30 शेड्स ऑफ बेला
(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)
Day 30 by Sudarshana Dwivedi सुदर्शना द्विवेदी
एक थी बेला
" मैं मर जाऊंगा, भूख से जान निकल रही है मेरी। और सब तेरी वजह से रोहित।" भुक्कड़ ने सचमुच पेट पकड़ रखा था। रोहित बिना उसे देखे आगे बढ़ गया, मगर इला उसके पास रुक गयी।
"थोड़ी हिम्मत कर, ज़रूर कुछ मिलेगा। कोई तो रहता होगा यहां।"
"भूत ,भूत रहते होंगे और वे हमें खाना देंगे नहीं, खाना बना लेंगे। कितना कहा था उस पकोड़ी वाले की दुकान पर रुक जाते, मगर उसका तेल काला था। काला था या पीला, अरे पेट तो भरता।अब तो पता नहीं भूत खाएंगे या नरभक्षि बाघ।" भुक्कड़ सचमुच तड़प रहा था।
" डर मत।भूत आने में अभी देर है ,वे दिन में नहीं आते, और बाघ...."
"....कुमाऊं के जंगलो में होते हैं ।" रोहित ने ठहाके के साथ इला का वाक्य पूरा किया।
"तुम हंस तो रहे हो रोहित ,मगर सचमुच हमें चलते हुए काफ़ी देर हो गयी है। थोड़ी देर में अंधेरा हो जाएगा। उससे पहले हमें कोई बस्ती या घर मिलना ही चाहिए ।"
"तुम तो ऐसे कह रही हो इला, जैसे ये मेरे बस में हो।"
"ये बस में नहीं है पर जीप लेते समय पेट्रोल चेक करना तो था । इंद्रनगर जाने का तो आइडिया तुम्हारा ही था । बाक़ी सब तो ऋषिकेश में रिवर राफ़्टिंग करना चाहते थे।"
"तो मैंने तो ये भी सजेस्ट किया था कि हम आनंदा की तरफ़ मुड़ लें, बोर्ड दिख तो रहा था।"
"और मैंने तभी ये भी बताया था कि वो हम जैसे बजट ट्रैव्लर्ज़ के लिए नहीं है। जूलिया रॉबर्ट जैसे लोग आते हैं वहां।"
"अरे देखो कितनी बड़ी कोठी!" अब तक शांत मिनी ज़ोर से चिल्लायी ।
"कहां?" इस बार इला और रोहित के साथ भुक्कड का स्वर भी था।
"वो उन देवदार के दरख़्तों के पीछे।"
"आर यू श्योर कि देवदार ही हैं?" रोहित का तार्किक दिमाग़ फिर चालू हो गया था।
" जो भी हैं, उनके पीछे कोई बहुत बड़ा सा सफ़ेद घर जैसा दिख तो रहा है। चलो उधर चल कर देखते हैं ।"
इला की बात ख़त्म होते ना होते चार जोड़ी थके कदमों में जैसे नयी शक्ति आ गयी। उम्मीद में बड़ी ऊर्जा होती है।
भुक्कड़ की मरियल चाल में भी गजब की फुरती आ गई। यहां यह बता दें कि भुक्कड़ का एक अच्छा नाम है सुवीर। मगर क्योंकि वह हर वक्त खाने और सिर्फ खाने की बात करता है, इसलिए दोस्तों ने उसका नाम भुक्कड़ रख दिया है।
चार दोस्तों रोहित, इला, सुवीर और मिनी की यह चौकड़ी दिल्ली से ऋषिकेश आई थी, वीक एंड लंबा सा था, सोचा मस्ती रहेगी। रही भी, पर अचानक रोहित को तरंग आई इंद्रनगर जाने की, सुना था बहुत खूबसूरत पहाड़ी इलाका है। जीप किराए पर ली थी, सो निकल पड़े। पर यह किसी ने भी नहीं सोचा कि इतना ऊपर जाने लायक पेट्रोल भी बचा है या नहीं। लिहाजा जब बीच रास्ते में पेट्रोल खत्म हुआ तो जीप को एक किनारे लगा कर खाने, पेट्रोल, और किसी सहायता के लिए ऊपर चढ़ते जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। पर इस सुनसान में चंद पंछियों या इक्का-दुक्का जानवरों के अलावा कोई व्यक्ति नजर नहीं आया था। मूल रास्ता छोड़ कर ऊपर चढ़ते चले जाने से ही शायद ऐसा हुआ होगा। तभी वह सफेद कोठी नजर आ गई। चढ़ाई तो अभी भी काफी थी, मगर सामने एक मंजिल नजर आने से हांफने के बावजूद कोई न रुकने का नाम ले रहा था, ना कुछ बोल रहा था।
