ऐसा तो न सोचा था !!
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यूँ उसकी रुकमा से कोई ऐसी दोस्ती नहीँ थी कि वह इतने अन्तराल के पश्चात उसेउसकी एकदम याद आ जाती । परन्तु जब मामी जी का फ़ोन आया और उसके हाल-चाल पूछने के पश्चात् उन्होंने उससे अचानक ही पूछ लिया :-
"तुम्हें रुकमा याद है मीनू ?"
उसे अपनी ज़िंदगी के पच्चीस वर्षों के पृष्ठ पलटने में खासा समय लग गया । उसके सामने धुंधली सी गर्द भरी गलियाँ गुज़रने लगीं जिन्हें झाड़ते-पोंछते वह किसी प्रकार उस गली में जा खड़ी हुई जहाँ रुकमा की ससुराल थी । एक नई दुलहन ने उस गली के किसी एक घर में पदार्पण किया था जिसमें मीनू का घर भी था । नई दुलहन के घूँघट पड़े मुखड़े का पर्दा उठाकर झाँकने का सुख अलग ही होता है । घूँघट में से छिपी हुई मुस्कुराहट झाँकने वाले के मुख पर पसर जाती है और वह या तो दुल्हन और उसके खानदान की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगता है |दुल्हिन के शरीर पर चिपके आभूषणों से या तो उसकी आँखें चमकने लगती हैं या फिर एक मामूली शक्लोसूरत और चंद मामूली आभूषण देखकर वह घूँघट में दुल्हन के सामने तो मुस्कुराती है लेकिन बाहर निकलकर भृकुटि चढ़ाकर वक्र मुखमुद्रा बनाकर अन्य दुल्हिन की मुह -दिखाई करने वालियों के सामने बिन कुछ कहे ऐसा कह जाती है कि फिर सारी घूँघट उठाकर देखने वालियों के चेहरों पर एक सी ही मुख-मुद्रा पसर जाती है । भाई ! ये तो भीड़ के साथ चलने वाले लोग हैं ,न अपनी कोई सोच ,न ही विचार ! एक ने जो कर दिया ---बस वही विचार उनके भीतर मकड़ी का जाला बनाता हुआ सबके दिलोदिमाग़ को अपने में उलझा लेता है|
रुकमा को दुल्हिन के रूप में देखने के उत्साह का एक और बहुत बड़ा कारण यह भी था कि वह उसके साथ बारहवीं में पढ़ रही थी । मध्यम वर्गीय लाला की बेटी का विवाह उसके बारहवीं पास होते ही लाला ने कर दिया था । संकीर्ण स्वभाव व धन को मुट्ठी में कैद करने वाले लाला मनोहरलाल कंसल पूरे वणिक-पुत्र थे ।अच्छा लड़का देखा ,ठीक-ठाक घर-बार और तुरंत ही पंक्ति में जा खड़े हुए । भाग्य से नं भी तुरंत ही लग गया और शहनाई भी फटाफट बज गईं। हाँ,यह रुकमा कीसहेलियों व अन्य परिचितों के लिए अवश्य चौंकाने वाला था ! इतना शीघ्र विवाह ! मीनू और सखियों को बहुत मज़ेदार लगा था अपनी सहपाठिनी का घूँघट उठाना और उसको धीमे से चूँटी काट लेना ।
"बड़ी बद्तमीज़ हो तुम ---" रुकमा घूँघट में ही बुदबुदाई थी और वह तथा उसके निमंत्रण पर आई सखियाँ खींसें निपोरकर अपने मुख की शरारती मुस्कराहट पर तहज़ीब का लेबिल चिपकाकर रुकमा की सास द्वारा लाई हुई मिठाई पर टूट पड़ी थीं ।
"कंजूस कहीं की ,स्कूल में कभी किसी को कुछ खिलाया नहीं ,आज तो यहाँ ठूँस-ठूँसकर खाएंगे,दिवाला निकालेंगे तेरी ससुराल का !"मीनू रुकमा के घूंघट पड़े कान पर जाकर भिनभिनाई ।
"जो मन करे करो बेशर्मों,मेरे बाप का क्या---जा-?"ज़रूर रुकमा बुक्का फाड़कर अपनी शैतान , चुलबुलीसहेलियों में शुमार हो जाती यदि उसकी सास मिठाई की दूसरी प्लेट भरकर लाती हुई दिखाई न दे जातीं ।
