कहानी--
आपके वास्ते
--आर. एन. सुनगरया
दो महिने से शशि मोहल्ले वालों की चर्चा का विषय बनी हुई है। आज भी राधा, विमला, मालती आदि महिला-समूह बैठा उसी चर्चा में लीन है। राधा कह रही है, ‘’मैंने तो सुना है बड़े रद्दी कपड़े पहनती है और हमेशा खामोश बैठी किताबें पढ़ती रहती है।‘’
मालती ने समर्थन किया, ‘’मैंने भी यही सुना है। अच्छे खाते-पीते घर की बहू होते हुये भी ये हाल है। जरूर दाल में कुछ काला है।‘’
‘’अरि होगी काली-कलूटी बदसूरत...!’’
‘’क्या कहती हो।‘’ विमला ने अजीब अंदाज में तुरन्त ऑंखों देखा हाल पेश किया, ‘’सोने की मूरत है, मानो विश्व की सारी सुन्दरता-आकर्षण उसी में समा गया हो-गोरी-भूरी, लाली लिये चमकदार, सलोनी सजीव सौन्दर्य प्रतिमा है।‘’
‘’मुझे तो वह कलंकित प्रतिमा लगती है।‘’ राधा आगे बोली, ‘’डरती है पास-पड़ोस में बात करने या श्रृंगार करने में पोल न खुल जाये।‘’
‘’अरि हट, क्या कहती है।‘’ विमला ने राधा को कुछ कठोर नजरों से देखकर डॉंटा, ‘’ऐसा होता तो मनोज बाबू उससे शादी करते?’’
‘’जानती हो उन्होंने उससे क्यों शादी की..?’’ इससे पूर्व कि राधा आगे बोलती, विमला बोल पड़ी, ‘’हॉं जानती हूँ, इसलिये कि वह बहुत पढ़ी-लिखी है।‘’
‘’तो तुम कुछ नहीं जानती।‘’ राधा झट बोली, जैसे खुशी में बोली हो।
विमला मुस्कुराते हुये पूरी जानकारी देने लगी, ‘’पड़ोसन होने के कारण मुझे सब मालूम है कि वह अनाथ लड़की थी। उसे उसकी मौसी ने पाला-पोषा, पढ़ाया-लिखाया, लेकिन शायद उसकी शादी नहीं कर सकती थी। कॉलेज में मनोज से प्यार होने के कारण उसे मंदिर में शादी करने की अनुमति देनी पड़ी।‘’
‘’ये सब कपोल-कथा है।‘’ कुछ औरतें संयुक्त स्वर में आगे बोलीं ‘’राज तो कुछ और ही होगा।‘’
‘’मेरे ख्याल में तुम उसे गलत समझती हो।‘’ विमला बोली।
राधा ने विमला को समझाने की चेष्टा की, ‘’जरा सोचो विमला, क्रीम-पाउडर और सुन्दर-सुन्दर जेवर-कपड़े होते हुये भी, उन्हें प्रयुक्त ना करने का कोई तो कारण होगा!’’
‘’शायद उसे ये सब पसन्द ना हो।‘’ विमला अपने विचार पर अटल रही। ‘’अरे वाह! ये कैसे हो सकता है।‘’ राधा ने अपनी बात पर जोर दिया, ‘’कॉलेज में पढ़ी लड़की को, फैशन पसन्द ना हो?’’
सभी की नज़रें केन्द्रित हुईं, देखा-सामने कमला बुआ चली आ रही हैं।
अपने विचारों की असत्यता के लिए विमला आशामय शब्दों में पूछने लगी, ‘’क्यों बुआ तुम्हारी बहू...।‘’
‘’बहू! बहू! बहू!’’ बौखलाकर बुआ बडबड़ाई, ‘’नाक में दम हो गया बहू के कारण। हर दिन बहू का रोना-धोना कभी कोई कुछ पूछता है, तो कभी कुछ....।‘’
बनावटी भाव लेकर राधा ने किस्मत को दोष दिया, ‘’देखो किस्मत है, क्या पता था कि बहू ऐसे लजायेगी....।‘’
‘’क्या कहा?’’ बुआ जी तड़फ उठीं, ‘’बहू तो दूध जैसी सफेद स्वच्छ है।‘’
‘’सफेद स्वच्छ मही (छाछ) भी तो होता है बुआ जी।‘’ राधा ने तुरन्त कह दिया।
बुआ जी राधा को कटु दृष्टि से घूरने लगीं, इससे पूर्व कि वह वार्ता लड़ाई का रूप ले। वार्ता का विषय बदल देना चाहिए। यह सोचकर विमला ने पूछा, ‘’कैसी आई हो बुआ जी?’’
