दो आँसू Ramnarayan Sungariya द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दो आँसू

कहानी--

दो आँसू

--आर.एन. सुनगरया

‘’शीला, लो ये सामान।‘’ थैली और पोटली शीला को थमाते हुये बोला, ‘’इस महिने के अन्तिम दिन किसी तरह इसी राशन से गुजर करनी है।‘’

‘’सिर्फ इतने ही राशन से?’’ शीला आश्‍चर्य पूर्वक उसे देखने लगी।

‘’हॉं।‘’ दयाल शर्ट के बटन खोलते हुये पलंग पर बैठ गया, ‘’क्‍या बताऊँ, विदिशा से आये हुये अभी एक म‍हीना भी नहीं हुआ और बचपन के एक जि़गरी साथी कैलाश ने कुछ रूपये की चपत लगवा दी।‘’

‘’चपत....? क्‍या मतलब ?’’ पूर्ववत देखती हुई शीला उसके निकट आ गई।

‘’हॉं चपत ही समझो।‘’ दयाल ने स्‍पष्‍ट बतलाया, ‘’आज ही उसका एक्‍सीडेन्‍ट हो गया, उसके पास पैसे नहीं थे, इसलिये मुझे देने पड़े।‘’

‘’एक्‍सीडेन्‍ट!’’ शीला के होंठों पर बहुत ही हल्‍की मुस्‍कान मचल उठी, ‘’बचपन के और जि़गरी दोस्‍तों के लिये जान भी देना पड़े तो कम है।‘’ व्‍यंगात्‍मक भाव हैं चेहरे पर।

दयाल उसकी और घूरने लगा। शीला ने अपनी मुस्‍कान और आकर्षक बनाई, ‘’मेरी बचपन की एक सहेली है रमा........’’

‘’रमा?’’ इससे पूर्व कि शीला आगे कुछ और बताती दयाल अपनी जेबें टटोलते हुये बोल उठा, ‘’रमा का तुम्‍हारे नाम एक ख़त आया है।‘’ उसने शीघ्रता पूर्वक पढ़ना शुरू किया।

‘’प्‍यारी शीला, सीहोर से लिखा गया तुम्‍हारा पत्र प्राप्‍त हुआ। पढ़कर बहुत प्रसन्‍नता हुई। मेरे ऑपरेशन में एक लाख रूपये की आवश्‍यकता है। जिसे जुटाने में मेरे पिता और पति असमर्थ हैं, क्‍योंकि वे मेरी बीमारी में अपना सब कुछ खर्च कर चुके हैं, भगवान के भरोसे मौत की झोली में लेटी हूँ। तुम्‍हें देखने ऑंखें तरस रही हैं। अति प्रतीक्षा में । तुम्‍हारी रमा, इन्‍दौर।‘’

शीला के चेहरे पर व्‍याकुलता की ऑंधी मण्‍डराने लगी। उसकी व्‍याकुल नज़रें दयाल की नज़रों से टकराई, ‘’आपने पढ़ा यह पत्र?’’ शीला की आवाज कुछ भर्राई सी हो गयी। ऑंखों में ऑंसू उभर आये।

‘’हॉं।‘’ दयाल ने नज़रें घुमाई, ‘’हम इतनी तंगी में हैं, कि उनकी कुछ मदद नहीं कर सकते।‘’

‘’हम चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं।‘’ वह कुछ आवेश में आ गई, ‘’उसका ऑपरेशन भी करवा सकते हैं।‘’

‘’क्‍या उसके लिये घर जायदाद बेचोगी?’’ दयाल क्रोधित होकर तुरन्‍त खड़ा हो गया।

‘’मैने बेचने का कब कहा।‘’ शीला की आवाज थर्रा रही है। ‘’अपनी सम्‍पत्ति को गिरवी रखकर हम इतना पैसा.....।‘’

‘’शीला तुम बहुत भावुक हो रही हो।‘’ दयाल ने चिल्‍लाती आवाज में आदेश दिया, ‘’उसे लिख दो कि तुम उससे मिलने में असमर्थ हो।‘’

शीला के हृदय को जबरजस्त धक्‍का लगा। वह कुछ ना बोल सकी, केवल ऑंखों से ऑंसू बहाकर रह गई।

