व्यग्य मुफ्त का परामर्श ramgopal bhavuk द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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व्यग्य मुफ्त का परामर्श

व्यग्य मुफ्त का परामर्श

रामगोपाल भावुक

पापा जी की खराब स्थिति देखकर डाक्टर ने कह दिया-‘ आप के पापा जी की स्थिति जितनी यहाँ ठीक होनी थी हो चुकी है। अब तो धीरे- धीेरे ही फायदा होगा। भगवान चाहेंगे जो पूरी तरह ठीक हो जायेंगे। अभी घर ले जाकर इनकी सेवा करें।’

मैं समझ गया बात डाक्टर के हाथ की नहीं रही इसीलिये घर ले जाकर सेवा करने कर परामर्श दे रहे हैं। मजबूरी में हम उन्हें घर ले आये थे। सोचा- पापा जी के अन्तिम समय में जितनी हो सके सेवा में कमी न रहने देगे।

जैसे ही हम उन्हें घर लेकर आये, अगले ही दिन यह बात आग की तरह सभी जगह फैल गई। सुबह- सुबह हमारे बड़े मामा का आना हो गया। वे अपने जीजा जी से बड़ी ही आत्मीयता व्यक्त करते हुए बोले-अब तो जीजा जी आपका बुढ़ापा है। राम का नाम लेते- लेते प्राण जायें इसी में सार है।

अब वे मेरी ओर मुँह करके बोले-‘ क्यों शंकर तुमने जीजा जी से गोदान कराया कि नहीं ! अरे! कभी कभी प्राण इन्हीं बातों में अटके रहते हैं।’

मुझे उनकी बातें सुनकर क्रोध आ रहा था। ये तो पापा जी से सीधे -सीधे कह रहे है कि आपका अन्तिम समय आ गया है। इस स्थिति में मैंने पापाजी का मनोवल बढ़़ाने के लिये कहा- ‘डॉक्टर साहव कह रहे थे कि आप जल्दी ही ठीक हो जायेंगे।’

यह सुनकर प्रश्न वाचक दृष्टि से उन्होंने मुझे देखा। मेरे न चाहते हुए मेरी आँखें झुक गईं।

मामा जी के जाते ही हमारे मोहल्ले के हनुमान जी के मन्दिर के पुजारी पण्डित मोहनलाल तिवारी जी का आगमन हुआ। वे आते ही बोले- हमने सुना है कि भाई साहब की तवियत बहुत खराब है। वे मेरी ओर मुखातिव होते हुए बोले-‘ तुमने इन्हें गीता सुनाना शुरू किया कि नहीं । न हो तो किसी पण्डित से हन्हें पूरी गीता अर्थ सहित सुनवा दें। साथ ही एक काम और करें इनकी स्वास्थ्य कामना के लिये -‘नासै रोग हरे सब पीरा। जपत निरन्तर हनुमत वीरा।’ इस सम्पुट के साथ सुन्दर काण्ड का इक्कीस वार पाठ करा दें। हनुमान जी पर भरोसा रखें। विश्वास ही फलदाई होता है।

वे जैसे ही जाने के लिये उठेे कि हमारी परिचित बरोठे वाली काकी पापा जी को देखने आ धमकीं। आते ही बोलीं- मुझ पर देवी माँ की अपार कृपा है। मेरी झारनी से बड़ीं- बड़ी बीमारी ठीक हो जातीं है। मेरे पिताजी की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए बोलीं-‘ मुझे तो इन्हें दिनारी लगती है, इसीलिये दवायें असर नहीं कर रहीं हैं। एक काम करें इन्हें बजैरा गाँव ले जाकर इनकी दिनारी निकल वा लायें। अभी मैं इन्हें झाड देतीं हूँ। मेरी झाडनी लगते ही ये ठीक हो जायेंगे। कुछ खाने- पीने को माँगने लगेंगे।’

यह कह कर उन्होंने कोने मैं पड़ी झाडू उठाली। और छू.......छू..... करकें उन्हें झाडने लगीं। मैं चुपचाप वुत बना सब कुछ देखता रहा। जब वे झाड चुकीं तो पापा जी से बोलीं-‘भाई साहब, अब आपको कुछ खाने की इच्छा होने लगी होगी। पता नहीं कैसे पिताजी के मुँह से निकल गया-‘ हाँ , कुछ खा लेंगे।,

