शम्बूक - 18 ramgopal bhavuk द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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शम्बूक - 18

उपन्यास : शम्बूक 18

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707 Email-tiwari ramgopal 5@gmai.com

12महापण्डित रावण एक असाधारण ब्राह्मण था। भाग1

12. महापण्डित रावण एक असाधारण ब्राह्मण था।

सुमत ने यह कथा अपने नगर के एक कथा वाचक से सुनी थी-एक दिन शम्बूक की पत्नी मोहनी ब्राह्मणों के अत्याचारों से त्रस्त होकर बोली-‘ स्वामी, आप जिस पथ पर आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे है वहाँ कोई अवरोधक है तो ये व्राह्मण वर्ग ही है। आज इन्हीं से पूछ -पूछकर समाज के सारे कार्य किये जाते हैं।

एक दिन अपने आश्रम बासियों के हृदय में ,ब्राह्मण वर्ग के प्रति अपनी अवधारण स्पष्ट करने के लिये शम्बूक ने पत्नी मोहनी को सुनाते हुये यह कथा कही- मैंने अपने दादाजी से रावण के उग्र तप के बारे में ही सुना था। इसीसे प्रभावित होकर मैं उग्र तप करने में लग गया था।

इन दिनों मैंने रावण के सम्बन्ध में जो जाना है उन बातों को आप सब के समक्ष रख रहा हूँ। महापण्डित रावण एक असाधारण ब्राह्मण भी था। शायद ही यह बात आप लोगों को ज्ञात हो कि रामेश्वरम् में शिव लिंग की स्थापना के समय रावण किस तरह पुरोहित बना। देखना आगे चलकर लोग इस बात की चर्चा अपने साहित्य में कम ही करेंगे। सुना है बाल्मिीकि रामायण में इस कथा को स्थान नहीं मिल पाया है। महाराज रावण केवल एक शिव भक्त, विद्धान, एवं वीर ही नहीं अति मानवतावादी भी रहे। वे जानते थे श्री राम से जीत पाना उनके लिये असम्भव है।

रावण को इस कार्य हेतु आचार्यत्वका विधिवत निमंत्रण देने के लिये श्री राम ने जामवंत जी को लंका भेजा दिया। जामवंत जी दीर्धाकार थे, वे आकार में कुम्भकरण से तनिक ही छोटे थे। उनके लंका में प्रवेश करते ही रावण के प्रहरी उन्हें लंका का मार्ग दिखला रहे थे। जब वे राजद्वार में पहुँचे रावण स्वयम् उनके आतिथ्य में उपस्थित होने के लिये व्याकुल हो उठा। उसने उनका मुस्कराकर स्वागत किया। वे बोले-‘ मैं अभिनन्दन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत वनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है।’

रावण ने उनसे सविनय कहा-‘आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे तो मैं आपका सन्देश सावधानी से सुन सकूंगा।’

जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की और आसन ग्रहण करते हुये बोले-‘ वनवासी राम सागर सेतु निर्माण हेतु महेश्वर- लिंग- विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये उन्होंने ब्राह्मण वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।’

रावण ने मुस्कराते हुये पूछा-‘क्या राम द्वारा महेश्वर- लिंग-विग्रह की स्थापना, लंका विजय की कामना से की जा रही है? मैं इससे समझ गया श्री राम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है। जीवन में प्रथम वार किसी नें रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारत वर्ष के प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद को कैसे अस्वीकार कर सकता है, लेकिन यह जानना तो नितान्त आवश्यक है कि श्री राम भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी भी है या नहीं? जामवंत जी! आप जानते ही है कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी मैं आप पधारे हैं। यदि हम आपको बन्दी बनाले और लौटने ही न दे तो आप क्या करेंगे?’

यह सुनकर जामवंत खुलकर हँसे और बोले-‘ मुझे निरुद्ध करने की शक्ति लंका के दानवों के सयुक्त प्रयास में भी नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वता प्रकट करने की अनुमति नहीं है और ना ही इसकी आवश्यकता है। आप मेरी शक्ति से परिचित हैं ही। अब भलाई इसी में है कि आप मुझे मेरी बात का अविलम्ब प्रत्युोत्तर दें।’

रावण सोचते हुये बोला-‘मुझे दूत को संरक्षण देना आता है। राम से जाकर कहिए कि मैंने उनका आचार्यत्व स्वीकार लिया है।’

इसके पश्चात रावण ने जामवंत को ससम्मान विदा किया।

इसके उपरान्त रावण ने यज्ञ के लिये आवश्यक सामग्री एकत्रित करने के लिये अपने मंत्री को आदेश दिया और सोचने लगा- राम ने रावण को आचार्य वरण किया है । यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो, इसके लिये जो उपकरण यजमान एकत्रित न कर पाये उन उपकरणों की पूर्ति करना आचार्य का परम कर्तव्य है। वह जानता है राम के पास अनुष्ठान के लिये क्या है और क्या नहीं है। यह विचार करते हुये वह अशोक वाटिका में पहुँच गया। अशोक वाटिका में पहुँचते ही उसने सीता से कहा-‘तुम्हें विदित है कि राम लंका विजय की कामना से समुद्र तट पर महेश्वर- लिंग- विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं। उन्होंने इस कार्य हेतु जामवंत को भेज कर मुझे आचार्य वरण किया है।

अर्द्धागिनी के बिना ग्रहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं,यह बात तुम्हें ज्ञात होगी, विमान आ रहा है, तुम उस पर बैठ जाना। ’