सच में ही अभी तक रुकमा को ससुराल का सही अर्थ भी न पता होगा ,स्वभाविक था कि उसकी संवेदना ससुराल से जुड़ी नहीं थी ।यही रुकमा थी जिसके बारे में मीनू की मामी जी ने ज़िक्र किया था |इसी रुकमा के पति ने अब मीनू की मामी के बँगले के पास ही शानदार कोठी बना ली थी|वर्षों की अनछुई स्मृति अचानक ही मीनू के दिलोदिमाग में कौंध गई ,उसे गुज़रे हुए लम्हे याद आने लगे और उसने पक्की तौर पर सोच लिया कि जब इस बार वह मामी जी से मिलने जाएगी रुकमा से भी ज़रूर मिलेगी|बचपन की यादों ने उसे प्रौढ़ा से पुन:एक युवती में परिवर्तित कर दिया था | उसे अपने स्कूल की बहुत सी बातें याद आने लगीं और उन गलियों की धूल उसकी दृष्टि में एक सुहाना आकार लेकर उभरने लगी |जैसे धूल झाड़ने-पोंछने के बाद कोई चाँदी की तस्वीर निकलकरआ उपस्थित हो ! दिल्ली के कॉन्वेंट स्कूल में पढ़कर आई मीनू को यहाँ एक आज़ादी मिल गई थी ,एक ऎसी छूट जो उसे कॉन्वेंट में नसीब नहीं हुई थी |यहाँ तो बल्ले-बल्ले थी ,क्या मस्ती कटती थी | हाँ ,शुरू शुरू में ज़रूर उसे अजीब प्रकार का गँवारू वातावरण लगा था बाद में तो आदी और आदी क्या मस्त हो गई थी वह उस वातावरण में !कहाँ पहरों में बंधी ज़िंदगी और कहाँ दन्त-फाडू ज़िंदगी !
बारहवीं पास करके उसने डिग्री कॉलेज में दाखिला ले लिया|बचपन में दिल्ली के कॉन्वेंट में पढ़कर नवीं कक्षा में वह अपनी माँ के पास उस छोटे शहर में आ गई थी जिसमें उसकी माँ पढ़ा रहीथीं | वैसे भी लड़की बड़ी हो रही है,उसे सुरक्षित रखना हो तो माँ से अच्छा कोई आँचल नहीं | दादी उसके पिता के पीछे ही तो पड़ गईं थीं;
“बस बहुत पढ़ ली अंग्रेज़ी स्कूल में,अब लड़की को उसकी माँ के पास भेज दो---“
माँ के इस प्रकार बारंबार टोकने पर मीनू के पिता ने भी निर्णय लेकर बेटी को उसकी माँ के
पास भेज दिया था |यहीं उसका यह शैतान-ग्रुप बन गया था जिसमें रुकमा भी शामिल थी और जब भी कोई ग़लत-शलत बात पर ताने-उलाहने मिलते ,सबके सब उसके कंधे पर ही चिपका दिए जाते थे| वरना जैसे इस शहर की लड़कियाँ तो तहज़ीब और शालीनता की ओढ़नी से ढकी-दबी थीं ,यह तो उसके आने के बाद ही -----लेकिन उसे कहाँ फ़र्क पड़ता था किसीके कुछ कहने से ,उसकी शरारतें तो बरक़रार ही रहतीं और चोरी- छिपे ही सही उसकी सखियाँ उसके साथ शामिल ही रहतीं |हाँ,माँ ज़रूर उससे खफ़ा हो जातीं आखिर वह एक शिक्षिका की लड़की थी |उसे अधिक शिक्षा ग्रहण कर स्वयं को प्रमाणित करना था | आगे शिक्षा ग्रहण करने की बहुत इच्छा होने के उपरान्त भी बारहवीं के बाद रुकमा को ब्याह के पिंजरे में कैद होना ही पड़ा था |
पुरानी स्मृतियाँ बहुत बड़ा खज़ाना बन जाती हैं ,मीनू को अपनी सारी शरारतें याद आने लगीं और बात-बेबात ही मुस्कान उसके होठों पर थिरकने लगी | उसके युवा बच्चे व पति भी उसकी इस रहस्यमय मुस्कान का कारण जानने के लिए उत्सुक होने लगे तब उसने उन्हें सब बताया और कहा कि इस बार अवसर मिलते ही वह मामी जी से मिलने जाएगी |मामी जी ने बताया था कि रुकमा केअतिरिक्त उसकी अन्य कई सखियाँ भी उनके घर के आस पास रह रही हैं | मीनू का दिल बल्लियों उछलने लगा ,अफ़सोस भी हुआ कि आज की इस दुनिया में जहाँ माध्यमों की, साधनों की कोई कमी नहीं है ,वह अपने मित्रों से क्यों संबंध नहीं रख पाई ?