यह सुनकर वे चहकीं-‘ देखा , मेरी झाडनी का कमाल। मेरी झाडनी से अच्छी -अच्छी बीमारी ठीक हो जातीं है। देखना कल तक पूरी तरह ठीक हो जायेगे।’ मैं चलतीं हूँ , कल इसी समय फिर आकर झाडनी लगा जाउंगीं। आप पर जो बने मेरी सेवा कर देना। यह कह कर वे चलीं गईं।

अब तक मेरी भैंसावाली मौसी जी पिताजी को देखने आ चुकीं थी। बोलीं-‘ भैया, इस झाड- फुंक के चक्कर में न पड़ें। अरे! ग्वालियर के डॉक्टर ने सेवा करने की कह दी तो क्या और सारे डॉक्टर मर गये। इन्हें तो दिल्ली एम्स में दिखाओ। तुम पर पैसे की कमी तो है नहीं। जीजा जी ने इतना कमा के रख दिया है कि तीन पीढ़ियों के नाती- पौते भी उसे खर्च नहीं कर पायेगे। तुम पर पैसा न हो तो मुझ से कहें, कितने चहिए? बोलो।

मेरी माँ को कहना पड़ा-‘ नहीं बहिन , घर में किसी बात की कमी नहीं है। कल ही दिल्ली ले जाने की व्यवस्था करते हैं। उनके आते ही मेरी पत्नी उनके लिये चाय पानी की व्यवस्था करने में लग गईं। उनके जाते ही बोली-‘ जो भी आता है हमें पिताजी की सेवा छोड़कर उनकी तीमारदारी में लगना पड़ता है। कभी- कभी लगता है उनसे जाने की कह दँू पर आप बुरा मान जायेंगे। मम्मी- पापा जी को भी अच्छा नहीं लगेगा।’

मुझे पत्नी की बात ठीक लगी पर मैंने उन्हें सामझया-‘ यदि कोई इस स्थिति में देखने भी न आये तो बाद में हम बुरा -भला उन्हीं के बारे में कहेंगे।

दिन ढलते ही हमारे मौहल्ले के नीम हकीम मुन्नालाल बैद्य का आगमन हुआ। वे आते ही बोले-‘आपके पिताजी बीमार होने पर मुझ से ही दवाये लेते रहे हैं। कहते है- मुझे बैद्य जी की ही दवा लगती हैं। इसीलिये मुझे इन्हें देखने आना ही था। उन्होंने आते ही पिताजी के पर्चोंं की फइल उठाली। गौर से देखते हुए बोले- जितने बड़े डाक्टर के पास जाओ, उतनी बड़ी फीस दो। वे जो कह दें वही सच है। मेरी दृष्टि में इन्हें कोई बीमारी नहीं है। इन्हें तो सीतोपलाद शहद के साथ चटनी बनाकर दिन में तीन वार चटकर देखे। निश्चित ही फायदा होगा। पिताजी को ओर देखकर मुझे उनकी बात स्वीकरना पड़ी।

हमारे आफिस का चपरासी आफिस छुटटी होते ही सीधे हमारे यहाँ चला आया। आते ही बोला-‘छोटे साहब, आप इन बातों पर विश्वास नहीं करते होंगे। सुनारी गाँव के राजा महाराज की सोमवार के सोमवार चौकी भरती है वे साफ- साफ बता देते हैं कि इनको क्या बीमारी है, यदि दादा जी को एक बार वहाँ दिख लाते, वहाँ से केन्सर जैसे रोग ठीक हो गये हैं।

वह बात कह ही रहा था कि हमारे पड़ौसी पण्डित दीनदयाल पाठक जी का आगमन हुआ । वे हाथ में पंचाग लिये थे । मैं समझ गया। अब ये अपनी पण्डिताई बतलाने आये है।। आते ही बोले- मुझे अपने पिताजी की कुण्डली दिखाओ।

