जर्जर आधार Ramnarayan Sungariya द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जर्जर आधार

कहानी--

जर्जर आधार

आर. एन. सुनगरया,

शादी-विवाह एवं तीज-त्‍यौहार का समय था। दुकान में काम का दवाब कुछ अधिक ही था; मैं पिताजी के साथ दिन-रात एक करके जुटा हुआ था। जितना हो सकता था, उतना अधिक से अधिक काम कर लेना चाहते थे। आगे लम्‍बे समय तक ग्राहकी काफी कम रहती है; बस! बैठे रहो हाथ पर हाथ रखकर।

थककर चूर, आराम करने, राहत पाने की मानसिकता में, दहलीज पर कदम रखा ही था कि अन्‍दर से उलाहनायुक्‍त स्‍वर सुनाई दिया, ‘’कोई एहसान नहीं करते हो हमारे ऊपर दुकान में काम करके!’’

‘’तुमसे बड़ा है वो, क्‍या-क्‍या करेगा!’’ पिताजी का स्‍वर बहुत ही नर्म एवं याचक की तरह तरस खाने जैसा था। उन्‍होंने आगे कहा, ‘’तुम कम-से-कम घर के सौदा-सामान लाने का काम ही कर दिया करो।‘’

‘’क्‍यों करूँ मैं!’’ छोटे की आवाज में मगरूरता झलक रही थी, ‘’मेरे कौन बीवी-बच्‍चे रो रहे हैं।‘’

‘’हम कोई नहीं हैं तेरे।‘’ पिताजी ने अपनेपन से कहा, ‘’उसके बच्‍चे तेरे कोई नहीं हैं क्‍या?’’

‘’हैं तभी तो टिका हूँ यहॉं।‘’ छोटे का अहंकार उभर आया था शब्‍दों में, ‘’अन्‍यथा कब का कहीं निकल गया होता।‘’ एहसान के साथ, वह घर छोड़ने की गीदड़ भवकी दिया और इतराता हुआ दरवाजे से बाहर निकल गया।

मैं क्रोध से कॉंपता हुआ, अंधेरे में ही बुत बना खड़ा रहा।

· * *

·

हर स्‍तर के काम का दबाव बढ़ता गया। निरन्‍तर यह एहसास पक्‍का होता गया कि मैं चारों तरफ से जंजीरों में जकड़ा हुआ हूँ। बिना किसी विरोध के, बिना अपेक्षा के, बगैर किसी परिश्रम के सबकी ज्‍यादतियॉं सहन करते हुये। कोल्‍हू के बैल की तरह जुते रहना है। ऐसी विषम पृष्‍ठभूमि में अपने भविष्‍य के पौधे को पल्‍लवित करते रहना पड़ेगा।

एक दौर ऐसा भी आया जब देश की राजनीतिक फिजां बदल गई। जिससे प्रत्‍येक नागरिक अपने-अपने स्‍तर पर प्रभावित हुआ, स्‍कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों ने अपनी-अपनी शिक्षण संस्‍थाऍं छोड़ कर सड़क पर, हो रहे प्रदर्शन में शामिल होना ज्यादा मुनासिब समझा। इस दौरान ना ही कक्षाऍं लगी, ना ही परिक्षाऍं हुयीं।

अनेक विद्यार्थियों के साथ मुझे भी वह शिक्षा सत्र पुन: अपने सर पर लेना पड़ा।

कोर्स पूरा करने के उपरान्‍त यह अनअपेक्षित चढ़ा हुआ साल, मेरे ऊपर आवश्‍यक था। चारों और विषम परिस्थितियों का शिकन्‍जा जकड़ता जा रहा था।

जो तिल भर भी हिलने की अनुमति नहीं दे रही थी, मानो दोधारी तलवार की धार के बीचों-बीच जि़न्‍दगी थी।

खै़र इस काल खण्‍ड का निराकरण विचार विमर्श लम्‍बा आत्‍ममंथन करके निकाला; कि सारी शिक्षण सामग्री सम्‍हालकर रख दी जाये और कोई भी धनार्जन वाला कार्य कुछ समय के लिये अपनाया जाय; इस उद्धेश्‍य की पूर्ति हेतु मैंने ऐसे-ऐसे काम किये, जो मेरी मूल प्रवृति से तनिक भी मेल नहीं खाते थे, जिनमें गै़र कानूनी कार्यों की अनुभूति हमेशा दिमाग में कुलबुलाती सी प्रतीत होती थी। लेकिन तत्‍कालीन हालातों के दबाव में इस तरह के विचार टिक नहीं पाते थे! मुख्‍य रूप से अत्‍यावश्‍यक घर खर्च जुटाना ही एक मात्र लक्ष्‍य हो गया था।

