मानस के राम (रामकथा) - 12 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मानस के राम (रामकथा) - 12






मानस के राम
भाग 12




भरत का अपने दल के साथ प्रस्थान



वन जाकर राम को वापस लाने की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। बस अब सही समय पर कूच करना बाकी था।
कौशल्या के महल में सुमित्रा उनके साथ इसी विषय पर बात कर रही थीं। सुमित्रा ने कैकेई से कहा,
"दीदी भरत को राजगद्दी का तनिक भी लोभ नहीं है। राम को कितना प्रेम करता है। उसे वापस लाने के लिए हम सबको लेकर वन में जा रहा है। मैंने तो शत्रुघ्न से कह दिया है कि जैसे लक्ष्मण राम की सेवा में है वैसे ही तुम भरत की सेवा करो।"
कौशल्या ने सुमित्रा की तरफ प्रेम से देखते हुए कहा,
"तुम धन्य हो। एक बेटा अपने बड़े भाई के साथ वन में गया है। दूसरे को भी सेवा का उपदेश दे रही हो। पर अब मेरे और तुम्हारे दुख के अंत का समय निकट है। राम लक्ष्मण और सीता जल्दी ही अयोध्या वापस आ जाएंगे। तुमने सही कहा भरत में तनिक भी लोभ नहीं है।"
"दीदी अपनी माता के किए के कारण वह बहुत लज्जित है‌। उसने अपनी माता से सारे संबंध तोड़ लिए हैं।"
"पर सुमित्रा कैकेई अपने किए कल बहुत पछता रही है। मैंने सुना है कि वह भी हमारे साथ राम को लाने के लिए वन जाना चाहती है‌।"
"हाँ दीदी मैंने भी यही सुना है। मुझे लगता है यदि कैकेई को अपने किए पर पछतावा है तो उसे भी साथ ले जाना चाहिए।"
भरत शत्रुघ्न के साथ कौशल्या के महल में आए‌। दोनों माताओं को प्रणाम करने के बाद उन्होंने कहा,
"सारी तैयारियां हो गई हैं। गुरुदेव वशिष्ठ ने कहा है कि कल ही हम भ्राता राम को लेने के लिए वन में जाएंगे।"
कौशल्या ने कहा,
"यह तो बहुत अच्छी बात है। कल राम की तीनों माताएं उसे लेने जाएंगी।"
तीनों माताओं की बात सुनकर भरत को अच्छा नहीं लगा। परंतु संकोचवश वह कुछ नहीं कह पाए। सुमित्रा भरत के हृदय के भाव को समझ गईं। वह बोलीं,
"पुत्र पश्चाताप की अग्नि बड़े से बड़े पापा को जला देती है। इस अग्नि में तप कर हृदय निर्मल हो जाता है। कैकेई भी इस अग्नि में जलकर निर्मल हो गई है। तुम्हारे मन में उसके लिए जो भी मैल है उसे निकाल दो।"
भरत ने कहा,
"माता अब पछताने से क्या लाभ ? पिता महाराज तो मेरे भ्राता राम के वियोग में प्राप्त कर चले गए। अब उन्हें तो वापस नहीं लाया जा सकता है। अपने संसार में आग लगाकर पछताने से भी क्या फायदा।"
कौशल्या ने समझाया,
"पुत्र तुम्हारे पिता महाराज तो वापस नहीं आ सकते हैं। परंतु जो जीवित है और अपने किए पर पछता रहा है उसे क्षमा अवश्य किया जाना चाहिए। राम ने अपने पिता के वचन का मान रखने के लिए वनवास पर जाना स्वीकार किया। उसके मन में कैकेई के लिए कोई बैर नहीं था। इसलिए तुम भी अपनी माता से बैर त्याग दो।"
"परंतु मेरे भ्राता राम के लिए वनवास मांगने वाली मेरी माता ही तो थी। यदि वह उस दासी मंथरा की बातों में ना आई होती तो क्या यह सब कुछ होता।"
सुमित्रा ने समझाया,
"कैकेई ने भूल की है इसी बात का तो पछतावा है उसे। इसलिए तुम भी उसे माफ कर दो। उसे भी हमारे साथ राम को वापस लाने के लिए ले चलो।"
अपनी माताओं के समझाने पर भरत इस बात के लिए तैयार हो गए कि कैकेई भी उनके साथ वन में जाएगी।