आधे घंटे की खड़ी चढ़ाई के बाद पेड़ों के झुरमुट के पीछे के इस भव्य भवन का सौंदर्य देखते ही बनता था। इमारत बहुत बड़ी थी। सफेद चूने से पुती, पर दूर से संगरमरी लग रही थी। चारों ओर वृक्ष, पौधे, लताएं। इमारत काफी पुरानी लग रही थी जैसे बरसों पुरानी हो। एक छोटी सी पगडंडी आगे जा कर बांस के फाटक पर खत्म हो रही थी, जहां लिखा था कुत्तों से सावधान। इधर-उधर देखने पर एक तिब्बती स्टाइल की विशाल घंटी लटकती दिखी।
‘इसे बजाते हैं,’ मिनी ने कहा। तुरंत चारों हांफना छोड़ कर घंटी पर लपके। आठ हाथों की सामूहिक थाप से घंटी जोर से बज उठी। और उसके नाद से बाग में छिपे बहुत से पक्षी जोर से उड़ने लगे। दो भयानक कुत्ते भी बेतरह भौंकते हुए आक्रामक मुद्रा में बंद गेट के पास आ खड़े हुए। इस अप्रत्याशित स्वागत से स्तब्ध चारों धीरे-धीरे पीछे खिसक ही रहे थे कि एक प्रौढ़ वय की स्त्री वहां आई।
‘ये कुत्ते, ये कुत्ते… हमें काटेंगे तो नहीं?’ इला को वैसे भी कुत्तों से डर लगता था। स्त्री हंसी, ‘नहीं, मैं खड़ी हूं, तब नहीं काटेंगे। आप लोग कहां से आए हैं?’
‘जी हम लोग जे एन यू के स्टूडेंट्स हें, मास मीडिया के। छुट्टी थी इधर घूमने निकले थे।’
‘इधर? रास्ता भटक गए हैं क्या?’
‘दरअसल हमारी जीप में पेट्रोल खत्म हो गया है। हम पेट्रोल पंप या कोई होटल ढूंढ रहे हैं। कुछ भी नहीं मिला।’ रोहित ने इला की बात पूरी की।
‘तभी हमें आपका यह…’ मिनी ने जोड़ा।
‘ठीक है। आप यहीं रुके। मैं दीदी को बता कर आती हूं।’ स्त्री अंदर चली गई, मगर कुत्ते अपनी चौकसी पर बदस्तूर जमे हुए थे। सुवीर ने पुचकारने की कोशिश की, तो जवाब जिस तीखी भौंक से मिला उससे वह उछल कर दस कदम पीछे हो गया।
‘डॉबर मैन है। तू चुपचाप खड़ा रह।ये भूत से ज्यादा खतरनाक होते हैं।’ रोहित ने पीछे खिसकते हुए कहा।
‘इस पुरानी हवेली में ऐसा कौन सा खजाना है जिसकी हिफाजत के लिए ये खूंखार कुत्ते तैनात हैं यार?’ इला की उत्सुकता शांत हो इससे पहली ही वह स्त्री लौट आई थी। गेट खोलते हुए उसने दोनो कुत्तों से कहा, ‘कालू, भोलू, भीतर जाओ। फ्रेंड्स ओके।’
चारों दोस्त अभी भी डरे हुए थे। पर स्त्री के फ्रेंड्स कहते ही दोनों कुत्ते जीभ निकाल कर भीतर जाने लगे।
‘आइए।’
‘ये कुछ कहेंगे तो नहीं। ’ सुवीर के चेहर पर स्प्ष्ट आतंक था। डरे हुए तो सभी थे।
‘नहीं जब तक मैं साथ हूं, कुछ नहीं कहेंगे।’
लंबी पगडंडी के अंत में चार-पांच सीढ़ियां चढ़ कर चौड़ा बरामदा था जिसमें कई कमरों के द्वार और दोनों ओर से भीतर जाने के मार्ग थे। बीच का गोल कमरा शायद ड्रॉइंग रूम रहा होगा पर इस समय उसकी सज्जा एक ऑफिस जैसी थी। एक ओर केबिनेट्स, बीच में बडी सी मेज, पीछे एक आलीशान रिवॉल्विंग चेयर और सामने चार-पांच कुर्सियां। एक तरफ सोफा, छोटी टेबल थे। स्त्री ने उन्हें मेज के सामने की कुर्सियों पर बैठाया। और केबिनेट से एक रजिस्टर निकाल लाई। रोहित से कहा, ‘इसमें अपना सबका नाम, पता लिख दीजिए। कोई आई डी है?’