छुट्टियों में बच्चे अपने-अपने हिसाब से व्यस्त हो गए |कोई भी उसके साथ आने को तैयार नहीं हुआ तब अनुभव ने ही उसका दिल टूटने से बचा लिया ;
“चलो न यार मैं ही चलता हूँ ,मामी जी भी खुश हो जाएंगी |वैसे भी उधर की ओर गए कई वर्ष हो गए |”
वह खुश हो गई ,वैसे उसने सोच लिया था कि चाहे इस बार उसे अकेले ही क्यों न जाना पड़े,जाएगी ज़रूर और जहाँ तक होगा अपने मित्रों से मिलकर आएगी |अनुभव को उसके मित्रों में कोई रूचि नहीं थी अत: वे मामी जी के घर पर ही रुककर अन्य पारिवारिक जनों से अपने दामाद होने की आवभगत करवाते रहे और वह अकेली ही मामी जी के साथ रुकमा के पास पहुँच गई | रुकमा से उसकी कई बार मामी जी के माध्यम से बात भी हो चुकी थी,वह भी इतने लंबे अन्तराल के बाद उससे मिलने के लिए व्याकुल थी |रुकमा ने अपने घर पर आधे दर्जन मित्र एकत्रित कर लिए थे जिनको उसने यह नहीं बताया था कि वह उन्हें किससे मिलवाने वाली है | केवल कोई पुरानी सखी है,इतना ही सब जानते थे |स्वाभाविक था सबके मन में एक अजीब प्रकार की अकुलाहट भरी बेचैनी थी जो गेट पर खड़ी प्रतीक्षा से भरी उन सबकी दृष्टि से झर रही थी |
एक-एक करके सबके गले लगकर मीनू मानो तृप्त होने लगी | यह यौवन की सौंधी खुशबू थी जो सभी सखियों को एक अजीब सी स्थिति में भर रही थी | अचानक मीनू को जैसे किसीने ब्रेक मार दिया |उसके सामने एक ऎसी उसीकी हमउम्र प्रौढ़ स्त्री खड़ी थी जो उसके गले लगते हुए हिचक रहीथी | वह उसको देखते ही जैसे वहाँ से वापिस मुड़ने की सोच रही थी लेकिन पूरा सिंह द्वार तो सखियों ने घेर रखा था ,उसे वहाँ से निकलने का कोई मार्ग सूझ ही नहीं रहा था |
‘यह ज़रूर पुष्प सिंह है ‘ मीनू ने सोचा और सब सखियों के गले मिलती हुई वह उसके पास जा पहुंची जो कोने में खड़ी नजरें नीची किए जैसे वहाँ से भागने की फ़िराक में थी |
“कैसी हो पुष्प ---और यहाँ क्यों खड़ी हो ?” मीनू ने पुष्प को और सखियों की भांति ही गले लगा लिया |
पुष्प की ऑंखें ऊपर ही नहीं उठ रही थीं |उसकी वेश-भूषा देखकर वह समझ गई कि उसके पति राज नहीं रहे हैं |अब पुष्प के पास वहाँ से निकलने का कोई न तो बहाना रह गया था ,न ही संयोग !
