मानस के राम
भाग 13
भरत का चित्रकूट प्रस्थान
अगले दिन प्रातःकाल भरत और उनका दल चित्रकूट की तरफ प्रस्थान के लिए तैयार था। भरत ने जब चलने की आज्ञा मांगी तो भारद्वाज ऋषि ने उन्हें चित्रकूट का मार्ग समझाते हुए कहा,
"यहाँ से ढाई योजन दूर मंदाकिनी नदी के किनारे एक वन है। उस वन में चित्रकूट नाम का एक पर्वत है। उसी चित्रकूट पर्वत की दक्षिणी ढलान पर राम अपनी पत्नी और भाई के साथ एक कुटिया बनाकर रहते हैं।"
भारद्वाज ऋषि से चित्रकूट जाने का मार्ग समझने के बाद भरत अपने दल के साथ आगे बढ़ गए। मार्ग में कई वनों को पार करते हुए मंदाकिनी नदी के किनारे पहुँचा। जब चित्रकूट पर्वत के पास पहुँचे तब भरत ने महर्षि वशिष्ठ से कहा,
"गुरुदेव यहाँ से पर्वत की चढ़ाई है। आपको, माताओं को तथा सैनिकों को चढ़ने में समय लगेगा। अतः मेरा सुझाव है कि आप सब अपनी गति से आगे बढ़ें। मैं भ्राता शत्रुघ्न एवं सुमंत जी के साथ आगे बढ़ता हूँ। मुझसे अब भ्राता राम के दर्शन करने के लिए और अधिक प्रतीक्षा करना संभव नहीं होगा।"
महर्षि वशिष्ठ ने आज्ञा दे दी। निषादराज गुह भी अपने मित्र राम से मिलने के लिए उतावले थे। उन्होंने भी साथ चलने की प्रार्थना की। भरत निषादराज, शत्रुघ्न और सुमंत के साथ चित्रकूट पर्वत की तरफ बढ़ गए।
चित्रकूट एक रमणीक स्थल था। राम तथा लक्ष्मण ने वन में रह रही जनजाति के लोगों की सहायता से एक सुंदर कुटी का निर्माण किया था। यहांँ प्रकृति की गोद में राम सीता और लक्ष्मण सुखपूर्वक रह रहे थे। यहाँ की प्राकृतिक छटा बड़ी लुभावनी थी। सुंदर फूलों से लदे वृक्ष , चहकते पक्षी , निर्मल और शीतल जल धाराएं थीं। इन सब के बीच उनका मन रम गया था। ना तो उन्हें महलों के सुख याद आते थे और ना ही वन के कष्ट ही उन्हें अनुभव होते थे। कभी कभी राम महाराज दशरथ के दुख की याद करके भावुक हो जाते थे। यहाँ आस पास रहने वाले ऋषियों मुनियों का सानिद्ध्य उन्हें अच्छा लगता था। चित्रकूट में यह समय आनंद में बीत रहा था।
राम का प्रयास रहता था कि वह सीता को सदैव प्रसन्न रखें। वह उन्हें आसपास के वन में विचरण करने के लिए ले जाते थे। अक्सर दोनों मंदाकिनी नदी के तट पर जाकर बैठते थे। राम सीता से कहते थे कि वनवास में आने से ही उन लोगों को प्रकृति का सामीप्य प्राप्त हुआ। अन्यथा उन नगर वासियों को प्रकृति की अनुपम सुंदरता का आनंद उठाने का अवसर कहांँ मिलता। उन्हें वन में आने का कोई दुख नहीं है। बल्कि इस बात की प्रसन्नता है कि वह अपने पिता के दिए हुए वचनों की रक्षा कर सके।
तीनों तपस्वियों जैसा जीवन जी रहे थे। यहाँ उनकी आवश्यकताएं कम थीं। जो कुछ उन्हें चाहिए था वह आसपास से ही प्राप्त हो जाता था। लक्ष्मण वन से लकड़ियां एवं कंद मूल आदि ले आते थे। जिसकी सहायता से सीता रसोई में भोजन पकाती थीं। जिसे तीनों लोग प्रेम से खाते थे।
लक्ष्मण हमेशा इसी प्रयास में रहते थे कि उनके रहते राम तथा सीता को कोई कष्ट ना हो। रात में जब राम तथा सीता विश्राम करते थे तब वह कुटी के बाहर उनकी रक्षा के लिए पहरा देते थे।
लक्ष्मण वन में लकड़ी काटने गए थे। वन के निवासियों ने उन्हें सूचना दी कि एक बड़ी सी सेना चित्रकूट पर्वत की तरफ बढ़ रही है। लक्ष्मण ने एक वृक्ष पर चढ़ कर देखा तो उन्हें एक दल आगे बढ़ता दिखाई पड़ा। रथों पर अयोध्या की ध्वजा लहरा रही थी। उन्हें लगा अवश्य ही भरत ने उन लोगों पर आक्रमण किया है। वह तुरंत राम के पास गए।