‘हां मेरा ड्राइविंग लाइसेंस।’ रोहित ने जेब से निकाल कर बाहर रख दिया। स्त्री ने उलटा-पुलटा,पढ़ा और संतुष्ट हो कर वापस रख दिया। रोहित रजिस्टर में नाम लिख रहा था।इला उसे मदद कर रही थी। मिनी उठ कर हॉल में घूमने लगी।। तभी कोने में लगी पेंटिंग पर उस की नजर पड़ी, ‘ये कौन है?’
‘यही तो हैं दीदी, जो ये आश्रम चलाती हैं।’
‘इनका नाम बेला है?’
‘बेला? पता नहीं। हम सब तो दीदी कहते हैं।‘
‘नहीं, ये बेला हैं। इला इधर आ। जल्दी।’
इल मुड़ कर आई, देखा जिस चित्र को मिनी दिखा रही है, वो तो सचमुच बेला का है। बालों में चांदी के तार झलकने लगे हैं। शरीर कुछ भर गया है। पर आंखों की चमक और सौम्य मुस्कान। बेला ही तो है।
‘ओ माई गॉड। सचमुच ये तो बेला है। पर यहां?क्यों? कैसे?’
रोहित रजिस्टर भर चुका था। दोनों लड़कियों को इतना उत्तेजित और खुश देख कर वह और सुवीर भी वहां आ गए।
‘आर यू श्योर’ उसने पूछा
‘मैंने फेसबुक पर उनके फोटो देखे हैं। पिछले एक महीने से हर दिन कतरा-कतरा करके उनकी कहानी जी है। मैं नहीं पहचानूंगी बेला को?’ अल्पभाषिणी मिनी ने इतनी लंबी बात शायद ही कभी की होगी। सुवीर प्रभावित हुए बिना नहीं रहा।
‘तुम्हारी एफबी फ्रेंड है क्या?’
‘नहीं, डफर,’ अब बारी इला की थी। ‘बेला जी कहीं गुम हो गई थीं। पिछले बीस साल से उनकी कोई इन्फॉर्मेशन ही नहीं थी।’
‘तो?’
‘तो क्या? उनके दोस्त थे ना बहुत सारे। जयंती जी को जानता है ना? अभी उनकी बॉम्बे मेरी जान पढ़ कर तू मुंबई जाने का प्लान बना रहा था।’
‘हां, पता है। तो क्या जयंती जी बेला को जानती हैं? उनकी दोस्त हैं, तो तुम दोनों इतना एक्साइट क्यों हो रही हो?’ सुवीर को लग रहा था कि बेला के चक्कर में खाना जल्दी मिलने का कोई आसार नहीं है। क्योंकि वह स्त्री भी बहुत घ्यान से उनकी बातें सुनने लगी थीं।
‘मिनी तू बता। तूने बहुत रेगुलरली फॉलो किया है।’
‘जयंती जी को जब बेला का कहीं पता नहीं चला, बनारस, दिल्ली, मुंबई, ऋषिकेश—कहीं नहीं मिली बेला तो उन्होंने बेला के सारे दोस्तों को इकट्टा किया।’
‘मीटिंग बुलाई?’
‘मीटिंग बुलानी पड़ती है इस टेक्नोलॉजी के जमाने में?’ मिनी चिढ़ गई।
‘अरे यार, उन्होंने सब दोस्तों को मैसेंजर और व्हाट्सएप किया कि हम सब बेला और उसकी जिंदगी के बारे में जो भी जानते हैं, हर दिन एफबी पर डालेंगे। एक पेज भी क्रिएट किया—'30 शेड्स ऑफ बेला' और उसमें हर दिन उन सबने बेला के बारे में वह लिखा जो उन्हें पता था। उसका प्यार कृष ,उसकी बेटी रिया, उसका हजबैंड समीर...’