जब मनुष्‍य की मूलभूत उपयोगी जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तब उसका ध्‍यान अन्‍य साधनों के उपभोग की और जाता है। मौज-मस्‍ती की मनोस्थिति अनायास ही निर्मित हो जाती है। स्‍वभाविक ही मादक मनोदशा के वशीभूत होकर, अत्‍यन्‍त सरल, सुलभ साक्षात, शारीरिक, सानिध्‍य समय की मॉंग हो जाता है।

सम्‍पूर्ण तनावों को तिलांजलि देकर तमाम अंगों की उत्तेजना को शॉंत करने के पश्‍चात् भरपूर आनन्‍द की प्राप्ति और परम संतोष की लालसा एवं शारीरिक भड़ास निकालने जैसे ही अवसर हुआ तो; ऐसा लगा जैसे अनेक कटीली झाडि़यों ने दबोच लिया हो, अनेकों बिच्‍छुओं ने डंक मारकर झटक-पटक दिया हो। शरीर के सारे स्‍नायुओं का जोश ठण्‍डा रह गया। सभी अंग झनझना कर सुन्‍न हो गये। कुछ भी जुगत करने का साहस ना कर सका।

वह सिलसिला, चलते-चलते नियति बन गया। पशुवत और जबरजस्‍ती का परिणाम औलाद के रूप में सामने आया। यही कारण चिरस्‍थाई सहनशक्ति में परिवर्तित हो गया। नैसर्गिक शारिरिक व मानसिक, संतुष्टि, जो पति-पत्‍नी के बीच आदान-प्रदान का मूल आधार होता है। वह छिन्‍न-भिन्‍न हो गया। सब कुछ ऑंखों के सामने होने के बाद भी, कोरे-के-कोरे ही रह गये, तड़पड़ाते हुये। ता-उम्र!!

· * *

जैसे-तैसे कोर्स पूरा हुआ। अंतिम अंक सूची भी प्राप्‍त हो गई।

सम्‍भवत: - व्‍यक्तिगत व्‍यवहार के सुप्रभाव उत्‍पन्‍न अनुभूति के कारण, तत्‍काल ही नौकरी के साक्षात्‍कार का पत्र मिल गया। समस्‍या केवल यह थी कि अपने मूल निवास से साक्षात्‍कार काफी दूरस्‍थ शहर में था। सारा कार्य लगभग चार-पॉंच दिन में सम्‍पन्‍न होना था। बेहद विषम हालातों की जकड़न से मुक्ति हेतु, साक्षात्‍कार के लिये जाना अत्‍यन्‍त आवश्‍यक था।

सघन सोच-विचार में उलझ कर पस्‍त हो गया। भाई-बन्‍धु, घर-परिवार, कुटुम्‍ब-कबीला, नाते-रिश्‍तेदार, पास-पड़ोसी, जाति-पांति, करीब-करीब सभी क्षेत्रों में दिमाग दौड़ा-दौड़ा कर थक-हार कर निराश-उदास, निढाल-निर्जीव सा जमीन पर पसर गया।

दूर-दूर तक, महीन सी भी आशा कि किरण दिखाई नहीं दे रही थी। तभी ध्रुव तारे की तरह एक चेहरा दिमाग में कौंध गया। सारी चेतना उस पर केन्द्रित हो गई। और वे शब्‍द फूट पड़े, ‘’अरे हॉं, मैं ही हूँ।‘’

‘’तुम! राज मुस्‍कुराते हुये सामने प्रकट हो गया। मैंने हड़बड़ा कर पूछा,- ‘’तुम कब आये?’’

‘’अभी-अभी!’’ राज ने निश्चिन्‍त भाव से कहा।

‘’लेकिन तुम कैसे ढीले-ढाले से पड़े हो! क्‍या हुआ?’’

‘’इन्‍टर्व्‍यु के लिये जाना है।‘’

‘’निश्चिंत होकर चल दो।‘’

राज के विश्‍वास ने मेरे तन-मन में नई ऊर्जा का संचार कर दिया।

वैसे निश्‍चिंत होना इतना आसान भी नहीं था। सारे पहलुओं को गम्‍भीरता से अवलोकन करके क्रियान्वित करने की आवश्‍यकता थी।

पत्‍नी के भरोसे पर कुछ भी जिम्‍मेदारी छोड़ना, जी के जंजालों को न्‍यौता देने जैसा लग रहा था। वह किसी के भी स्‍वार्थपरक पैंतरे के जाल में, तुरन्‍त उलझकर विपरीत कार्यकलापों में संलग्‍न होकर अपने-आप का ही नुकसान कर बैठती है। फिर चाहे अपने नवजात पुत्र को ही कष्‍ट क्‍यों ना देना पड़े। एक तो दुधमुंहे बेटे के लिये मॉं का दूध नहीं उतरता था। पूर्णत: ऊपर के दूध पर बेटे का पोषण निर्भर था। यह भी उतना आसान नहीं था, क्‍योंकि किसी भी दूध डेयरी में उस समय दूध का संकट, इतना था कि पाव-आधा पाव दूध देने की भी मनाही थी। और फिर बेटे के लिए तो पूरी खुराक का इन्‍तजाम आवश्‍यक था। जिसके लिये राज के साथ शहर के बाहर काफी दूर देहातों से आने वाले ग्‍वालों के इन्‍तजार में घण्‍टों डिब्‍बा लेकर खड़े रहना पड़ता था। खैर! यह काम तो राज को अकेले ही मुस्‍तैदी से करना होगा।