रुकमा ने अपने ‘सिटिंग रूम’ में शानदार दावत का इंतज़ाम कर रखा था |इतने वर्षों पश्चात किसीको खाने का कहाँ होश था |रुकमा के सजे हुए कमरे में बड़ी सी मेज़ पर न जाने कितने
गर्मागर्म स्वादिष्ट व्यंजन सजे हुए थे |उसकी नौकरानी सबके हाथों में प्लेटें पकड़ा रही थी किन्तु वहाँ तो सब्ज़ी मंडी बनी हुई थी |क्या शोर-शराबा फैला था ! खाद्य पदार्थों की महक के साथ यौवन की खिड़कियों से मन के भीतर प्रवेश करने वाली महक भी घुल-मिल रही थी | सब अपनी-अपनी कहने तथा उसकी सुनने में मशगूल हो गए थे | किस टीचर का क्या नाम रखा जाता ? किस टीचर के बालों में जूँ रेंगती थीं ? कौनसी टीचर लड़कियों के टिफ़िन पर भी नजरें गडाए रहती थी |सारी बातें उस सब्ज़ी मंडी का भाग बन गईं थी |मीनू उनके साथ जब पढ़ने आई तब किसी अलग वातावरण से आई थी, शुरू-शुरू में सबको देखकर कैसा मुँह बनाया करती थी ---और बाद में इतनी शैतानी करने लगी थी कि जिस दिन वह न आती उस दिन कक्षा में चुप्पी पसरी रहती |वैसे अपने विवाह के बाद वह इतनी दूर चली गई थी कि एक-दूसरे से मिलना स्वप्न बनकर रह गया था |वह तो भला हो रुकमा का जिसने अपने घर सबको एकत्रित करके ये अनमोल क्षण परोसे थे| सो सभी सखियाँ उससे उसके परिवार के बारे में जानना चाहती थीं,केवल पुष्प के !
“क्या बात है पुष्प तुम्हें मुझसे मिलकर कोई खुशी नहीं हुई?” उसने जानबूझकर पुष्प को कुरेदने कीचेष्टा की |
रुकमा ने उसे बता दिया था कि कुछ वर्ष पूर्व उसके पति नहीं रहे थे किन्तु रुकमा के घर के समीप ही रहने के कारण रुकमा को भी उसका आज का व्यवहार कुछ अजीब सा लग रहा था,इतनी चुप तो नहीं रहती थी पुष्प |
यह हा-हा,ही-ही घंटों चली |मीनू का मन भीतर से कुछ तल्ख़ हो ही रहा था किन्तु वर्षों बाद किसी मित्र के द्वारा इतने प्रेम से आमंत्रित किए जाने का सुरूर उसे कुछ भी अनचाही कष्टप्रद स्थिति उत्पन्न करने का साहस नहीं दे रहा था |कुछ देर बाद पुष्प किसी विशेष काम का हवाला देकर वहाँ से उठकर चली गई थी और मीनू न चाहते हुए भी एक अवसाद से घिर गई थी |काफी समय व्यतीत हो चला था ,धीरे-धीरे सभी सखियाँ उठने लगीं थीं | परस्पर पुन: आने के और बुलाने के वायदे हुए,मामी जी भी थक गईं थीं और घर चलने के लिए इसरार कर रही थीं |
“पता नहीं आज पुष्प को क्या हो गया ? वैसे वह इत्ती चुप तो नहीं रहती |” अचानक रुकमा के मुख से निकल ही तो गया |
“और कोई सखी होती तो वह इतनी चुप न रहती –पर यहाँ तो मैं थी ---“ मीनू ठठाकर हँस पड़ी|
“तो—तेरे से उसकी क्या ज़ाति दुश्मनी हो गई ?” रुकमा ने ठिठोली करते हुए कहा|
“तुम्हें याद है ---जब मेरी शादी होने वाली थी तब मेरे ज़ेवरों की चोरी हुई थी ---वो भी एक बार नहीं तीन बार ---“
“हाँ—लेकिन उस समय तो पुष्प तुम्हारे घर बहुत आती-जाती थी और इसके पति ने भी तुम्हें अपनी बहन बनाया हुआ था ?” रुकमा के मन में अचानक मीनू के प्रश्न खलबली मचाने लगे थे |