‘उसके मम्मी, पापा, दोस्त, जिंदगी। बड़ी उलझी हुई जिंदगी थी बेला की। पढ़ते हुए लग रहा था कोई कहानी पढ़ रहे हैं।’ इला बोली।
‘बट यू नो न? ट्रुथ इज ऑलवेज स्ट्रेंजर दैन फिक्शन। कल उन्होंने बता दिया कि दरअसल वह यह सारी कहानी हमसे इसलिए शेयर कर रहे थे...’
‘ताकि किसी को बेला मिल जाए तो वह सबको बता दे। और तुम्हं लग रहा है कि तुम्हें बेला मिल गई?’ सुवीर को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मिनी और इला उसकी टांग नहीं खींच रहे।
‘मैंने पूरा तो नहीं पढ़ा, मगर बीच-बीच में इला कुछ बताती रहती थी तो थोड़ा बहुत पता है। पर अब क्या करें?’ रोहित की बात पर चारों मुड़ कर स्त्री को देखने लगे।
‘देखिए, आपने सुन ही लिया है कि हमारा आपकी दीदी से मिलना कितना जरूरी है।’
‘देखिए, मिलेंगी या नहीं, यह तो दीदी ही बताएंगी। पर तब तक आप मेरे साथ डाइनिंग रूम में चलिए। जो भी खाना फिलहाल है, खा लीजिए। मैं दीदी से बात करती हूं।’
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पेट की भूख शांत हुई तो मन की जिज्ञासाएं कुलबुलाने लगीं।। वे जानना चाहते थे कि वे कब उनसे से मिल पाएंगे जिसे वे बेला समझ रहे हैं। वह बेला है भी या महज संयोग या दृष्टि भ्रम। यह जगह क्या है, क्या हो रहा है और यहां कौन रहते हैं। पहले तो नहीं लेकिन अंतिम सवाल का उत्तर उन्हें मिल गया जब वही प्रौढ़ स्त्री जिसे वे अब मौसी कहने लगे थे, उन्हें आश्रम दिखाने ले गई। योग, कराटे, खिलौने, सिलाई-कढ़ाई, और जैम-सॉस अचार बनाने के भिन्न प्रशिक्षण चल रहे थे। काफी बड़े से हॉल में इन उत्पादों के पैकिंग और पैकेजिंग का काम हो रहा था। यह सारे काम विभिन्न आयु वर्ग की लड़कियां संभाल रही थीं। साथ लगी एक बालवाड़ी थी जहां शिशुओं और बालकों की संभाल-देखभाल भी लड़कियां कर रही थीं। एक ओर गो पशुशाला थी जहां की गाय-भैंसों की देखभाल भी लड़कियां ही कर रही थी। बाहर की हरियाली को पास से देखने पर पता चला कि वहां पेड़-पौधे केवल सुंदरता की नहीं बढ़ा रहे, फल और सब्जियां भी मुहैया करा रहे हैं। इनसे आश्रम की रोज की जरूरत भी पूरी होती है और बाजार में बिकने के लिए माल भी तैयार होता है।
इतना देखते-घूमते सांझ उतर आई थी। बीच में कई बार दीदी का जिक्र आया पर हर बार मौसी चतुराई से विषय बदल देती थीं। सांझ होते ही दीदी का संदेश भी आ पहुंचा। उन्होंने कहलाया था कि अब रात में पहाड़ की उतराई सुरक्षित नहीं है। सुबह माली आएगा और आश्रम की वैन का ड्राइवर भी। कल वे माल छोड़ने हरिद्वार जाएंगे। तभी उन्हें भी रास्ते में उनकी जीप तक पहुंचा देंगे और पेट्रोल भी दे देंगे ताकि वापसी की यात्रा संपूर्ण हो सके।
‘मगर दीदी? उनसे मिले बगैर हम नहीं जाएंगे।’ मितभाषी मिनी किसी छोटी बच्ची सी ही ठुनक पड़ी।
‘वे भी मिलेंगी आपको, आज रात खाने के बाद।’ संदेश दे कर युवती रुकी नहीं। चारों की शाम अब रात की प्रतीक्षा में ढलने लगी।
