किसना अपनी हमउम्र लड़कियों के संग गिटटे खेलता या रस्सी फांदता। लड़के झाड़ू की तीलियों से धनुष-बाण बनाकर अर्जुन और राम बने फिरते तो किसना सुघड़ गृहिणीकी तरह सलाइयों में फंदे डाल अम्मा का नाप लेकर स्वेटर बुनने में व्यस्त रहता। कमाल की लखनवी ककड़ियों-सी करामाती उंगलियां थी छोकरे की, परंतु सुरसतिया जो उसकी जन्मदात्री थी, उसे पुत्र के लक्षण शंकास्पद लगने लगे थे। पंद्रह वर्ष की वयसंधि में किसना के हमउम्र लड़कों की मूंछें की लकीरें उभरने लगीं और आवाज़ भी फटने लगी थी, तब किसना की लचीली चाल सुरसतिया के लिए भयानक चिंता का विषय बन गई। अक्सर इस उम्र में लड़के स्वंय को वयस्क दिखने के लिए छुप-छुपकर सिगरेट-बीड़ी के छल्ले उड़ाना सीखते हैं, परंतु किसना किसी चटोरी षोडशी की मानिंद चोरी से चटखारे ले-लेकर अचार के लिए सूखते हल्दी-नमक डले आम की फांकें चूस रहा होता और सुरसतिया " हाय हाय ! आग लगे तेरी चटोरी जबान पर। " कहकर माथा पकड़े रोने बैठ जाती।

और मासूम किसना आम की फांकें चूसता हुआ बिट-बिटकर अम्मा को रोते हुए देखता फिर कहता, " अरे अम्मा ! काहे इत्ता हंगामा मचा रही है। एक आम की फांक ही तो चुराई थी, लो नहीं खाते बस ! अब तो रोना बंदकर।" अब सुरसतिया उससे कहे भी तो क्या। छाती से लड़के को चिपटाए रोटी चली जाती। न जाने कितने पीर-फकीरों की मजार पे जाकर चादर चढ़ा आई। नीम-हकीमों ने भी खूब लुटा उस गरीब को और फिर थक-हारकर नियति को स्वीकार कर लिया।