“बिलकुल ठीक ---लेकिन जानती हो ---वो चोरी पुष्प और उसके पति राज ने ही की थी |माँ ने इनपर भरोसा किया था |” राज उसके साथ डिगरी कॉलेज में पढ़ता था और न जाने किन क्षणों में मीनू को अपनी बहन कहने लगा था |खूब घर पर आना-जाना था |पुष्प तथा राज का विवाह बाद में हुआ था लेकिन दोनों पहले ही से अम्मा के पास आया-जाया करते थे |राज बैंक में था तब मीनू की माँ ने उसके कहने पर,उसके विश्वास पर मीनू के विवाह के सारे जेवर बैंक में रख दिए थे और मीनू की शादी के लगभग पन्द्रह दिन पहले ही राज ने बैंक से सारे ज़ेवर लाकर माँ के हाथ में उनकी अमानत सौंप दी थी |
“फिर ---न—न कुछ गलतफहमी होगी ,ऐसा काम कैसे कर सकते थे ये लोग ?” रुकमा का मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं था लेकिन एक पशोपेश की स्थित में वह अवश्य आ गई थी |
“कोई भी विश्वास नहीं कर सकता ,तुम्हारे स्थान पर मैं हूँ तब मैं भी नहीं ----“मीनू ने एक लंबी आह भरी |
“दो बार तो शादी से पहले ही यह काण्ड हो चुका था ,हमें तो कभी रत्ती भर भी शक नहीं हो पाया|"
जब मैं शादी के बाद आई तब मेरी ससुराल का ज़ेवर भी इन्होने नहीं छोड़ा और राज पिटाई करता रहा उस भोले मासूम सोलह वर्ष के लड़के की जो गाँव से हमारे यहाँ पढ़ने आया हुआ था और हमारे घर पर ही रहता था | उसे घर से निकलवाकर ही तो दम लिया था इन्होंने---”
“फिर तुम्हें पता कैसे चला?” रुकमा की आँखें आश्चर्य से फट रही थीं |
“जब मैं अपने बेटे के जन्म के बाद उसको लेकर आई थी तब हमारे घर के पास चौधराइन की बहू का सतलड़ा हार चोरी हो गया था |उस समय शायद तुम लोग कहीं और रहने चले गये थे ---”
“हाँ,तुम्हारे जीजाजी का तबादला देहरादून हो गया था |”
“उस चोरी में चौधराइन के घर इन लोगों को पकड़ लिया गया था |मुझे और अम्मा को भी उस समय बहुत अचंभा हुआ |बस किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर जेल जाने से बच गए थे ये लोग |हमारे और चौधराइन के घर एक ही तरह से काम किया था दोनों ने | कहा कि ;
“ मुझे कपड़ा बदलना है ,महीने से हूँ ----”राज बाहर ही बैठा रहा और पुष्प उनके ‘बॉक्स-रूम’ में घुस गई थी |(यह उन दिनों की बात है जब स्त्रियों को रजस्वला होने के समय पुराने कपड़े का प्रयोग करना पड़ता था | उन दिनों सेनिटरी पैड्स नहीं मिलते थे |)
“यही बात इसने अम्मा से भी कही थी लेकिन सीधे स्वभाव की होने के कारण अम्मा को कुछ ख्याल ही नहीं आया और राज चोरी कबूलवाने के लिए उस मासूम लड़के को पीटता रहा जो हमारे घर रहता था | अंत में रो-गाकर हम चुप हो गए लेकिन जब इसने चौधराइन के यहाँ ये काण्ड किया तब चौधराइन ने अचानक ही पूछ लिया ;
“अरी पुष्प ! तेरे तो दिन चढ़े हुए हैं तू कपड़ा काहे को बदलने गई ---?”