पूर्णिमा की रात की छिटकी चांदनी में बेला और रात-रानी की खुशबू जब पूरे वातावरण को महका रही थी, बगीचे के बीचोबीच बोन फायर जल उठी। वे चारों तो जैसे इसी सिगनल के इंतजार में थे। फौरन वहां जा कर चारों ओर गोल बिछी कुर्सियों पर विराज गए। धीरे-धीरे सभी आश्रमवासी वहां आने लगे। बीस से पच्चीस लड़कियां होंगी। किशोरियां, वयस्क युवतियां और दो-चार मध्य आयु वर्ग की भी। जब सब कुर्सियां भर गईं तो एक हलका सा स्वर गूंजा, दीदी। चारों उसी ओर देखने लगे जहां से हलके वसंती सिल्क की साड़ी पहने एक गरिमामयी स्त्री सधे नपे-तुले कदम रखती आ रही थी। विगतयौवना होन पर भी उसके मुख पर गजब का लावण्य था। करीने से कटे कंधे तक बाल। हाथ में मूंगे-मोती की दो अंगूठियां, गले में मोती की ही इकलड़ी और हाथ में शंख का कंगन। ममत्व, प्रेम और माधुर्य को अगर इनसानी शक्ल दी जा सकती है तो वही यह थी। चेहरे पर तेज, भव्यता और होठों पर मंद मुस्कान लिए वह जैसे एक साथ हर उपस्थित व्यक्ति को एक दिव्य सम्मोहन में बांध रही थी।
पूरे वातावरण में निस्तब्धता थी कि उसे चीरते हुए मिनी की आवाज आई, ‘आप बेला हैं। बेला ही हैं आप!!! हैं ना?’ महिला के चेहरे पर मुसकान आई, ‘हम सब बेला है बेटी। मैं भी तुम भी, ये सब भी। किस बेला की तलाश है तुम्हें?’
उनके हाथ के इशारे के साथ कश्मीरी कहवे के गरम गिलास सबके हाथों में पहुंचने लगे थे। मिनी इस उत्तर से कुछ हतप्रभ सी हो गई थी। इला ने उसे कहवा पकड़ाया, पीने को कहा और खुद बोल उठी, ‘आप फेसबुक पर नहीं जातीं?’
महिला हंसी, नहीं, ‘देखा नहीं, यहां वाईफाई नहीं है फोन का सिगनल भी नहीं। हम सब इससे दूर आ गई हैं।’
‘तभी आपको पता नहीं। आपके मित्र आपको तबसे खोज रहे हैं जबसे आप गायब हुई हैं।’
‘मैं गायब नहीं हुई। जीवन में सार्थकता की तलाश मुझे यहां ले आई।’
‘तो आप मान रही हैं है कि आप ही बेला हैं।’ मिनी ने फिर कहा।
"हां मैं भी बेला हूं। तुम..’
"अब फिर से मत कहिएगा कि हम सब बेला हैं।’ कहवा की गर्मी ने बेला को बोल्ड बना दिया था।
‘मैं उस बेला की बात कर रही हूं, जो अपनी दादी की अस्थियां बहाने वाराणसी आई थी और किडनैप हो गई थी, जिसकी हमशक्ल पद्मा थी, जिसकी दो माएं थीं नियति और आशा, जो कृष को प्यार करती थी और समीर से शादी कर ली थी, जो रिया की मां थी और जो अपनी तलाश में शहर-शहर भटक रही थी। क्या आप वो बेला हैं?’ बात समाप्त करते-करते मिनी काफी उत्तेजित हो गई थी और उसका स्वर इतना ऊंचा हो गया था कि सब लोग उसी की तरफ देखने लगे। ... आखिर क्या अधिकार है उन्हें ऐसे बात करने का। वे चाहें तो निकाल बाहर कर दें।
‘नहीं बोलने दो उसे।’ महिला ने इला को ही रोक दिया। ‘हम लोगों की दिक्कत ही यही है कि पहले मन की बात कह नहीं पाते। सवाल पूछना चाहते हैं, पूछ नहीं पाते। मुझे लेकर अबकोई दुविधा, कोई संशय, कोई घुटन मुझे मंजूर नहीं। क्या नाम है तुम्हारा?’