वह चुपचाप अनमने दिल से खाना पकाने में लग गई। लेकिन उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा है। करती कुछ है, तो होता कुछ है। कभी चूल्‍हे में आग तेज कर देती है, तो कभी बिलकुल मन्‍दी, कभी कुछ मिन्‍टों तक मौन बैठी रहती है, तो कभी बड़बड़ाती हुई तेजी से काम करने लगती है।

दयाल ने देखा शीला आधी सब्‍जी काटकर, मसाला पीसने लगी। दयाल को कुछ क्रोध अवश्‍य आया, मगर उसे पीकर उसने और ध्‍यान ना देते हुये खामोश रहना ही अच्‍छा समझा।

मौन वातावरण को फना करने के लिये मैंने टी.व्‍ही. ऑन किया। उस समय उसमें गाना आ रहा था....जब जिस वक्‍त किसी का यार जुदा होता है....उस वक्‍त यारों दिल का हाल बुरा होता है।.....

दयाल ने गाने के अर्थ पर ध्‍यान देते ही टी.व्‍ही. को तुरन्‍त बंद कर दिया। तभी उसका ध्‍यान शीला की ओर खिंच गया। वह सिसक रही है।

उसने शीला को देखा, वह भी उसकी ओर बड़ी कठोर नज़रों से घूर रही है। दयाल ने नज़रें हटाते हुये कहा, ‘’मैं अस्‍पताल में कैलाश से मिलकर अभी आया।‘’

वह क्रोधित मुद्रा में अपने काम में लग गई, मगर कोई काम ठीक प्रकार से या सुचारू रूप से नहीं कर पा रही थी। उसे हर पल रमा की सूरत याद आ जाती। उसकी ऑंखों में रमा का मुरझाया चेहरा घूम जाता।

जब तक दयाल लौटा, तब तक शीला खाना तैयार कर चुकी थी। वह ठुड्डी को दोनों घुटनों के बीच रखकर मौनावस्‍था में बैठी थी।

जब तक दयाल ने कपड़े बदले तब तक शीला ने उसके लिये खाना लगा दिया और उसे पानी से भरा लौटा हाथ-मुँह धोने के लिये देने लगी। उसने शीला को विशेष चिन्‍ता में व्‍याकुल देखा, तो सहानुभूति के दो शब्द कहे, ‘’परेशान या चिन्तित ना हो शीला, तुम्‍हारी सहेली के लिये सुबह कुछ सोचेंगे।‘’

‘’कुछ सोचेंगे?’’ शीला की बहुत ही महीन और विस्मित आवाज निकली।

‘’सोचेंगे नहीं।‘’ उसने शीला को विश्‍वास दिलाया, ‘’जो तुम कहोगी वही होगा।‘’ लेकिन ये सब दयाल ने एक अजीब अन्‍दाज में कहा, जो सांत्‍वना जैसा लगा।

शीला ने तो जूठे हाथ भी नहीं किये। लेकिन दयाल ने एक रोटी खाकर हाथ धो लिये। शायद सब्‍जी ठीक नहीं बनी थी। वह वहॉं से उठकर पलंग पर लेट गया।

दयाल ने तो कुछ सो भी लिया, मगर शीला की ऑंख रातभर नहीं लगी। वह करीब सवा चार बजे उठ आई और दयाल को जगाकर उससे कहने लगी, ‘’यदि मेरे गहने गिरवी रखकर कुछ रूपया एकत्र किये जायें तो......?’’

‘’तो दस-बीस हजार तो मिल सकते हैं।‘’

शीला को दयाल के शब्‍दों में कुछ व्‍यंग्‍य की झलक दिखाई दी, इसलिये वह खामोश रही, दयाल ही पुन: बोला, ‘’लाओ मेरे कपड़े उठा दो। मैं मुँह-हाथ धोकर तैयार होता हूँ। तुम अपने सब जेवर बॉंध लो।‘’

‘’आप ये सब सच कह रहे हैं?’’ शीला ने डरते-डरते पूछा।

‘’तुम जानती हो मैं ऐसे समय झूठ नहीं बोलता।‘’

फिर भी शीला को दाल में कुछ काला नज़र आ रहा है। उसने उसे कपड़े दिये और गहने बांधने लगी।