बुआ ने नज़रें हटाईं, ‘’यही कहने आई थी कि कल शिवरात्रि है, इसलिये अपने यहॉं कीर्तन-भजन होंगे। तुम सब अवश्य आना।‘’
‘’आपकी बहू भी भाग लेगी उसमें?’’ विमला ने बड़े नम्र शब्दों में पूछा।
‘’इसलिये तो कीर्तन करवा रही हूँ कि तुम सब उसे देख सको।‘’ बुआ मुस्कुराई, ‘’अब देखूँ कैसे नहीं पहनेगी जेवर और नये कपड़े।‘’
‘’मुझे तनिक भी उम्मीद नहीं है’’ राधा ने अपने होंठ सुकड़ाये, ‘’इतने दिन से तो लगी हो आज पहनेगी...फलॉं दिन जरूर पहनेगी।‘’
‘’आना तो कल।‘’ बुआ ने राधा पर कटु दृष्टि गड़ाई।
‘’हॉं हॉं, जरूर आयेंगे।‘’ संयुक्त स्वर गॅूज उठा।
--2—
संध्या समय हवा मंद गति से बह रही है। मानो थककर चूर-चूर हो गई हो, मगर बुआ विचारविश्व की उड़ान भर रही हैं-------
_____अच्छा हुआ मनोज के पिता ऐसी हठीली बहू को देखने जीवित नहीं, ऐसे विचित्र प्रश्नों से पाला पड़ता तो उनका खून खौल उठता। कल्पना कलश सजा रखे थे कि बहू मेरे साथ जायेगी-आयेगी लोगों में सेना-कानी होगी। कितना गौरव मिलता, जब मैं बहू की तारीफ सुनती, दूसरी औरतें ईर्ष्या करतीं, मेरी बहू अनुपम होती, बड़ी कामना थी, दूध में नहाई गुडि़या, रंगीन वस्त्रों में लिपटी, भिन्न–भिन्न सुन्दर जेबरों से लदी हुई, सर्वश्रेष्ठ हो। कब से जेबर और कपड़े इकट्ठे कर रखे हैं, मैंने। पर सोचा हुआ कभी होता है। मगर हॉं, सभी गुण तो हैं उसमें, अनुपम भी है, तो फिर उसे श्रृंगार से इतनी घृणा कयों? यदि कुछ पहनने-ओढ़ने का ना हो तो बात दूसरी है। सब कुछ होते हुये भी....जब अपना ही दाम खोटा तो परखने वाले का क्या दोष। मनोज भी कुछ नहीं कहता। खास तो उसी की गलती है। वह भी क्या करे। दिन भर ऑफिस में सर पटकता है। ऐसी हालत में थका-हारा कुछ कहा-सुनी भी करे, तो घर की शॉंति छूमंतर हो जाये।
मनोज की पसन्द की शादी है। कॉलेज में एक-दूसरे की ऑंखें लड़ गईं; शादी कर ली, मुझे तो तब पूछा जब आशीर्वाद की आवश्यकता पड़ी। यदि उस समय क्रोध या ज़हर का घूँट ना पीती तो बेटे से भी हाथ धोना पड़ता।
पड़ोस में सभी सासें अपनी बहुओं से लड़ती-झगड़ती रहती हैं, परन्तु मैंने मखमल में लपेट कर भी कभी कुछ नहीं कहा........
.......किसी की पदाहट ने उनका ध्यान मोड़ दिया। चट मुँह बनाकर बैठ गईं, मानो नाराज हो गईं हों।
‘’क्या बात है बुआ? बाहर ठण्डी हवा में बैठी हो?’’
मॉं को बुआ कहता है, मगर बुआ का रिश्ता भी नहीं निभाता।‘’
‘’आज ऐसा क्यों कह रही हो बुआ, क्या बात है?’’