"मिनी।’ सहमे से स्वर में मिनी ने कहा।
"मिनी मैं तुम्हारे सवाल का जवाब देने से बच नहीं रही हूं। सच है कि मैं बेला हूं भी और नहीं भी और यह भी सच है कि हम सब बेला हैं।’
‘कैसे?’ अबकी बार सवाल इला का था।
‘मुझे अब कोई भटकन, कोई तलाश नहीं। हमें बचपन से औरों के लिए, औरों की तरह, उनके सुख-दुख के हिसाब से जीना सिखाया जाता है। जीवन की इस गणित को बिठाते-बिठाते उम्र बीत जाती है, लेकिन जीवन अनजिया, अनछुआ रह जाता है। हम अपने सुख औरों के पैमाने पर औरों में तलाशते रहते हैं और हर बार छले जाते हैं। जब--तब तलाश अपनी तरफ मुड़ जाती है और जब अपने पैरों को जमीन मिल जाती है, तो सुख का केंद्र भी बदल जाता है स्रोत भी और आप स्वयं भी। मेरा केंद्र, स्रोत और मैं स्वयं आज तृप्त और शांत हैं। इसीलिए जिस बेला की तलाश तुम्हें और तुम्हारे मित्रों को है, वह बेला मैं नहीं हूं।’
‘और हम सब बेला कैसे हुए?’
‘जब वह भटकाव, मोह, किसी से जुड़े बिना स्वयं को अपूर्ण मानने का भाव तुम सबमें मौजूद है तो तुम सब भी बेला हुई ना? किसी कृष के अधूरे प्यार को पाने को छटपटाती। समीर में संपूर्णता को खोजती। बेला इस छटपटाहट का, अव्यक्त सी वेदना का, अधूरेपन का प्रतीक है। उसे व्यक्ति मानकर कर मत खोजो।’
‘अच्छा मैम। आपकी ये फिलॉसफी वाली बातें इन दोनों के पल्ले पड़ रही होंगी, मै तो सीधा-सादा आदमी हूं। बस प्लीज, इतना बताइए कि आप यहां आई कैसे? यह जगह क्या है?किसकी है और आप यहां क्या कर रही हंै?’ रोहित का सवाल एकदम सीधा था।
‘मेरा यहां आना बड़ी अजीब सी परिस्थिति में हुआ।’ बेला याद करने की मुद्रा में आई। ‘यहां ये जो लड़कियां मौजूद हैं, उनमें से कुछ को, यह नहीं बताऊंगी किन्हें, नौकरी का लालच देकर देह व्यापार में बेचने के लिए लाया जा रहा था। मैं उन दिनों उस इलाके में कोई बड़ी सी जगह तलाश कर रही थी। यह तो सोच चुकी थी कि कुछ करूंगी, पर क्या, यह स्पष्ट नहीं था। तभी मुझे यह कोठी नजर आ गई।’
‘जैसे हमें नजर आई।’ भुक्खड़ उर्फ सुवीर ने बीच में टेक लगाई।
‘शायद।’ बेला हंसी।
‘दरअसल मेरे पास कुछ क्या, काफी पैसे आ गए थे और मैं उनसे कुछ नयी शुरुआत करना चाहती थी। इधर से गुजरी, तो यह घर दिखा और इसी घर में कैद थीं यह आठ लड़कियां,जिन्हें अगले हफ्ते यहां से मुंबई भेजा जाना था। उनके अगवा करने वाले इंतजाम करने हरिद्वार गए थे। तभी मैं यहां आ गई। मेरे पुलिस में परिचित हैं।’
‘इंद्रपाल?’ रोहित ने पूछा।
‘हां, पर तुम्हें कैसे पता? ओ..आई सी... फेसबुक। जयंती को तो अब पकड़ना पड़ेगा। मेरी बीस साल की शांति भंग कर दी है उसने।’
‘नहीं, मैम आपको ढूंढने की शुरुआत ना करतीं, तो हमें आपके बारे में कैसे पता चलता। आगे बताइए ना प्लीज।’ इला ने खुशामद की तो बेला हंस दी।
‘बस ये आठ लड़कियां तो यहां थी हीं। अब अपने घर तो ये जा नहीं सकतीं। इनके घरवाले अपनाते ही नहीं। सामाजिक दबाव जो होते हैं। इनसे ही शुरुआत की और अब जो काम यहां हो रहा है, वह आप देख ही रहे हैं।’
‘यह कोठी?’
