तीसरे लोग - 8 Geetanjali Chatterjee द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तीसरे लोग - 8

8.

न्यूयॉर्क स्मारक के लिए अजनबी शहर नहीं था। उसने स्वयं को एड्स की रोकथाम के अनुसंधान में डुबो दिया | उनकी रिसर्च टीम रोज सोलह-सत्रा घंटे काम कर रही थी। चौबीस घंटों में से मुश्किल से उन्हें चार-पांच घंटों का समय अपने लिए मिलता थ। एक जज्बा, एक जुनून था रिसर्च टीम के प्रत्येक सदस्यों के भीतर कि जितना हो सके एच.आई.वी पॉजिटिव मरीजों को इलाज द्वारा रोगमुक्त करवा के एड्स तक पहुंचने की नौबत ना आने दी जाए। इसे चाहे हम पश्चिमी देशों की आधुनिक सभ्यता की असभ्य मानसिकता की देन कह लें, परंतु सामान्य नियमों का उल्लंघन करके असामान्य यौन स्थापन के चलते आज एड्स जैसी भयंकर बीमारी वहां की युवा पीढ़ी को बड़ी तेजी से अपनी चपेट में ले रही है।

भारत जैसे देशों मे समलैंगिकता के विशेष से आज भी आम आदमी परिचित नहीं है। हां, दबी -ढकी जुबानो से बड़े-बड़े शहरों में इसकी चर्चा अवश्य होती है, वहीं अमेरिका जैसा संयुक्त राष्ट्र इसे मनुष्य का एक अति सामान्य प्रवृत्ति मानकर और समलैंगिकों को आम आदमी का दर्जा देकर उनका अत्याधुनिक समाज उन्हें स्वीकार कर चुका है। ये हमारे देश की विडंबना नहीं तो और क्या है कि उचित मार्गदर्शन, शिक्षा और जागरूकता के अभाव के कारण आज भारत विश्वभर में एच.आई.वी पॉजिटिव और एड्स के मरीजों से पीड़ित दूसरे स्थान पर है और दक्षिण अफ्रीका का स्थान सबसे पहले आता है। यूरोप के देशों में समलैंगिकों के अपने सैकड़ों संस्थान और क्लब मौजूद हैं और आए दिन सड़कों पर उतरकर हल्ला बोल और चक्का जाम भी करते हैं।

अब तो पश्चिमी देश में कई हिस्सों में एक ही लिंग के दो व्यक्तियों के विवाह को कानून की मान्यता प्राप्त हो गई है। वहीं, हम आज भी ऐसी प्रवृत्ति के लोगों को समाज का कोढ़ समझकर अलग- थलग रखने में ही भलाई समझते हैं। स्मारक कभी-कभार फुर्सत के समय कुछ क्षण इन "गे क्लब" में जाकर बिता लेता था। ऐसे समलैंगिको के बीच में उनकी भावनाओं, उनकी पीड़ााओं, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक, सभी पहलुओं को लेकर चर्चा करता था और स्वयं ऐसी प्रवृत्ति का होने के कारण उसे उनकी मनोदशा को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती और अपने रिसर्च के काम में उसे काफी मदद मिल जाया करती, लेकिन एक बात तो थी यह कि पश्चिमी सभ्यता के खुले विचारों के चलते वहां के समलैंगिक किसी भी प्रकार की कुंठाओं और हीन भावनाओं के शिकार हुए बिना एक आम आदमी सा ही जीवन बिताते हैं क्योंकि वे स्वयं को जनसाधारण का हिस्सा समझते हैं और इस प्रवृत्ति के लिए उन्हें कोई मलाल भी नहीं।

आज देर शाम को स्मारक अपने कुछ कलिग्ज के साथ पब चला गया था। यूं तो वह शराब से परहेज करता था, लेकिन कभी-कभी बीयर पी लेता। वापस अपने हॉस्टल में लौटा तो मन थोड़ा विचलित था। विश्वभर में अपनी उदारवादी और खुले विचारों की मानसिकता का ढिंढोरा पीटने वाला पाश्चात्य समाज में पुरुषों द्वारा ही पुरुष के यौन शोषण और उत्पीड़न की संख्या सबसे अधिक है। स्मारक को यह जानकर उनकी दोगली मानसिकता पर ताज्जुब हुआ।

रविवार के दिन दोपहर के बाद वह अपने कुछ कलिग्ज के साथ ऐसे ही समलैंगिक और योन उत्पीड़न के शिकार नाबालिग लड़कों की काउंसलिंग का कार्यभार भी संभाल रहा था। अधिकतर अश्वेत लड़के ही पीड़ित होते थे। यदि हमारे देश में जातिवाद सामाजिक समस्या का अहम कारण है तो अमेरिका देश भी कोई अपवाद नहीं। वहां आए दिन रेसिजम (रंगवाद) के नाम पर काफी खून -खराबा होता है। स्मारक भी रोज समाचारपत्रों में ऐसी कई खबरों से रू-ब-रू होता फिर ब्लडी अमेरिकन इपोक्रेट्स कहकर भारतीय मित्रों के बीच बैठकर जी भर के इनके दोगलेपन को गालियां देकर अपने मन की भड़ास निकालता।