राम तथा सीता बैठे बातें कर रहे थे। लक्ष्मण क्रोध में भरे हुए वहाँ पहुँचे। उन्होंने राम से कहा,
"भरत को राज्य पाकर संतुष्टि नहीं हुई। अतः वह हमारे प्राण लेने के उद्देश्य से आ रहा है।"
राम ने लक्ष्मण को शांत कराते हुए कहा,
"प्रिय लक्ष्मण तुम बहुत जल्द ही उत्तेजित हो जाते हो। क्रोध में मनुष्य सही प्रकार से नहीं सोंच पाता है। मैं भरत को जानता हूँ। वह ऐसा कुछ नहीं करेगा।"
"मैंने अपनी आँखों से उस दल को आगे बढ़ते देखा है। अयोध्या का ध्वज लहराते देखा है मैंने। इसका तो अर्थ यही हुआ कि भरत उस दल का नेतृत्व कर रहा है।"
राम ने कहा,
"लक्ष्मण वह भरत होगा। पर तुम कैसे कह सकते हो कि वह हम पर आक्रमण करने ही आ रहा है। उसे इसकी क्या आवश्यकता है ?"
"आप विशाल ह्रदय हैं। इस दुनिया के छल प्रपंच को नहीं समझते हैं। सोचा होगा कि अभी तो राज्य मिल गया। चौदह वर्ष के बाद जब आप वापस जाएंगे तो कहीं अपना अधिकार वापस ना मांग लें। इस डर से अपनी माता के भड़काने पर वह यहाँ आ रहा होगा।"
"ऐसा भी हो सकता है कि वह हमसे मिलने आ रहा हो। पिता महाराज भी हो सकते हैं। वह हम लोगों से मिलने आना चाहते हों।"
"मुझे पूरा यकीन है कि वह भरत ही है। हमसे मिलने की उसे क्या आवश्यकता है ? वह अवश्य ही हम पर आक्रमण करने आ रहा है। आप बस आज्ञा दें। मैं पल भर में उसे और उसकी सेना को धूल चटा दूँगा।"
राम मुस्कुराए। लक्ष्मण की तरफ देखकर बोले,
"मैं तुम्हारे सामर्थ्य से परिचित हूँ। पर तनिक सोचो हम वनवासियों को मारने के लिए वह इतनी बड़ी सेना लेकर क्यों आएगा ? अवश्य कोई और बात है जो वह दल के साथ आ रहा है।"
लक्ष्मण को पूरा विश्वास था कि भरत उन लोगों की हत्या के इरादे से ही आ रहे हैं। वह मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा,
"इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं हो सकती है। अपनी कुटिल माता के कहने पर भरत आपकी हत्या के इरादे से ही आ रहा है। परंतु वह नहीं जानता कि लक्ष्मण आपके लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकता है। बस आप आज्ञा दें।"
राम ने कहा कि भरत को आने दो फिर निर्णय करना। भरत कभी भी इस इरादे से यहाँ नहीं आएगा। उसे राज्य का मन नहीं है। हो सकता है वह मुझे मना कर ले जाने के लिए आ रहा हो। वह मेरे लिए कुछ भी कर सकता है। मैं यदि यह कहूँ कि अयोध्या का राज त्याग कर तुम्हें सौंप दे तो वह उसके लिए भी तैयार हो जाएगा। राम के समझाने से लक्ष्मण शांत हो गए।
राम तथा भरत का मिलाप
कुछ ही देर में भरत शत्रुघ्न, निषादराज और सुमंत के साथ वहाँ पहुँच गए। राम को देखते ही वह भाग कर उनके पैरों में गिर कर वह विलाप करने लगे। राम ने उन्हें उठाकर ह्रदय से लगा लिया। दोनों के नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। दोनों कुछ क्षणों तक वैसे ही आलिंगनबद्ध रहे। भरत के चेहरे पर पश्चाताप साफ झलक रहा था। लक्ष्मण उसे देखकर लज्जित हो रहे थे। अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर भरत ने कहा,
"मैं आपके प्रेम के लायक नहीं हूँ। मैं आपका अपराधी हूँ। मेरी माता की कुटिलता के कारण ही आपको वन में आना पड़ा। मैं तो इस लायक भी नहीं किया आपसे क्षमा मांग सकूँ।"