दयाल और शीला बाजार की ओर चले जा रहे हैं। किसी से जान पहचान तो थी नहीं, क्योंकि इस नगर में वे नये ही थे।

कुछ मिनटों की पदयात्रा तय करके वे एक बनिये की चॉंदी-सोने की दुकान पर रूके और उससे अपनी इच्‍छा व्‍यक्‍त की, उसने उनकी जाति पूछकर जवाब दिया, ‘’स्‍थानीय परिचित व्‍यक्ति को लायिए।‘’

‘’क्‍यों?’’ दयाल ने आपत्ति की, ‘’जेवर तो हमारे हैं।‘’

‘’वह तो हैं।‘’ दुकानदार ने बताया, ‘’सरकारी नये कानून के अनुसार हम हरिजनों के जेवर गिरवी नहीं रख सकते।‘’

दयाल ने क्रोधित होकर कठोर आवाज में कहा, ‘’तो क्‍या हमारी रकम कोई गिरवी नहीं रख सकता?’’

‘’रख सकता है, लेकिन किसी उच्‍च जाति, स्‍थानीय व्‍यक्ति के नाम पर।‘’

‘’यदि वह बेइमानी करके रकम खा जाय तो?’’

‘’यह आप जानिए।‘’ दुकानदार ने साफ-साफ कहा, ‘’आप इस रकम को बेंच सकते हैं, वह भी किसी परिचित की उपस्थिति में, कयोंकि अक्‍सर चोर भी चोरी का माल इसी तरह बेंचकर हम जैसे खरीदार को फंसा जाते हैं।‘’

‘’कमाल है खुद का माल बेचने में चोर बनाये जा रहे हैं।‘’

‘’माफ कीजिए मेरा यह मतलब नहीं है।‘’

वे फिरते-फिरते एक दुकान से दूसरी दूकान से तीसरी, मगर हर जगह एक समस्‍या, हर जगह एक ही जवाब, आखिर परेशान होकर दयाल अपने ऑफिस गया, जहॉं एक क्‍लर्क से पहचान थी, लेकिन अधिक नहीं, अस्‍थाई सी। उसने उसे अपनी परेशानी बतलाई और कहा कि वह अपनी उपस्थिति में उनके जेवर बिकवा दे। क्‍लर्क राजी हो गया। परिणामत: कुछ जेवर बेंच डाले गये। गिरवी रखने से इतने पैसे भी नहीं मिलते और क्‍लर्क का क्‍या भरोसा।

दयाल ने एक तांगे वाले को बुलाया, जो सीहोर टॉकिज की और जा रहा था, उससे शीला को स्‍टेशन तक छोड़ने के लिये कहा। तो तांगे वाले ने बताया‍ कि, ‘’आपको नहीं मालूम रेल कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी है।‘’ उसके बाद उसने बस स्‍टैण्‍ड के लिये कहा, तो तांगे वाले ने तुरन्‍त कहा, ‘’बस वालों को भी हड़ताल करने का शौक आ गया, तो उन्‍होंने भी राज्‍य परिवहन के चक्‍के जाम कर दिये।‘’

फिर सोच सामझकर यह तय हुआ कि कितना भी किराया कयों ना लगे, टेक्‍सी से इन्‍दौर के लिये इसी समय रवाना हो जाना चाहिए।

दयाल ने तॉगे वाले को किराया दिया और तॉंगे में बैठी शीला के हाथ में नोटों से भरा पर्स थमाते हुये कहा, ‘’ये लो अपनी सहेली के लिये जो चाहो करो। मेरे घर का दरवाजा तुम्‍हारे लिए हमेशा-हमेशा के लिए बन्‍द।‘’

‘’जी!’’ शीला आश्‍चर्य चकित मूर्तिवत्त हो गयी।

दयाल ने उसकी और से मुंह फेरते हुये तॉंगे वाले को आदेश दिया, ‘’तॉंगा बढ़ाओ।‘’

शीला की सम्‍पूर्ण इन्द्रियॉं जैसे शून्‍य हो गई हों। वह ना कुछ कह पाई, ना तॉंगे से उतर पाई, कुछ ही क्षणों में दयाल से ओझल हो गयी, क्योंकि तॉंगा अस्‍पताल से मुड़कर, नेहरू पार्क की और मुड़ लिया था।