‘’बात तो कोई नहीं है।‘’ बुआ ने मनोज को निहारा, ‘’मेरे तो कान पक गये सुन-सुनकर।‘’
‘’क्या...सुन-सुनकर कान पक गये तुम्हारे?’’ मनोज मुस्कुराया। बुआ ने जल्दी-जल्दी बोलना शुरू कर दिया, ‘’यही कि बहू का बाप कौन है? मॉं है या नहीं? हमेशा खामोश क्यों रहती है? ऐसे बुरे कपड़े कयों पहनती है?’’
मनोज हंस पड़ा, ‘’अरे बुआ प्रजातंत्र का जमाना है, जिसको जैसा मर्जी में आये रह सकता है।‘’
‘’ही..ही......’’ बुआ ने अजीब सा मुँह बनाकर कहा, ‘’तूने तो हंस कर टाल दिया—सुनना तो मुझे पड़ता है।‘’
‘’क्या सुनना पड़ता है तुम्हें?’’ मनोज मुस्कुराया।
‘’अरे कोई कुछ पूछता है। कोई कुछ कहता है। सच तो है। हमेशा भंगन जैसी हालत में मुँह फुलाये बैठी रहती है।‘’
‘’क्या बात कर दी बुआ।‘’ मनोज ने कुछ कठोर आवाज में बुआ की बात का खण्डन किया, ‘’मैंने तो उसे हमेशा हँसते, मुस्कुराते हुये ही देखी है।‘’
‘’सिर्फ तूने ही देखी है। लोगों ने तो उसका एक दांत भी नहीं देखा।‘’ बुआ ने हाथ मटकाकर कहा, ‘’इतने दिनों से अभिलाषा लिये बैठी हूँ कि बहू आये और वर्षों से पेटी में बन्द पड़े कपड़े जेवर पहने। कितनी खुशी होती मुझे.....।‘’
‘’तुम्हारी खुशी के लिये सब कुछ हो सकता है बुआ।‘’ मनोज का स्वर कुछ भर्रा गया।
‘’तो फिर उससे कह देना।‘’ बुआ जैसे उसे डॉंट रही हो, ‘’मैं कल जो कपड़े वगैरह उसे दूँ, तो उन्हें पहन ले।‘’
मोहन की पदाहट सुनते ही शशि का महकता मोहक मुखड़ा उसके सामने खिल उठा। कुछ सोच में पड़ गया—क्या बुआ सच कह रही थी कि बहू हमेशा मुँह फुलाये बैठी रहती है......।
गले में बॉंहें डालते हुये शशि ने पूछा, ‘’क्या सोच रहे हैं, आप?’’
वह शशि की ऑंखों में नज़रें गड़ाकर बोला, ‘’सोच रहा था क्या चंदन की महक छुपाई जा सकती है?’’
वह तुरन्त समझ गई कि मनोज का इशारा उसी की ओर था, ‘’महक के लिये तो कह नहीं सकती, मगर उसे ढका तो जा सकता है?’’
‘’चन्दन को रद्दी कपड़े से ढका जाता है?’’
शशि चुप ही रही।
मनोज उसे घूरते हुये कोट उतारने लगा। कन्धों से कुछ ही नीचे खिसकाया था कि शशि ने मदद की और कोट को उतार कर हेंगर पर टॉंग आई। प्रसन्नता पूर्वक चाय बनाने लगी। मनोज पलंग पर बैठकर जूते के बन्ध ढीले करके उन्हें उतारने लगा। वह हाथों का सिरहाना बनाकर लेट गया। कुछ क्षण बाद बोला, ‘’मैंने कल रात सुन्दर सपना देखा।‘’
‘’भला में भी तो सुनूँ।‘’ शशि ने उसके समीप आकर अपनी इच्छा व्यक्त की।
मनोज ने एक नज़र उसे देखा और सुनाने लगा, ‘’एक सुन्दर सजीव सलोनी युवती बैठी लिख रही है। जिसकी नशीली ऑंखों से मदिरामयी किरणें डायरी पर बिखरी हुयी हैं। उसके गदराये गोरे गालों और शेष भागों पर हल्की पीली रोशनी विद्यमान है, मानो वह रोशनी उसे सोने की मूर्ति बनाने की चेष्टा कर रही है। उसके गले में नन्हें-नन्हें मोतीसम गुरियों की माला मानो, उस स्वप्न सुन्दरी की सुन्दरता में चार चॉंद लगा रही हो, झुमके भी कानों को मोहक बनाते हुये माला की मदद कर रहे हैं। टैरिन की हल्की नीली साड़ी उस पर बड़ी सुस्पष्टता से सुसज्जित है। एक हाथ की कलाई पर घड़ी और दूसरे हाथ में सोने की चूडि़यॉं सुशोभित हो रही हैं।‘’
सोने की सुन्दर सलाखों से निर्मित पतली-पतली ऊँगलियों के बीच कसा कलम डायरी पर मोतियों की वर्षा कर रहा है। वह चन्दन-बदन ऐसी लग रही है जैसे.....