अगले दिन नियत समय पर सारा राम को वापस लाने के लिए चल पड़ा।

निषादराज गुह द्वारा भरत को रोकना

भरत अपने दल के साथ आगे बढ़ रहे थे। उनके घर में कई रथ थे। जिन में महर्षि वशिष्ठ अन्य गुरुजन, मंत्रीगण एवं तीनों माताएं थीं। साथ में सैनिक भी थे।
निषादों के राजा गुह को अपने गुप्तचरों से सूचना मिली कि गंगा नदी के उस पार एक विशाल दल आगे बढ़ता हुआ आ रहा है‌। सूचना मिलते ही निषादराज अपने लोगों के साथ गंगा तट पर पहुँचा। एक ऊँचे स्थान पर चढ़कर उसने देखा। उसे मिली हुई सूचना सही थी। उसने देखा कि रथों पर लगे ध्वजों पर अयोध्या का राज चिन्ह अंकित है। निषादराज को लगा कि कैकैई का पुत्र भरत राम की हत्या करने के इरादे से इस तरफ बढ़ा चला आ रहा है। उसे बहुत क्रोध आया। मैं सोच रहा था कि षड्यंत्र रच कर पहले अपने भाई को वन भेज दिया। इतने पर भी तसल्ली नहीं मिली तो उसकी हत्या करने के लिए दल बल के साथ आ रहा है। उसने अपने साथियों से कहा,
"यह दल अयोध्या के राजा भरत का है। मुझे उनके इरादे ठीक नहीं लगते। मैं उनकी मंशा को परखने के लिए कुछ आदमियों के साथ नाव पर बैठ कर उस पार जा रहा हूँ। तुम सब तैयार रहना। यदि वह हमारे राम प्रभु को कोई हानि पहुँचाने आ रहे हैं तो मैं तुम्हें इशारा करूँगा‌। तुम लोग भी नावों में बैठकर उस पार आ जाना। हम सब अपने प्राणों की बलि देकर भी प्रभु राम की रक्षा करेंगे।"
निषादराज अपने कुछ आदमियों को लेकर नदी के उस पार भरत से मिलने गए।
जब निषादराज और उनके आदमी गंगा नदी के उस पार पहुँचे तो सुमंत ने उनका परिचय भरत से कराया,
"यह निषादों के राजा गुह हैं। जब राम लक्ष्मण और सीता के साथ वन गमन के लिए निकले थे तब इन्होंने उनका सत्कार किया था। यह राम के मित्र हैं।"
सुमंत के मुंह से निषाद राज के विषय में सुनकर भरत ने शत्रुघ्न के साथ निषादराज को प्रणाम किया। वह बोले,
"आप मेरे भ्राता राम के मित्र हैं। अतः हमारे लिए भी भाई के समान हैं। हम सभी भ्राता राम को मनाकर वापस अयोध्या ले जाने के लिए जा रहे हैं। आप तो इस प्रदेश से अच्छी तरह से परिचित होंगे। आप हमारी भारद्वाज ऋषि के आश्रम तक पहुँचने में सहायता कीजिए।"
भरत के इस आचरण को देखकर निषादराज के मन में जो शंका थी वह समाप्त हो गई। उन्हें अपनी भूल पर पछतावा हुआ। उन्होंने कहा,
"मुझे क्षमा कर दीजिए। आपको दल बल के साथ आया देख मुझे आशंका हुई थी कि आप प्रभु राम को हानि पहुँचाने के इरादे से आए हैं। परंतु अब मेरे मन में कोई शंका नहीं है। मैं जो भी सहायता हो सकेगी वह करूँगा। यह तो मेरे लिए भी प्रसन्नता की बात होगी कि प्रभु राम वन वन भटकने की जगह अयोध्या वापस लौट जाएं।"
भरत ने कहा,
"मुझ पर शंका कर आपने कोई गलती नहीं की है। मेरी माता के किए हुए कर्मों के कारण अब हर वह व्यक्ति मुझे शंका की दृष्टि से देखता है जो प्रभु राम का हितैषी है।"
निषादराज ने भरत तथा उनके समस्त दल के रात्रि विश्राम की व्यवस्था की। भरत को नींद नहीं आ रही थी। वह रात भर जाग कर निषादराज से बातें करते रहे। उन्होंने निषादराज से‌ उस समय के विषय में अनेक प्रश्न पूँछे जब राम लक्ष्मण तथा सीता के साथ उनके पास आए थे। निषादराज भी बड़े प्रेम से उनके समस्त प्रश्नों का उत्तर देते रहे। यह जानकर कि राम और सीता उस रात बिना कुछ खाए पिए घास के बिछौने पर सोए थे भरत बहुत दुखी हुए।
बार बार इस बात के लिए वह अपने आप को धिक्कार रहे थे कि उनके कारण ही राम और सीता को इतने कष्ट झेलने पड़े। बस उन्हें एक बात की तसल्ली थी कि अब वह अपने भ्राता राम को मनाकर अपने साथ अयोध्या वापस ले जाएंगे।
अगले दिन निषादराज ने समस्त दल के गंगा पार करने के लिए कई नौकाओं की व्यवस्था कर दी। नौकाओं में बैठकर दल आगे बढ़ने लगा। सभी बहुत प्रसन्न थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वह अपने प्यार से राम को मनाकर वापस अयोध्या ले जाएंगे।