अन्‍य जरूरी साजो-सामानों को भी राज जैसे सहपाठियों से माँग-चूंग कर, उनकी होंसला अफजाई के बल पर साक्षात्‍कार देने निकल पड़ा।

· * *

कई कष्‍टकर दिनों के इन्‍तजार उपरान्‍त नौकरी पर पदस्‍थापना का आदेश-पत्र प्राप्‍त हुआ। अभूतपूर्व आन्‍तरिक खुशी मिली, पुलकित होकर सर्वप्रथम राज को यह शुभ संदेश सुनाने दौड़ पड़ा।

ऐसा लगा, सारे गतिरोध दूर हो गये। सुख-सुविधा, खुशी, आनन्‍द, सुकून, शॉंति, अमन-चैन, प्रफुल्‍लतापूर्ण जीवन-यापन का दौर शरू हो गया। सर्व सम्‍पन्‍नता के स्‍वर शरीर को सरसराने गुदगुदाने लगे। अनगिनत स्‍वर्ग से स्‍वप्‍न संजोय साथी के सम्‍मुख शॉंत सा खड़ा हो गया।

‘’बहुत खुश मिजाज हो?’’ राज तत्‍काल भांप गया।

‘’हॉं! चलो।‘’

‘’कहॉं ?’’

‘’कहीं भी।‘’ मैंने बाल सुलभ स्‍वर में कहा, ‘’बाग बगीचे नदी तालाब....कोई रमणीक स्‍थान चलते हैं।‘’

अपनी चाह के अनुरूप भी कभी-कभी प्रकृति अपने-आप को समर्पित कर देती है; ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। सम्‍पूर्ण वातावरण का जर्रा-जर्रा जैसे हमें भरपूर अपने आगोश में लेकर तृप्‍त करने को उदित हो। हम कुदरत के वह भीने-भीने व मदमस्‍त मादकता में चूर स्निग्‍धता में विलीन व एकाकार होते से मेहसूस कर रहे हैं। रंग-बिरंगे पुष्‍पों की खुशबू का नशा गहराता जा रहा है। दिव्‍यलोक की अनुभूति से हम अभिभूत हो रहे हैं। हम दोनों को जैसे पंख लग गये हैं, और खुले स्‍वच्‍छ आकाश में स्‍वछन्‍द उड़ान भर रहे हैं। आसमान भी कदाचित हमें देखकर हर्षित हो रहा है। जीवन सार्थक होता प्रतीत लग रहा है।

सपनों के उड़न खटोले से निकलकर पैर जैसे ही यथार्थ की कठोर जमीन पर पड़ा, वैसे ही सारी चेतना झंकृत हो गई। चारों तरफ समस्‍याओं के सॉंप फुसकारने लगे....फौं...फौं....

पिताजी की स्थिति बड़ी ग़मगीन सी हो गई। उन्‍होंने बहुत ही जिम्‍मेदार, मार्गदर्शन लहजे में कहा, ‘’जा हंसी-खुशी पूर्वक अपने बच्‍चों के भविष्‍य को खुशहाल बना!’’ बहुत ही निराशाजनक स्‍वर में बोले, ‘’हमारा क्‍या! हम तो अंतिम सॉंसे गिन रहे हैं।‘’

मुझे आश्‍चर्य हो रहा है कि उन्‍होंने मुझ से कोई आशा या आकांक्षा की अपेक्षा नहीं रखी है। मैं उनके मनोभावों को मेहसूस कर रहा था-उनके हृदय से मेरे लिये दुआयें ही निकल रही थीं। मानो वे कह रहे हों, ‘’अच्‍छा हुआ नर्क से मुक्ति मिली। लोगों की उलाहना, तानों, प्रताड़ना, शोषण, उपेक्षा, गुलामी, भूख-प्‍यास इत्‍यादि के साथ अनेकों मानसिक संतापों एवं कलेषों से छुटकारा मिला।

पूर्णत: आश्‍वस्‍त हो पाना तो असम्‍भव था। सम्‍पूर्ण सोच-फिकर, चिंताऍं, शंका-कुशंकाऍं भविष्‍य के गर्भ में छोड़कर, हालात के कंधों पर डालकर, सामने लक्ष्‍य को ध्‍यान में रखकर निकल पड़ा; अंधेरे में मंजिल ढूँढ़ने, अत्‍यन्‍त जर्जर आधार के सहारे।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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