शशि की मुस्कान रूकते-रूकते हंसी में बदल गई। चॉंदी के दॉंत चमकने लगे। उसकी नज़रें मनोज की नज़रों से टकराई। तो वह हंसी रोकते हुये बोली, ‘’जैसे.....’’वह पुन: खिलखिलाने लगी।
‘’जैसे साक्षात तुम ही श्रृंगार करके बैठी लिख रही हो।‘’
शशि की हंसी एक दम बन्द हो गई। मनोज कुछ क्षण उसे घूरता रहा, फिर उठकर उसके समीप गया। उसे बॉंहों में समेटे हुये उसके कान के पास होंठ ले जाकर बोला, ‘’काश! मेरी ऑंखें ये सब प्रत्यक्ष देख सकतीं।‘’
‘’’मनोज की कामना सुनते ही शशि ने उसकी बॉंहों के बन्धन से मुक्ति लेनी चाही, लेकिन मनोज ने जब बॉंहों को और कठोर करते हुये उसके गाल से अपना गाल सटाया, तो उसने अपना विचार बदल दिया। यह आनन्द- दायक स्पर्श हमेशा मिलता रहे, मैं चाहती हूँ सदैव आपकी नज़रें मेरी नज़रों से आलिंगन करती रहें।‘’
मनोज ने उसके दोनों हाथों के बाजुओं को पकड़कर अपने से कुछ इंच दूर की और ऑंखों में ऑंखें डालकर कहा, ‘’जैसे तुम कुछ चाहती हो, वैसे ही बुआ और मैं भी कुछ चाहता हूँ।‘’ मनोज नज़रें उसे हटाकर पलंग की ओर आ गया।
शशि उसको एक नज़र देखकर फिर जमीन ताकते हुये बोली, ‘’मैं आपकी इच्छाऍं समझती हूँ, लेकिन.....लेकिन...।‘’
‘’लेकिन?’’ मनोज कारण बहुत जल्दी सुनना चाहता है, ‘’लेकिन ज्योंही-श्रृंगार का सोचती हूँ, त्योंही ना जाने क्यों मेरी आत्मा कॉंप उठती है, भय लगने लगता है।‘’
‘’भय लगता है?’’ मनोज की ऑंखों से उस पर क्रोध किरणें बरसने लगीं।
‘’हॉं ऐसा लगता है कि ज्योंही मैंने नये कपड़े पहने, त्योंही कोई राक्षस मुझे नोंच-नोंच कर खा जायेगा...।‘’
‘’आ..हा..हा..हा..........’’ मनोज की ठहाकेदार हंसी में उसके अगले शब्द गुम हो गये। मनोज हंसते-हंसते ही बोला, ‘’बेवकूफ समझती हो!’’ क्रोध मिश्रित स्वर!
--4--
मौजे और पेन्ट पहनकर मनोज बुशर्ट के बटन लगाते हुये, सामने शशि को आते हुये देख रहा है। जिसके हाथ में चाय से भरे हुये कप-प्लेट हैं। बहुत मंद आवाज में बड़बड़ाया, ‘’कितनी हसीन सूरत पाई, मगर जोगनों सी सादा साड़ी लपेट कर गुड़ गोबर कर देती है।‘’
उसने टेबल पर चाय रख कर हैन्गर से कोट उतारा और मनोज को पहनाने लगी। जब वह कोट पहन चुका, तो शशि ने चाय बढ़ाई, ‘’लीजिए चाय ठण्डी हो रही है।‘’
उसकी ऑंखों में ऑंखें गड़ाते हुये मनोज ने चाय पर ध्यान नहीं दिया, ‘’आज नई पौध नवीनता और फैशन की ओर कैसे भाग रही है, जहॉं तक हो सकता है, कम और डिजायनोंदार मंहगे कपड़े व फैशनी चीजों का उपयोग करके उन्हें दूसरों को दिखाने में कितने हर्षित होते हैं, लेकिन......’’