‘हां, इसकी भी कहानी है। कोई नवाब साहब थे, जिनकी बेगम बेहद शक्की और गुस्सैल थीं।नवाब साहब एक तवायफ को दिल दे बैठे। बेगम साहिबा को पता चलता तो नवाब साहब के टुकड़े भी नजर ना आते, लिहाजा दुनिया की नजरों से दूर उन्होंने यह आरामगाह अपनी प्रेमिका के लिए बनवाई थी। वे दोनों तो अल्लाह को प्यारे हुए, इधर इस भूत बसेरे में आबादी से दूर कौन रहने आता? मुझे ऐसी ही जगह चाहिए थी, जो मुझे सही दाम पर मिल भी गई। यहां हम सब अपनी जरूरत की चीज खुद बनाते हैं। खुद उगाते हैं और क्राफ्ट, ड्रेसेज, प्रिजर्व्स बनाने के अलावा अपने सारे काम खुद करते हैं। इससे जो भी कमाते हैं, उसे फिर इसी आश्रम में लगा देते हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद हो पाए।’
‘रिया? रिया कहा है?’
‘और कृष? वह आपसे फिर नहीं मिला?’
‘समीर ने आपको ऐसे अकेले रहने दिया? रोका नहीं?’
‘और आपके पापा-मम्मी, आशा मां?’
इला और मिनी स्वयंचालित पिस्तौल की तरह प्रश्न पर प्रश्न दागे जा रही थीं। अब उन्हें न भय और न झिझक। उन्हें रोककर रोहित ने भी मुंह खोला, ‘और वे तीन लिफाफे जो आपको अंत में मिले थे। इला बता रही थी कि वे मिलने के बाद ही आप कहीं गुम हो गयी थीं।’
‘गुम नहीं थी बच्चों, मैं खुद को मिल गयी थी। ढूंढ़ लिया था मैंने उसे जिसकी तलाश में मैं झटपटा रही थी-मैं स्वयं, मेरा आप, मेरा वजूद जो किसी का मोहताज नहीं था। स्वयंसिद्धा बन गयी इसी क्षण में-अपने में संपूर्ण। और इतना समृद्ध हो गया मेरा कोष कि कितना भी बांट दूं, रीतता ही नहीं।’
‘पर मैम, आपने हमारे सवाल . ..’ इला ने टोका।
‘और मैम जो वो तीन लिफाफे?’ इस बार सुबीर था।
‘उन लिफाफों से ही बदल पायी मैं अपनी जिंदगी, अपनी पहचान। पहला लिफाफा पापा का था। उन्होंने कभी पहले डिगनिटी फाउंडेशन में एक छोटा सा फ्लैट खरीद रखा था। उन्होंने लिखा था कि जीवन के शेष समय में मैं और आशा सामाजिक हस्तक्षेप से दूर दंपति की तरह गुजारना चाहते हैं। जहां न छींटाकशी हो, ना ताने-तिश्ने। मेरी पेंशन हमारे लिए काफी है। पद्मा को माइक से बहुत कुछ मिल गया है। इसलिए अब सब चल-अचल संपत्ति तुम्हें दे रहा हूं। विश्वास है कि सदुपयोग होगा और तुम अंतत: सुखी हो पाओगी। मुझे लगता है कि सदुपयोग भी हुआ, आज सबके सामने है और मैं सुखी हूं, यह भी आप सब देख ही रहे हैं।’
‘और दूसरा लिफाफा?’ यह प्रश्न मौसी ने पूछा तो बेला जोर-जोर से हंसने लगी।
‘आप भी? मौसी थोड़ा शरमा गयी, तो बेला ने उन्हें आश्वस्त किया।
