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भवभूति: समीक्षक दिवाकर वर्मा

भवभूति: अनूठा औपन्यासिक प्रयास

समीक्षक दिवाकर वर्मा, पूर्व निर्देशक

निराला सृजन पीठ भोपाल

पुस्तक- भवभूति

लेखक- रामगोपाल भावुक

प्रकाशक- साक्षी प्रकाशन भोपाल

समीक्षक- दिवाकर वर्मा,

पृष्ठ- 122

मूल्य- 80 रु0।

प्रकाशन वर्ष-2000 ई0

अक्षर भारती के अमर गायक करुणरस के अनुपम चितेरे थे। उन्होंने प्रमुख रूप से काव्य नाट्य की रचना की। उनके द्वारा रचित तीनों ही नाटक भाषा की प्राज्जलता, संवादों की सुधड़ता और सम्प्रेषण्ीयता एवं वातावरण की सम्यक निर्मिति की दृष्टि से अप्रेक्षित है। ऐसे अद्वितीय साहित्य मनीषी के जीवन को आधार बनाकर उपन्यास के तानेवाने बुनना बड़ा ही जोखिम भरा कार्य था और उसके लिये अपार साहस की आवश्यकता थी। भावुक ने यह साहस किया और तदर्थ वह साधुवाद के पात्र हैं।

इस उपन्यास का कथ्य यद्यपि बहुत छोटा है किन्तु परिदृष्य, परिपेक्ष,आयाम एवं संदर्भ निश्चित ही बड़ा है। कथा पद्मावती (पवाया) नगरी के विभिन्न कोणों से वर्णन जो कि पक्षियों की आपसी चर्चा के माध्यम से किया गया, से आरम्भ होती है। आचार्य भवभूति पदमावती नगरी के विद्याविहार के प्रमुख हैं। पद्मपुर(विदर्भ) यहाँ वह अध्ययन करने के लिये आए और आचार्य ज्ञाननिधि से शिक्षा ग्रहण करते करते यहीं के होकर रह गये। आचार्य भगवान शर्मा और महाशिल्पी वेदराम इनके सहयोगी हैं। जिनमें एक पूर्ण आस्तिक और दूसरे चारवाक पंथी किन्तु अपने अपने विषयों में निष्ण्णात पण्डित। पद्मावती के तत्कालीन राजा वसुभूति की कुछ राजनीतिक एवं व्यवहारिक गल्तियों के कारण कन्नौज के महाराजा यशोवर्मा ने पदमावती पर अधिकार कर लिया। यशोवर्मा स्वयं एक कवि थे और उन्होंने पदमावती से प्राप्त आय को विद्याविहार के उत्कर्ष पर व्यय करने के निर्देश दिये। साथ ही भवभूति को कन्नोज आने का सन्देश भेजा। भवभूति विद्याविहार की व्यवस्था अपने दोनों सहयोगियों, पुत्र गणेश और पुत्रवधु ऋचा को सौपकर पत्नी दुर्गा के साथ कन्नौज चले गये। इस बीच उनके नाटक महावीर चरितम् का मंचन पद्मावती में कालप्रियानाथ कीष्शोभायात्रा के समय मन्दिर के पास बने मंच पर किया गया। बाद में दूसरे नाटक उत्तर रामचरितम् का मंचन कन्नौज में हुआ। कुछ समय पश्चात कश्मीर नरेश ललितादित्य ने कन्नौज को जीत लिया और भवभूति को सम्मान सहित अपने देश ले गये। कथा का समापन कवि के द्वारा एक अन्य नाटक रचे जाने के संकेत के साथ होता है।

भावुक ने भवभूति के समय की सामाजिक परिस्थितियों के वर्णन का सहारा लेकर वर्तमान परिस्थितियों-रूढ़ियों पर चर्चा चलाई है। इस प्रकार स़्ित्रयों की वर्तमान स्थिति को भी रेखंकित करने का प्रयास किया है।

बलिप्रथा और बालहत्या की कुछ घटनायें आज भी इतस्ततः सुनने देखने में आतीं हैं। लेखक ने इस पर सम्यक टिप्पणी की है। आज पर्यावरण संरक्षण एक अत्यंत चर्चित विषय है। लेखक ने उसके ऊपर भी भरपूर टिप्पणी की है। महाराज यशोवर्मा ने इधर उधर नजर घुमाई और कहने लगे- यहाँ के जंगल बहुत घने हैं। यह बात सुनकर आचार्य शर्मा ने कहा कि हाँ, श्रीमान घने थे अब तो लोग जंगलों को काटने में लगे हैं।, जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता चला जा रहा है। जंगलों का कटना रोका जाना चाहिए। पूरा उपन्यास पढ़ जाने पर ऐसा नहीं लगता कि हम कोई सूत्रबद्ध कथा पढ़ रहे हैं। बस्तुत भवभूति की कहानी उपन्यास के पटल तक पहुँच ही नहीं पाती। उपन्यास की शैली कथात्मक कम और निबन्धात्मक ज्यादा लगती है। हाँ उपन्यास का कलेवर अवश्य ही बढ़ गया है। उपन्यास में वर्णात्मक अंशों की भाषा देशकाल के अनुसार होनी चाहिए किन्तु यहाँ इस प्रकार के वर्गाकरण का सर्वथा अभाव है। भवभूति जैसे निष्णात नाटककार के जीवन आधारित कृति में प्रभावी संवादों का अभाव सहज उपन्यास की कमजोरी को दर्शाते हैं। ऐसी कृति में राजनेताओं के प्रशंसा पत्रों का प्रकाशन उपयुक्त नहीं लगता।


दिवाकर वर्मा

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