महाकवि भवभूति - समीक्ष्डॉ . अवधेष कुमार चन्सौलिया ramgopal bhavuk द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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महाकवि भवभूति - समीक्ष्डॉ . अवधेष कुमार चन्सौलिया

महाकवि भवभूति उपन्यास में सामाजिक षल्यक्रिया

डॉ. अवधेष कुमार चन्सौलिया

संस्कृत नाट्य साहित्य में महाकवि भवभूति का महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत साहित्य के उत्कृष्ट साहित्यकारों में कालिदास,भर्तहरि भवभूति, भारवि, बाणभट्ट, राजषेखर, पतंजलि एवं भोज अत्यन्त उल्लेखनीय हैं। इन सभी विद्धानों का मध्यप्रांत से कुछ न कुछ सम्बन्ध अवष्य रहा है। भवभूति का जन्म भले ही विदर्भ में हुआ हो लेकिन उनकी कर्म स्थली पदमावती नगरी (पवाया) जिला ग्वालियर रहा है। यहीं पर उनकी प्रसिद्ध कृतियों का प्रार्दुभाव हुआ । इतिहासकारों ने पदमावती नगरी का पल्लवन काल ईसा की पहली षताब्दी से आठवी षताब्दी बताया है। यहाँ उस समय नागवंष का षासन रहा है। यह धूमेष्वर का मन्दिर ही भवभूति के नाटकों में वर्णित कालप्रियनाथ का मन्दिर है।

मालती माधवम् में सिन्धु नदी औरा पारा नदी के संगम पर मालती को स्नान करते हुए बताया गया है। यहाँ पर खुदाई में एक भव्य नाट्य मंच मिला है, यहीं पर भवभूति कें नाटकों का मंचन होता था। इन्ही ऐतिहासिक तथ्यों और अपनी कल्पना के माध्यम से श्री रामगोपाल भावुक जी ने ‘महाकवि भवभूति’ उपन्यास का कलेवर तैयार किया है। भवभूति की भावभूमि से तादात्म्य स्थापित कर लिखा गया यह उपन्यास समकालीन और आधुनिक जीवन का विराट स्वरूप प्रस्तुत करता है। इसमें सोलह अध्याय हैं। कृति का प्रारम्भ राहगीरों की वार्तालाप से होता है। इसके बाद सिन्धु नदी के किनारे विषाल षिलाखण्ड पर बैठे भवभूति दृष्टि गोचर होते हैं जिन्हें महावीर चरितम् और मालती माधवम् जैसी नाट्य कृतियों के प्रण्यन से भी संतोष नहीं मिलता। वे राज्य में बढ़ते जातिवाद से चिन्तित हैं। महावीर चरितम् में सीता की अग्निपरीक्षा से वे व्यथित हैं। मालती माधवम् में नरवलि के विरुद्ध जनमानस को जाग्रत किया है। इस प्रसंग से राजा वसुभूति नाराज हैं। इन अन्तर्द्वन्दों में भवभूति उलझे हैं। उसी सामय उनकें मित्र महाषिल्पी वेदराम आकर कहते हैं कि ‘मालती माधवम् में व्प्यवस्था के विरोध में आपने जो षंखनाद किया है, राजतंत्र के युग में महाकवि जैसे विरले ही हो पाते हैं’(पृ0 25) इस चिन्तन और वार्तालाप से ही स्पष्ट हो जाता है कि भावुक जी के भवभूति प्रगतिषील और जनवादी विचारधारा के नाटककार हैं।

भवभूति ने वाल्मीकि और अन्य रामायणों से हटकर महावीर चरितम् एवं उत्तर रामचरितम् जैसे नाटक लिखे। महावीर चरितम् में महाकवि ने षूर्पनखा को मंथरा के भेष में पहले ही अयोध्या भेज दिया और नाटक का आरम्भ विष्वामित्र के यज्ञ से कराया। यहीं पर राजा जनक पुत्रियों सहित वहाँ आमंत्रित होते हैं। उत्तरराम चरितम् में वे राम और सीता का मिलन कराते हैं। इन ग्रंथों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाकवि भवभूति मौलिक चिन्तन के हिमायती थे साथ ही युगानुकूल परिवर्तन उनकें स्वभाव में था। उनकी इस सोच को भावुक जी ने विस्तार दिया है। भवभूति राजआश्रय में चल रहें गुरुकुल के प्रधान आचार्य हैं, उसके उन्नयन हेतु तथा षिक्षा कें प्रचार पसार के लिए वे प्रण- पण से सन्नद्ध हैं। उनकी इच्छा है कि षिक्षा आमजन के लिये सुलभ हो, ताकि अंध विष्वासों और तंत्र- मंत्र से समाज को मुक्ति मिल सके।

पदमावती राज्य कन्नौज के राजा यषोवर्मा कें अधिकार में आ जाता है और कन्नौज को कष्मीर नरेष ललितादित्य जीतकर अपने राज्य में मिला लेते हैं। इस तरह महाकवि पदमावती से कन्नौज और वहाँ से कष्मीर चले जाते हैं। भवभूति कंे दाम्पत्य जीवन, विघ्याविहार में अध्यापन, प्रबंधन तथा साहित्यिक साधना के जो चित्र भावुक जी ने उकेरे हैं, वे काल्पनिक होते हुए भी सत्य प्रतीत होते हैं। वे नाटककार ही नहीं अपितु कुषल अभिनेता, रंगकर्मी और निर्देषक के रूप में भी खरे उतरे हैं। उपन्यासकार भावुक जी ने उनको युगानुकूल सोच का व्यक्तित्व प्रदान किया है।

उपन्यास की भाषा कहीं षुद्ध हिन्दी के रूप में मिलती है तो कहीं पंचमहली बोली की छटा भी निराली है। संवादों में गतिहीनता नहीं है। संवाद पात्रों की मानसिकता, उनकी सोच, परिवेष और समग्र र्व्यिक्तत्व को उजागर कर देते हॅैं। भवभूति और पत्नी दुर्गा का यह संवाद भवभूति की भावनाओं का स्वाभाविक चित्रण करता है।

‘पार्वती नन्दन जी का अधिक उम्र में विवाह वह भी विजातीय विवाह सेठ रामचरन की पुत्री से। उनकी पुत्री ऋचा हमारी पुत्र वधू बने यह आपको अच्व्छा लगेगा!’

भवभूति ने उत्तर दिया-‘ हम लोग भी तो अलग अलग ब्रह्मण थे। मैं विदर्भ देष का ब्राह्मण, तुम यहाँ के सनाढय कुल में उत्पन्न।.... विवाह के बाद स्त्री का कुल, पति के कुल में समाहित हो जाता है कि नहीं?(पृ049) इन सम्बादों में स्त्री सुलभ जिज्ञासा,मर्यादा,तार्किकता एवं जाति की मिस्सारता का सौन्दर्य विद्यमान है। कहीं कहीं लोकोक्तियों,कहावतों और सुभाषितों के माध्यम से भी भाषा की प्रभुविष्णुता और अर्थ में वृद्धि हुई है। कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय तो है ही उपयोगी भी है।

डॉ. अवधेष कुमार चन्सौलिया

समीक्ष्य कृति-‘महाकवि भवभूति’ प््रााध्यापक- हिन्दी

लेखक- रामगोपाल भावुक डी.एम 242 दीनदयाल नगर

ग्वालियर-474005 मो0 9425187203

प्रकाषक- कालिदास संस्कृत अकादमी उज्जैन

संस्करण-2018

मूल्य-250रु