‘मेरा जीवन खुली किताब बन ही चुका है, तो अब उसमें छुपाने जैसा है ही क्या! दूसरा लिफाफा कृष का था कि वह मुझे भूल नहीं पा रहा है। मैं ही उसका असली प्यार हूं, कि एक बार यूएस आ जाऊं तो वह मुझे कभी अलग नहीं होने देगा। यह अतिरिक्त भावुकता कृष की सदा की कमजोरी है। वह सबके लिए सब कुछ करना चाहता है और इसमें किसी के लिए भी पूरे तौर पर कुछ नहीं कर पाता। मैंने उससे कह दिया कि अब उसके सारे प्यार पर सिर्फ और सिर्फ पद्मा का हक है। मैं न बंटी हुई जिंदगी खुद जीना चाहती हूं, ना किसी और को, खासकर अपनी बहन को सौगात में देना चाहती हूं। मैंने उससे यह भी कह दिया था कि इसके बाद उसने कोई पत्र लिखा तो मैं बिना पढ़े लौटा दूंगी। यही मैंने किया भी और अब तो मैं इतनी दूर निकल आयी हूं कि जब तक मैं किसी से संपर्क न करूं, कोई मुझ तक पहुंच ही नहीं सकता।’
‘पर हम तो तुरंत पहुंच गये,’ रोहित ने इठला कर कहा।
‘हमें पूरी कहानी जो सुननी थी।’ इला ने कहा
‘और तीन लिफाफों का सच भी तो... सुबीर ने बड़ी गंभीरता से कहा तो सब हंस पड़े।’ ‘हां, मैम अभी तीसरा लिफाफा बाकी है।’इला ने कहा।
‘याद है। तीसरा लिफाफा समीर का था।उसे समझ आ गया था कि मैं प्रेमहीन विवाह का यह बंधन मुझे अब रोक नहीं पायेगा। उस लिफाफे में म्यूचुअल कंसेंट से डाइवोर्स पेपर्स पर उसके सिग्नेचर थे।"
‘हम अच्छे दोस्त थे। आज भी हैं और रहेंगे, क्योंकि अब यह दोस्ती हमारी मजबूरी नहीं चॉइस है।’
‘ तो उन्हें पता है आप यहां हैं?
‘नहीं। न मैंने बताया, ना उसने जानना चाहा। रिया के बारे में उसे बताती रहती हूं। हाल-चाल पूछ लेती हूं। मैं खुश हूं, वह इस बात से निश्चिंत है।’
हां मैम, रिया कहां है? यहां तो नहीं दिखी।’
‘वह यहां नहीं है। उसने मास कम्युनिकेशन से मास्टर्स किया और फिर दुनिया देखने निकल गयी है। आजकल वियतनाम में है और एक एनजीओ के साथ काम कर रही है। टोटली सेल्फ सफिशिएंट। अपना खर्च खुद उठाती है।’
‘आपको उसे इस तरह अकेले भेजते डर नहीं लगता मैम?
‘डर कहां नहीं है, मिनी? डर हमारे भीतर है, वही बाहर भी आ जाता है। जैसे कुत्ते डर की गंध सूंघ लेते हैं, उसी तरह इंसान भी। फिर इस आश्रम में हर लड़की की तरह रिया जूडो कराटे में पारंगत है। ब्लैक बेल्ट है वो। किसी भी गलत उठने वाले हाथ को खुद तोड़ने की सामर्थ्यवाली।"
"तो क्या आप स्त्री के जीवन में पुरुषों को ग़ैरज़रूरी मानती हैं?" इला का प्रश्न था।"
"बिलकुल भी नहीं,पर मैं औरत को वो बेल मानने से इनकार ज़रूर करती हूं जो पुरुषरूपी वृक्ष के सहारे के बिना खड़ी नहीं हो सकती । और ये ख़ुद को पहचाने बिना ,स्वयं को सिद्ध किए बिना होना असम्भव है। इसीलिए स्वयंसिद्धा यही मंत्र है इस आश्रम का और हर उस नारी का जो किसी अनजान तलाश में भटक रही है ,अशांत और अतृप्त है। उसके सवालों का जवाब ख़ुद उसके पास है। ख़ुद को पहचानने में है।"
रात गहराने लगी थी। बेला के शब्द वातावरण में गूंजते रहे। वह कब चुपके से उठ कर चली गयी यह उसकी खाली कुर्सी ही बता सकती है। सुबह तड़के आश्रम छोड़ते समय भी चारों उसी की बात सोच रहे थे। वही वाक्य बार-बार मन में गूंज रहा था। नारी का मंत्र -स्वयंसिद्धा! स्वयंसिद्धा!!
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