एक दिन, ऐसे ही यौन उत्पीड़न का शिकार एक नाबालिक अश्वेत लड़के ने उसके चेंबर में अपनी मां के साथ प्रवेश किया। रोते हुए उस अश्वेत स्त्री ने पुत्र के टी शर्ट को ऊपर उठाया। उस मासूम किशोर के शरीर पर क्रूरता के निशान देखकर वह दंग रह गया। रेसिजम के नाम पर पाशविक अत्याचार का ऐसा भयानक मंजर उसकी रुंह को कपा गया। स्मारक की काउंसलिंग से अब धीरे-धीरे उसके किशोर मरीज की दिमागी हालत ठीक हो रही थी। लड़का गजब का चित्रकार था। बैठे-बैठे किसी की भी तस्वीर को हू-ब-हू कैनवस पर उतार देती उसकी काली करामाती उंगलियां। स्मारक के पास उसने जीने की कला सीखी, एक नई दिशा मिल गई थी उसे और इलाज के अंतिम दिन उसने शरमाते हुए स्मारक को एक उसी का पोट्रेट भेंट किया। "इतनी अद्भुत चित्रकारी। फाल्गुनी तो खुशी से नाच उठेगी।" उसने संभालकर पेंटिंग को सूटकेस में रख दिया।

पढ़ाई करते हुए थक चुका था स्मारक। कमर सीधी करते हुए उठा और खुली हवा में सांस लेने के लिए खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। आज उसे फाल्गुनी की बहुत याद आ रही थी। ना जाने किस हाल में होगी बेचारी ! उसे तो अब भी आशा थी पति के संपूर्ण रूप से पुरुष बन जाने की। तभी तो उस रात को बड़ी मासूमियत और आशा मन में लिए पति से पूछा था, " इसका कोई तो इलाज होगा ?"

"क्या उचित चिकित्सा द्वारा आप एक साधारण पुरुष नहीं बन पाएंगे" ? और स्मारक ने उसकी आशाओं को राख करते हुए समझाने का प्रयत्न किया था, "फाल्गुनी, इलाज तो बीमारी का होता हैं। समलैंगिकता कोई रोग नहीं एक प्रवृत्ति है। एक बिहेवियर...अ.... अब कैसे समझाऊं तुम्हें ? मैं पैदाइशी समलैंगिक हूं, जिसमें मेरा कोई दोष नहीं। दूसरे पुरुषों की तरह मेरी भी मानसिकता, मेरी सोच भी नॉर्मल है, फर्क इतना है कि मेरी तरह तीसरे किस्म के लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं।

आईने में अक्स एक अब्सोलुतेल्य नॉर्मल, हेल्दी पुरुष का होता है, पर मन का प्रतिबिंब कुछ और रूप दर्शाता है। मैंने कभी भी नहीं चाहा ऐसा दोहरा व्यक्तित्व, पर मैं मजबूर हूं दोहरी जिंदगी जीने को। आज तो हाई सोसाइटी में कई साधारण पुरुष अपने को "गे" कहलाना पसंद करते हैं। शायद समलैंगिकता उनके लिए एक स्टेटस सिंबल बन गई है और ऐसे ही लोगों के कारण समलैंगिक बदनाम हो रहे हैं। पति की बातें सुनकर उस दिन फाल्गुनी की रही सही आस भी जाती रही।"

इस देश में स्मारक को मौजमस्ती करने की पूरी छूट भी दी थी और विभिन्न प्रकार के साधन भी उपलब्ध थे। किस-किस दिन उसके भारतीय कलिग्ज और मित्र से फुरसत का समय निकाल ही लेते थे। देह की भूख को तृप्त करने की जगहों की कोई कमी नहीं थी न्यूयोर्क में। तभी तो निरंकुश और नि: संकोच वे किसी नाईट क्लब में कैबरे या स्ट्रिपटीज़ का आनंद उठाते अथवा किसी गोरी फिरंगन की बाहों में अपनी रातें रंगीन क्र आते। स्मारक को उन लोगों ने कई बार अपने साथ चलने का आग्रह किया था, लेकिन वह इन सबके प्रति उदासीन था। उसकी उदासीनता का कारण दुनिया में उसके सिवाय एक फाल्गुनी ही थी, जो उसकी मनोदशा जानती भी थी और समझती भी थी। यहाँ उसका एक करीबी मित्र डॉ. तरविंदर सिंह सोढ़ी अक्सर स्मारक को कम्पनी देने का आग्रह करता और हर-बार स्मारक उसे टाल देता। उस से नाराज हुआ, "अबे यार ! तू कब सुधरेगा ? और हमारी बीवियां भी खूबसूरत हैं और हमे भी प्यार हैं उनसे, पर घर से इतने आरसे दूर रहना हैं तो क्या भूखे मर जाएं या फिर तेरी तरह देवदास बन जाएं ? स्मारक को घूरते हुए कुछ पल, फिर कहना शुरू किया, " अजीब आदमी है तू भी। अमां ! किसे पता चलेगा की हम यहां क्या कर रहे हैं, किसके साथ सो रहे है ? और गल सुन ! तू इंसान है भी या नहीं ? ना तो तेरी आँखों को प्यास लगती है और न तो शरीर को भूख। मर्द की मर्दानगी की पहचान उसके शरीर की भूख-प्यास से होती है समझा, खोता कहीं का। पड़ा रह यहाँ दो साल सन्यासियों की तरह, मैं तो चला। " कहते हुए वह पाँव पटकता हुआ उसके कमरे से निकल गया। पुरुष कितना भी शिक्षित हो, लेकिन अपनी मर्दानगी साबित करने की सोच और जरिए में कोई फेरबदल नहीं।

स्मारक चाहता तो "गे क्लब" जाकर मौज-मस्ती कर सकता था,लेकिन फाल्गुनी की आस्था तोड़ने का साहस नहीं था उसमें और फिर फाल्गुनी यदि तपस्वनी-सा जीवन बिता रही है तो उसे भी जीना होगा, सन्यासी का जीवन। किताबों का शौक़ीन स्मारक फ़ुरसत के लम्हें गुजारता किसी उम्दा बेस्ट सेलर के पन्नो के साथ।