पिताजी की कुण्डली न चाहते हुए भी मुझे उन्हें देना पड़ी। वे उसे बड़ी देर तक इधर से उधर उलट- पलट कर देखते रहे फिर गम्भीर होकर बोले-‘ इस समय इनका सम्पूर्ण मारकेश चल रहा है। कभी भी कुछ हो साकता है। अरे ! आपके पास कोई दाम पैसे की कोई कमी तो है नहीं। महामृत्युन्जय का जाप इनके निमित्त कर देना चाहिए। कोई अधिक खर्च भी नहीं है। सात पण्डित सात दिन में पूरा कर देंगे। मैं सारी व्यवस्था कर दूँगा। आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। अरे! हाथ कंगन को आरसी क्या ,फायद न हो तो मेरा नाम बदल के रख देना। इसका बड़ा प्रभाव है। रोते को हास देता है। आप कहें तो मैं कल से काम शुरू कर देता हूं। कुछ पण्डित तो बनारस से बुलाना पड़ेंगे। मात्र दो लाख का खर्च आयेगा। यदि आप भण्डारा बड़ा सा करते हैं तो एक लाख और सही। नाम हो जायेगा। पिताजी के लिये यह सब करने में बड़ा सकून मिलेगा।

मेरी माँ उनकी बातें बड़े गौर से सुन रहीं थी। उन्हें लगा होगा ,शायद यही पुण्य काम आ जाये। यही सोच कर बोलीं-‘ पण्डित जी आप तो मुहुर्त निकल दें पैसा , इनके जीवन से बड़ा नहीं है।’ मैंने न चाहते हुए भी माँ की बात को टाल नहीं पाया।

दूसरे दिन से माताजी-पिताजी की यही सेवा मानकर अनुष्ठान के कार्य में लग जाना पड़ा। पिताजी की भी खुश दिख रहे थे। हमें इसी में संतोष करना पड़ रहा था। नौ दिन तक दिन-रात पण्डितों के सेवा में लगे रहना पडा़ । कार्यक्रम के अन्त में रिस्तेदारो एवं इष्ट मित्रों तथा मोहल्ले वालों को भण्डारे में समिल्लत करना पड़ा। बीच-बीच में पिताजी की स्थिति बहुत ही बिगड़ी पर बचे रहे। किस्मत अच्छी रही अनुष्ठान को दोष नहीं लगा।

कार्यक्रम के वाद राहत की साँस ली। तीन लाख रुपये इस में स्वाहा हो गये। मैं महसूस कर रहा था पिताजी के स्वास्थ्य पर इस अनुष्ठान का कोई असर नहीं पड़ा है। वे वैसे के वैसे ही है। अब वे पण्डित जी जब भी हमारे घर आते हैं तो एक ही बात कहते है,अब तो इन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओ। अब दवा लग जायेंगी। मैं समझ गया -अब दवा तो उन्हें लग चुकी, दिन- प्रतिदिन स्वास्थ्य में गिरावट महसूस की जाने लगी है।

और एक दिन वे सोते ही रह गये।

उनके संस्कार के बाद परम्परा के अनुसार अगले ही दिन से लोग हमें साँन्त्वना देने आने लगे। पिताजी तो चले गये लेकिन लोगों का परामर्श बन्द नहीं हुआ। अगले ही दिन मेरे आफिस के लोगों का आगमन हुआ। मेरे बड़े अफसर ने कहा-‘ आप लोगों में तेरहवी तो बड़ी धूम- धाम से मनाई जाती है। सुना है कुछ- कुछ लोग तो अपना नाम करने के लिये पूरे गाँव में धुआँबन्द तेरहवी कर देते है। मुझे यह ठीक नहीं लगता। ऐसे मैं संस्कार के नाम पर कम से कम खर्च में काम चलाना चाहिए।’

हमारे मोहल्ले के दाऊ जी पहले से ही यहाँ बैठे थे। वे उनकी बात सुनकर, साहब की बात काटते हुए बोले-‘ अरे! भैया पिता जी खुब कमा कर रख गये हैं। आप तो इस काम में कन्जूसी न करें, इससे उनकी आत्मा को शान्ति मिलगी, इसलिये इस काम में आप तो दिल खोल कर खर्च करें। बाप कोई रोज- रोज तो मरता नहीं है।’

मैं सोच रहा था- हमारे देश में यदि कहीं कुछ मुफ्त में मिलता है तो वह है परामर्श। अधिकांश लोग इसे मुफ्त में चाहे- अनचाहे बटोना की तरह बाँटने में लगे रहते हैं।

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