शायद यह सोचकर कि सम्‍भव है, वे अपना निर्णय बदल दें, मगर मैंने इन्‍दौर जाने में देर लगाई तो कदाचित् सहेली से ना मिल सकूँ।

तॉंगा नेहरू पार्क को बायें ओर छोड़ता हुआ दौड़ रहा है। शीला की दृष्टि अनायास ही पार्क में बैठी दो लड़कियों पर पड़ी उन्‍हें देखकर उसे तुरन्‍त अपना अतीत याद आ गया--------

..........सूर्य की थकी हुयी किरणें ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की पत्तियों पर बिखरकर उन्‍हें सुन्‍दर और आकर्षक बना रही हैं। चारों ओर सुहाना और शॉंत वातावरण छाया हुआ है। इन सबके साथ हौले-हौले बहती वायु में एक नटखट नीलमपरि लेटी हुयी, अपने आपको मस्‍त मेहसूस कर रही है। घुटनों से मुड़े मादक पैर पल-पल में एक दूसरे से टकराते हैं। उसके कोमल और उजले पंजे आसमान को ताक रहे हैं। आधा धड़ कोहनियों के स्‍तम्‍भों पर आश्रित है और आधा पूर्णत: जमीन पर पसरा है। सोने की सलाकों से निर्मित सुन्‍दर-सुन्‍दर ऊँगलियों के बीच प्रेम-पत्र रखा हुआ है। जिस पर काली-काली मनोहर ऑंखों से आकर प्रकाश-किरणें टकरा रही हैं। उसने मुस्‍कुराकर पत्र चूमा और करवट बदली। पुन: पत्र का चुम्‍बन लिया और उठ खड़ी हुयी। एक सरसरी नज़र चारों ओर घुमाई, मुँह बनाकर जीभ और अँगूठा बतलाकर पीछे की ओर भागने लगी।

‘’सुनो सुनो रमा......अरे रूको तो, देखो....किसी का प्रेम-पत्र नहीं पढ़ा करते, रूको तो......’’

‘’लो रूक गई।‘’ उसने पत्र पीछे छुपा लिया। कुछ समय बाद मुस्‍कुराती हुई बोली, ‘’तुम्‍हारा बड़ा सौभाग्‍य है शीला कि तुम्‍हारा प्रेमी दयाल तुम्‍हें अपने दिल की धड़कने लिखता है।‘’

‘’हम तो अभी प्रेम-पत्रों तक ही पहुँचे हैं। तुम तो लगन मंडप तक पहुँचने वाली हो।‘’

ना जाने क्‍यों दोनों का दिल भर आया। अचानक वहॉं का वातावरण बदल गया। वे दोनों गम्‍भीर हो गईं और तुरन्‍त एक दूसरे से लिपट गई।

‘’क्‍या होगा शीला, जब हम दोनों एक दूसरे से जुदा होंगी!’’

‘’चिन्तित ना हो रमा अपनी शादियॉं हमें जुदा नहीं कर सकतीं। शादी के बाद भी हमारा प्रेम कम नहीं होगा......’’

.......तॉंगा रूक गया, ‘’बहन जी, बस स्‍टेण्‍ड आ गया।‘’ इस वाक्‍य ने उसे वर्तमान में ढकेल दिया।

वह इन्‍दौर जाने वाली टैक्‍सी तलाशने लगी। बस स्‍टेण्‍ड लगभग सूना ही था।

पूछताछ से मालूम हुआ कि एक टेक्‍सी अभी पॉंच मिनिट पहले गयी है। अब दूसरी टेक्‍सी तभी जायेंगी, जब उसकी पूरी सवारी मिल जायेगी। इसी चक्‍कर में शीला करीब डेढ़ घण्‍टे प्रतीक्षा करती रही। बामुश्किल गाड़ी में सवारी पूरी हुई। टेक्‍सी ठसाठस भर गई।