‘’लेकिन क्या ?’’ शायद मनोज की बातें उसे तीर सी चुभी, ‘’शायद आप कहना चाहेंगे कि मैं ये सब क्यों नहीं करती? मैं क्यों नवीनता, फैशन, डिजायनों की ओर नहीं भागती।‘’ शशि की ऑंखों में क्रोध चमक उठा।
वह शशि की बातें सुनकर कुछ झेंपा अवश्य, लेकिन फिर सम्हलकर बोला, ‘’मेरे आशय का गलत अर्थ लिया तुमने। मैं हरगिज नहीं चाहूँगा कि तुम भी औरों की तरह फिल्मी अभिनेत्रियों की नकल करो।‘’ कुर्सी पर बैठ कर जूतों में पैर डालते हुये बोला, ‘’जो लोग फिल्म स्टारों के पहनावा, चाल-ढाल की नकल करने की चेष्टा करते हैं, वे शायद भूल जाते हैं कि उनका उद्धेश्य है दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना, दर्शकों का मनोरंजन करना, मगर हमारा उद्धेश्य है-अपना तन ढकना।‘’ मनोज के स्वर में नम्रता है।
‘’आपको इन सब बातों से क्या मतलब हो सकता है?’’ शशि ने चाय उसके सामने रख दी।
‘’यही कि बुआ आज तुम्हें जो कपड़े देंगी उन्हें पहन लेना।‘’
‘’हॉं, कुछ औरतें कीर्तनों के लिए आ रहीं हैं।‘’ मनोज की आवाज कुछ कठोर हो गई, ‘’अब मैं तुम्हें उन कपड़ों में देखकर ही उपवास खोलूँगा।‘’ वह वायु वेग से बाहर निकल गया।
--5—
शशि दिनभर भूखी ही ना जाने क्या-क्या सोचती रही। ज्यों - ज्यों क्षितिज धुँधलाने लगा त्यों–त्यों उसकी सोच-विचार और आन्तरिक अशान्ति की तीव्रता बढ़ती गई। हर पल चित्त की अस्थिरता उफन आती है......
‘’लो, बेटी ये पहन लो, मनोज भी आता होगा।‘’ इस स्नेहयुक्त वाक्य से वह चौंक उठी। देखा-मॉंजी, थाली में रखकर कुछ कपड़े गले का हार व श्रृंगार की चीजें ला रही हैं। वह जैसे किसी अज्ञात भय से कॉंप गई। उसे कुछ ध्यान आ गया।--------
.....वह दर्पण के सामने श्रृंगार करके अपनी छबि पर नाज कर रही है। अपनी सुशोभा देखकर उसे भ्रम सा हो गया कि वह अनुपम है। तभी दरवाजे की चरचराहट ने उसकी नज़रें एक दम पीछे मोड़ दी।
‘’वाह शशि कब से तुम्हारे सौन्दर्य समुद्र में गोता लगाने के लिए सोचा है।‘’ यह कहते हुये एक जाना पहचाना चेहरा विचित्र रूप में उसके सामने उभर आया।‘’
शशि के खिलते मुस्कुराते मुखड़े का सिन्दूरी रंग हवा हो गया। असने अपने सामने उपस्थित खून सी ऑंखों को देखा, जिनमें वासना ही वासना छाई हुई है। उसकी वाक्य शक्ति जाती रही, बोटी-बोटी कॉंपने लगी। वह उसकी ओर लपका, लग रहा था। मानों उसे कच्ची ही खा जायेगा......’’नहीं नहीं.....।‘’ ख्याल में ही शशि की वाक्य शक्ति लौट आई।------
.....उसने हाथ बढ़ाया। उसके हाथ टकराने से बुआ के हाथों में रखी थाली जमीन पर गिर पढ़ी। उसमें रखी चीजें इधर-उधर बिखर गईं। बुआ की ऑंखें लाल हो गईं। इससे पूर्व कि वे चीखतीं, मनोज दरावाजे पर ही चीख उठा, ‘’शशि!’’