राम ने प्रेस से कहा,
"शांत हो जाओ भरत इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम्हारे निष्कपट और निर्मल ह्रदय को मैं अच्छी तरह जनता हूँ। ना ही माता कैकेई के प्रति मेरे ह्रदय में कोई कटुता है। मैंने स्वयं पिताजी के वचन का पालन करने हेतु वन आना स्वीकार किया था। अतः तुम अपने ह्रदय में कोई भार ना रखो।"
शत्रुघ्न भी लक्ष्मण और सीता से मिले। उसके बाद राम के चरण स्पर्श किए। राम ने शत्रुघ्न को अपने सीने से लगा लिया। भरत लक्ष्मण के पास गए। बड़े प्यार से उनके हालचाल पूँछे। लक्ष्मण मन में पछता रहे थे कि उन्होंने भरत पर संदेह किया। उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा,
"मुझे क्षमा कर दो। मैंने तुम संदेह किया।"
भरत ने कहा,
"इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। जो भ्राता राम के साथ हुआ। उसके बाद हर व्यक्ति मुझ पर संदेह करता है। परंतु मेरे ह्रदय में यह जानकर ठंडक पहुँची कि भ्राता राम मुझे निर्दोष समझते हैं।"
भरत सीता के पास गए और उनके पांव छूकर क्षमा मांगी। सीता ने भी राम की तरह ही कहा कि जो हुआ उसके लिए वह स्वयं को दोष ना दें। उन्हें कोई कष्ट नहीं है।
राम अपने मित्र निषादराज से बड़े प्रेम के साथ मिले। उन्होंने निषादराज को गले से लगा लिया। सुमंत को प्रणाम करने के बाद राम ने भरत से पूँछा,
"क्या हुआ है अनुज तुम अयोध्या छोड़कर यहाँ क्यों आए हो ? अयोध्या में सब कुशल तो है ?" यह बताओ कि पिता महाराज कैसे हैं ? मेरी माताओं के क्या हालचाल हैं ?"
राम का प्रश्न सुनकर भरत चुप हो गए। उनके चुप होने से राम अनहोनी की आशंका में अधीर हो गए। भारत ने झुके हुए नेत्रों से हाथ जोड़ कर कहा,
"आपका वियोग पिताजी सहन नहीं कर पाये। उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। "
महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार सुन कर राम बहुत दुखी हुए। सीता और लक्ष्मण भी शोक में डूब गए। लक्ष्मण विलाप करते हुए राम के सीने से लग गए। शत्रुघ्न और निषादराज उन्हें तसल्ली देने लगे। यह देखकर भरत आत्मग्लानि से भर गए। सुमंत ने राम से कहा कि वह धीरज बनाए रखें। होनी पर किसी का वश नहीं चलता है। उन्होंने बताया कि उन लोगों के साथ महर्षि वशिष्ठ एवं तीनों माताएं भी आई हैं। वह सभी पीछे पीछे आ रहे हैं। यह सुनकर राम स्वयं उनकी अगवानी करने आगे बढ़े। परंतु तब तक महर्षि वशिष्ठ तीनों रानियों के साथ वहां पहुँच गए।
राम ने आगे बढ़कर महर्षि वशिष्ठ के पैर छुए। लक्ष्मण तथा सीता ने भी उनका आशीर्वाद लिया।
राम, सीता और लक्ष्मण बारी बारी से माताओं से मिले। माता कौशल्या और सुमित्रा तीनों को साधारण वनवासियों की तरह रहते देख बहुत दुखी हो रही थीं। राम ने माता कौशल्या को धीरज बंधाने का प्रयास किया तो वह और अधीर हो गईं और राम को गले से लगा कर रोने लगीं। राम ने उन्हें शांत कराया। राम जानते थे कि कैकेई अपने को अपने किए पर बहुत पछतावा है। उन्होंने कैकेई को पूरा भरोसा दिया कि जो कुछ हुआ उसके लिए वह उन्हें दोषी नहीं मानते हैं। अतः वह अपने मन में कोई भार ना रखें।
उसके बाद राम तथा लक्ष्मण गुरु वशिष्ठ के साथ मंदाकिनी नदी के तट पर गए और अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए तर्पण किया।