इन्‍दौर तक का सफर विभिन्‍न कल्‍पनाओं में गुजर गया। इन्‍दौर बस स्‍टेण्‍ड से ऑटो रिक्‍शा में बैठकर शीला रमा के घर पहुँची, वहॉं उसने देखा हृष्‍ट पुष्‍ट शरीर हड्डियों का ढॉंचा रह गया है। रमा ने ऑंखें खोलीं। सामने मौन मुद्रा में शीला खड़ी है। कुछ बोलने का साहस करने पर भी, ऑंखें पहले क्षण में खुलीं और दूसरे क्षण में बन्‍द हो गई।

कमरा शोक से लबालब है और चीखों से गूँजने लगा। शीला को पहली बार इतने बड़े दु:ख का मुँह देखना पड़ा। वह पागल जैसी हो गई। वह उठी और पड़ोस के कमरे में जाकर रोने लगी। कुछ समय बाद उसी कमरे में किसी ने प्रवेश किया, ‘’बेटी!’’ वह उसके गले लगकर और तेज रोने लगी।

उससे कुछ पीछे हटकर, वह अपना पर्स उठाकर उसे देने लगी और एक ऊबड़खाबड़ आवाज में बोली, ‘’लो काका, इसमें जितने रूपये हों, उनकी शराब ले आओ, यह रूपये किसी काम के नहीं। पति ने तलाक दे दिया। सहेली मुझे छोड़ गई। मैं शराब में अपने आप को डुबो देना चाहती हूँ। मर जाना चाहती हूँ।‘’ वह सर ठोंक-ठोंक कर बिलखने लगी।

वह अचानक खामोश हो गई।

एक आवाज आ रही थी, ‘’क्‍या तुम मर कर मुझे भी मौत देना चाहती हो।‘’

‘’आप!’’ शीला बहुत ही विचलित है, ‘’आपके घर के दरवाजे तो मेरे लिये हमेशा के लिये बन्‍द हो चुके हैं।‘’

‘’माफ करना शीला।‘’ वह नजरें झुकाकर बोला, ‘’तुम्‍हारे हृदय में सहेली के प्रति प्रेम देखने के लिये मैंने ये कहा था।‘’

‘’मेरे हृदय में उसके लिये क्‍या प्रेम था।‘’ वह चीखने लगी, ‘’मैंने उसके लिये क्‍या किया।‘’

‘’शांत हो जाओ शीला। जो कुछ हुआ सब ईश्‍वर की इच्‍छा थी। तुम्‍हारी तरह मैं भी पश्‍चाताप की आग में जल रहा हूँ। मैं अपने जि़गरी दोस्‍त की प‍त्नि के लिये कुछ नहीं कर सका।‘’

‘’जिगरी दोस्‍त की पत्नि?’’ शीला की साश्‍चर्य महीन आवाज निकली।

‘’हॉं शीला।‘’ दयाल ने लम्‍बी सॉंस छोड़ी। बदकिस्‍मत कैलाश मेरा ही बचपन का दोस्‍त है। जो मेरे पास अपने मकान पर पैसे के लिये गया था। मगर दुर्घटना की चपेट में आ गया। वह सीहोर की अस्‍पताल में ज़ख्‍मी होकर पड़ा है। पैसे तुम्‍हें देकर मैं तुम से पहले टैक्‍सी से इन्‍दौर आ गया।

‘’लेकिन आपने पहले कभी नहीं बताया कि कैलाश आपका जि़गरी दोस्‍त है।‘’

‘’इसलिये नहीं बताया कि हमने तुम्‍हारी दोस्‍ती की चर्चा सुन रखी थी, जिसका हम इम्‍तहान लेना चाहते थे, जिसमें तुम पूर्णत: उत्तीर्ण हुयीं।‘’

वह उसके गले लग गई और ऑंसुओं से उसका कन्‍धा भिगोने लगी। वह उसे पकड़े-पकड़े, लाश तक ले गया, उस पर निगाह पड़ते ही जैसे शीला को जबरदस्‍त चोट लगी हो, वो फूट-फूटकर बिलखने लगी, ‘’माफ करना रमा.....मैं तुझे आँसुओं के सिवा कुछ ना दे सकी।‘’

‘’शीला, तुम्‍हारे दो ऑंसू ही उसके लिये गंगा जमुना हैं।‘’ दयाल ने उसे सहारा देकर उठाया।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