“इसका और राज का मुह फक्क पड़ गया था |तेज़-तर्रार चौधराइन ने आनन-फानन में दोनों की तलाशी ले डाली थी और इसकी कमर में बंधा हुआ अपनी बहू का हार निकल लिया था |”
रुकमा के साथ मामी जी भी इस भेद के खुलने से आश्चर्य में भर उठीं थीं,उनके सामने ही तो मीनू का ज़ेवर चोरी हुआ था जिसका कोई अता -पता नहीं लग सका था ,सब लोग चुप्पी साधकर बैठ गए थे जैसे कोई कहर सा टूट पड़ा था | बेहद आश्चर्य था किन्तु शक की कोई गुंजायश नहीं थी| मन के भीतर व बाहर एक सन्नाटा सा पसर गया था |अचानक ही सन्नाटे में एक आवाज़ उभरी|
बाहर से रुकमा के पति की बेचैनी भरी आवाज़ आई और वह बाहर की ओर लगभग भागती हुई सी गई | दो मिनट बाद ही वह अन्दर थी | उसकी आँखों में एक अजीब प्रकार की संवेदना से मीनू चौंक उठी |कुछ तो था ;
“क्या हुआ ?” मीनू के मन में पुष्प के प्रति एक अजीब सी खलल पैदा हो गई थी,वह अभी भी उसी मन:स्थिति में थी|
“ बस क्या बताऊँ ?”अचानक रुकमा बोल उठी |
“ क्या हुआ रुकमा ?”मामी जी ,जो दूसरे सोफे पर बैठी थीं उसके पास खिसक आईं |उनकी आवाज़में घबराहट थी और मीनू के मन में थर्राहट !
“ बस क्या बताऊँ ---जो तुमने अभी कहा उससे मैं तो सहम गई हूँ –पर जाना तो पड़ेगा ही –” वह पल भर को रुक गई फिर बोली ;
“पुष्प अपने घर में गिर पड़ी है ,उसको फालिज पड़ गया है,उसके किराएदार का लड़का इन्हें बताकर गया है अभी| उसके पास इस समय कोई नहीं है |इन्होंने एम्बुलेंस को फोन कर दिया है |”
मीनू का कलेजा मुँह को आने लगा ! यह क्या हुआ पल भर में ही ! क्या किसी की आह इतना शीघ्र काम कर जाती है?उसने तो पुष्प का बुरा नहीं चाहा था | वर्षों पुराना जख्म खुल गया था
,आखिर क्यों? उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा और मुख पर पसीना चुहचुहा आया| उसने तो स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोचा था | वर्षों की बात अचानक क्यों खुली होगी ? उसने कभी इस दृश्य की कल्पना तक न की थी|
मामी जी का मुख श्वेत पड़ गया था ,वे कुछ भी कहने की स्थिति में ही नहीं थीं | उनकावृद्ध शरीर अचानक अति शिथिल हो आया था | मीनू बामुश्किल उन्हें घर तक लेकर आई और
वापिस आकर रुकमा के साथ पुष्प के पास अस्पताल की ओर चल दी | उसके ह्रदय की खराश उसे चैन नहीं लेने दे रही थी|बहुत अच्छी नहीं थी पुष्प की स्थिति लेकिन अस्पताल में यानि कहने को 'सेफ़ हैंड्स ' में थी | वह अपने शहर वापिस लौट आई थी | मन में कहीं न कहीं कुछ घुटन सी भरी रही कई दिन तक !
लगभग एक सप्ताह के बाद रुक्मा का फ़ोन था ;"यार ! पुष्प नहीं रही ---" मीनू स्तब्ध खड़ी रह गई | मन में स्वयं को धिक्कारते हुए वह सोच रही थी कि जो कुछ भी हुआ था ,उसके मन में उसकी ख़राश तो थी ,इसमें कोई संशय नहीं पर उसने पुष्प के बारे में ऐसा तो नहीं सोचा था !
डॉ .प्रणव भारती
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