शशि हड़बड़ा गई। बुआ गुस्से को पी कर बाहर चली गई। मनोज उसके समीप आकर जोर-जेार से प्रश्न पर प्रश्न पूछने लगा, ‘’आखिर वह कौन सी बात है? कौन सा राज है? जो कपड़े पहनते ही खुल जायेगा। तुम कलंकित हो जाओगी या समाज से गिर जाओगी?’’ मनोज के मुँह में जो आया बक गया।
शशि के तन-मन में खलबली शुरू......तोड़ दे क़सम शशि प्रेमशिला में दरार पड़ रही है। पति प्यार से वंचित हो रहा है। पति ही सर्वस्व है। उसके हृदय में शंका पैदा करना, उसकी आकांक्षाओं को दफना देना, उसे अपने किसी राज से अनभिज्ञ रखना, सबसे बड़ा अपराध है।......
हृदय, मस्तिष्क, बाहरी परिस्थितियों आदि सभी ओर से शशि को मजबूरी ही हाथ लगी।
मनोज उसके समीप आकर प्रेम पूर्वक बोला, ‘’चंदा धूल डाले मैला नहीं होता शशि, बताओ क्या बात है?’’
शशि जमीन ताकते हुये बतलाने लगी, ‘’गत वर्ष जून की घटना है। उस दिन हम सब एक सहेली की शादी में जा रहे थो। इसलिये मैंने खुशी-खुशी श्रृंगार किया। तभी मेरी मौसी का लड़का जिसे मैं भाई से भी बड़कर समझती थी। सिगरेट पीता हुआ मेरे कमरे में प्रवेश हुआ। और व्याभिचारी राक्षस की भॉंति मुझ पर टूट पड़ा। मेरा सारा शरीर थरथराकर शून्य हो गया। एक अज्ञात डर से मैं अचेत हो गई।‘’
‘’फिर क्या हुआ?’’ मनोज शेष बात सुनने के लिये अस्थिर हो गया।
जब मेरी आँखें खुलीं तो मैंने देखा-मोसी उसे हंसिये से बुरी तरह पीट रही है। और वह खून में लथपथ लड़खड़ा रहा है। मुझे लगा मौसी उसे मार डालेगी। मेरी चीख निकल पड़ी, ‘’मौसी!, मौसी!’’ मगर मौसी का थर्राया स्वर फूटपड़ा, ‘’छोड़ दे शशि इसे जिन्दा नहीं छोड़ूंगी!’’
वे लपकीं मगर वह भाग गया।
उन्होंने मुझे गोद में भर कर ऑंसू बहाते हुये कहा, ‘’जीजा-बाई की तुम एक तो निशानी हो, जिसे मैंने कॉंटों पर चलकर फूलों में पाली....पौषी, पढ़ाई-लिखाई और आज वह पापी......’’
‘’उसका क़सूर नहीं है मौसी, ये मेरे रूप का क़सूर है।‘’ मैंने कहा और तभी से मुझे श्रृंगार से घृणा हो गई और मैंने निश्चय किया कि मैं रूप को श्रृंगार द्वारा कभी नहीं निखारूँगी जिससे भाई या किसी की भी बुद्धी भ्रष्ट न हो और एक मॉं को अपने बेटे पर आत्मघाती हमला ना करना पड़े।
‘’तो फिर यह मुझे पहले क्यों नहीं बताया?’’
‘’डरती थी, कहीं यह घटना आपके दिल को ठेस न पहुँचा दे।‘’
‘’अरे छोड़ो ये भी कोई ठेस पहुँचाने वाली घटना है।‘’ मनोज ने उसका हाथ अपने हाथ में थामकर कहा, ‘’व्याीिाचारियों से रक्षा होते हुये और बुआ की अभिलाषा के लिए भी, अपनी कसम नहीं तोड़ोगी?’’
‘’जब भी इन्हें पहनने की कोशिश करती हूँ।‘’ शशि ने अपनी कमजोरी बतलाई, ‘’तो एक अजीब सा डर और कम्पन्न मुझे रोक देता है।‘’
‘’पहनो तो, सब डर छूमंतर हो जायेगा।‘’ मनोज ने उसके रसीले होंठों पर उंगली फेरते हुये कहा, ‘’एक वाक्य इन होंठों से निकल जाय कि इन्हें अभी पहनती हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए।‘’
‘’तुम्हारे लिए नहीं।‘’ शशि के होंठों पर मुस्कान चमकने लगी।
‘’तो फिर....किसके लिए?’’ मनोज कुछ शंकित हो गया। शशि की मुस्कान हंसी में बदलती जा रही है, ‘’तुम्हारे लिये नहीं ........आपके वास्ते।‘’
दोनों हँसने लगे।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
न्न्न्न्न्न्