भारद्वाज ऋषि द्वारा स्वागत

सारा दल नावों में बैठकर गंगा पार पहुँच गया। गुरुदेव वशिष्ठ ने भरत से कहा कि दल बल के साथ एक ऋषि के आश्रम में जाना शोभनीय नहीं है। बाकी सब को गंगा नदी के तट पर छोड़कर भरत गुरुदेव वशिष्ठ एवं कुछ मंत्रियों के साथ भारद्वाज ऋषि के आश्रम की तरफ बढ़ गए। ऋषि के आश्रम में पहुँचकर उन्होंने मंत्रियों को भी बाहर रहने का आदेश दिया। गुरुदेव वशिष्ठ को आगे करके वह बड़े विनीत भाव से उनके पीछे चलते हुए भारद्वाज ऋषि के आश्रम में गए।
ऋषि भारद्वाज ने महर्षि वशिष्ठ और भरत का स्वागत किया। अपने शिष्य से कहा कि वह उनके लिए अर्घ्य लेकर आए। अर्घ्य से पांव धुलवाने के बाद उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को आसन पर बैठाया। महर्षि वशिष्ठ ने भरत का परिचय कराया। उन्हें अयोध्या में घटित सारी घटनाओं के बारे में बताया। ऋषि ने एक राजा की भांति ही उनका स्वागत किया। उसके बाद उनके आने का कारण पूँछते हुए भारद्वाज ऋषि ने कहा,
"राजा के लिए अपने राज्य का संचालन करना परम कर्तव्य है। भरत का अयोध्या को छोड़कर मेरे आश्रम में आने का क्या प्रयोजन है ?"
महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"राम ने अपने पिता के वचनों रक्षा के लिए अयोध्या की राजगद्दी पर अपना अधिकार त्याग कर वन में आना स्वीकार किया। राजगद्दी भरत को मिली। पर भरत को यह स्वीकार नहीं है। अतः राम को मनाकर वापस अयोध्या ले जाने की इच्छा से भरत इस वन में आए हैं। आप हमें बताने की कृपा करें कि राम कहाँ होंगे ?"
भारद्वाज ऋषि ने कहा,
"राम अपने अनुज लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ चित्रकूट में निवास कर रहे हैं। आज हमारा आतिथ्य ग्रहण करें। कल राम से भेंट करने के लिए चित्रकूट की ओर प्रस्थान कीजिएगा।"
भारद्वाज ऋषि की बात सुनकर भरत को संकोच हुआ। उन्होंने कहा,
"गुरुदेव मेरे साथ मेरे मंत्री, तीनो माताएं एवं सैनिक हैं। इन सबके आगमन से आपके आश्रम की शांति भंग होगी‌।"
भारद्वाज ऋषि मुस्कुरा कर बोले,

"आप उसकी चिंता ना करें। अपने दल को आश्रम में आने का संदेश भेज दें।"
भरत ने अपने दल को बुलवा लिया। भारद्वाज ऋषि ने अपनी मंत्र शक्ति से सभी के रहने व भोजन की समुचित व्यवस्था कर दी।
महाराज दशरथ की तीनों रानियां भारद्वाज ऋषि का आशीर्वाद लेने आईं। भरत ने कौशल्या और सुमित्रा का परिचय बड़े प्रेम से कराया। ‌ जब कैकई की बारी आई तो उन्होंने भारद्वाज ऋषि से कहा कि यह मेरी माता हैं। सारी विपत्तियों की जड़ यही हैं।
भारद्वाज ऋषि ने उनसे कहा कि वह अपनी माता के प्रति कठोरता ना बरतें। क्योंकि उन्हें अपने किए पर पश्चाताप है।