स्वामी का आचार्य यानी स्वयम् का आचार्य, यह सोचकर जानकी जी ने दोनों हाथ जोड कर मस्तक झुका लिया। यह देखकर रावण बोला-‘ ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के ही आधीन रहोगी। अनुष्ठान समापन के उपरान्त यहाँ आने के लिये विमान पर पुनः बैठ जाना। यह सुनकर सीता अपने स्थान से उठी,उन्होंने दृष्टि उठाकर देखा विमान आ चुका है, वे जाकर उस विमान में बैठ गईं। रावण इस तरह सीता को लेकर समुद्र तट पर उतरा। वह सीता से बोला-‘ आदेश मिलने पर विमान से नीचे आना।’ यह कह कर वह विमान से नीचे उतरा, समुद्र के किनारे से वहाँ का भीषण दृश्य को देखने लगा- भले ही राम युद्ध की विजय से यहाँ महेश्वर- लिंग- विग्रह की स्थापना करलें किन्तु समुद्र को पार करना असम्भव ही रहेगा। मुझे राम को लंका विजय का आशीर्वाद देने में संकोच करने की किंश्चित् आवश्यकता नहीं है। वह निश्चय ही ब्राह्मण का दायित्व पूर्ण इ्रमानदारी से निर्वाह कर सकेगा। यह सोचते हुये वह राम के सम्मुख पहुँच गया।

जामवंत से संदेश पाकर राम रावण के आथित्य की तैयारी में लग गये थे। राम ने हाथ जोड़कर रावण को प्रणाम किया। रावण बोला-‘दीर्धायु भव, लंका विजयी भव। रावण का यह आर्शावाद सुनकर सब चौक गये। भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा-‘अर्ध्द्धागिनी कहाँ है उन्हें यथा स्थान आसन दें।’

राम ने हाथ जोड़कर विनम्र स्वर में प्रार्थना की-‘ यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्य आचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान संपादन कर सकते हैं।’

रावण ने उत्तर दिया-‘ अवश्य- अवश्य किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा सम्भव है। प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विदुर एवं परित्यक्त होते तो सम्भव था। तुमने पत्नी हीन वानप्रस्थ भी नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में तुम पत्नी रहित अनुष्ठान भी नहीं कर सकते।’

‘आचार्य अनुष्ठान उपरान्त आवश्यक साधन उपकरण वापस ले जाते हैं। स्वीकार है तो किसी को भेज दो। सागर के निकट पुष्पक विमान खड़ा है उसमें यजमान की पत्नी विराजमान है। उन्हें बुलवा ले।’

श्री राम ने हाथ जोड़कर इस युक्ति को स्वीकार कर लिया। राम के आदेश से विभीषण मंत्रियों सहित विमान तक गये और सीता सहित लौटे। सीता जी को यजमान के पार्श्व में बैठाकर गणपति पूजन, कलशस्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त विधिवत महेश्वर- लिंग- विग्रह की स्थापना का कार्य सम्पन्न कराया।

रावण जैसे भविष्य दृष्टा ने राम से दक्षिणा मांगी-‘ आप, अब हमें इस कार्य की दक्षिणा दें।’

राम ने भी सम्पूर्ण सम्पर्ण के साथ कहा-‘आचार्य आदेश करें। मैं आप जो कहेंगे उसकी पूर्ति करने का प्रयास करुँगा।’

यह सुनकर रावण गम्भीर हो गया, बोला-‘ जो रावण बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है,, वह आप से क्या दक्षिणा मांगे?मुझे अमरता का वरदान भगवान शंकर ने प्रदान किया ही है। हे राम ! जब भी मैं मृत्यु शैया ग्रहण करूँ उस समय यजमान के रूप में मेरे सम्मुख उपस्थित रहे। यही रावण की दक्षिणा हो सकती है।’

राम बोले-‘ हे महावली, ऐसा ही होगा।’ रावण यह सुनकर सीता को वापस विमान से लेकर चला गया था। सभी खड़े-खडे़ यह दृश्य देखते रहे।

देवी मोहनी, सीता जी भी इतनी तेजस्वनी है कि उनकी कृपा पाने के लिये रावण प्रयास करता रहा कि वे एक दृष्टि से उसे निहार लें। वे त्रण की ओट का सहारा लेकर अर्थात् तीन अंगंलिओं के सहारे उससे पर्दा करके मर्यादा में रह कर उसे समझाने की कोशिश की। वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहा। इस तरह रावण की इच्छा पूरी नहीं हो सकी ।ं

देवी मोहनी, अब मैं राम कथा की शेष कथा और कहना चाहता हूँ ,उसे भी ध्यान से सुनें- रामेश्वरम् की स्थापना के वाद समुद्र पर नल-नील की सहायता से सेतु का निर्माण किया गया। नल-नील में यह क्षमता थी कि वे ऐसे पत्थरों की पहचान कर लेते थे जो जल पर तैरते रहे। इस तरह समुद्र पर पहलीवार इतने बड़े पुल का निमार्ण सम्भव हो सका।

श्री राम की सेना लंका में पहुँच गई। युद्ध प्रारम्भ हो गया। राक्षस सेना के अनेक वीर मारे गये। अन्त में श्रीराम रावण को मारकर सीता के साथ अयोध्या लौट आये ।

अयोध्या में सभी जन भरत के विरुद्ध दिखे। एक कहावत प्रचलित हो गई प्रजा भरत की भी नहीं हुई। भरत जी श्री राम के भक्त के रूप में ,उनकी खड़ाउ की सेवा में लग गये। भरत से यही चूक हो गई। उन्हें राजकाज की ओर अधिक ध्यान देना था, यही बात उनकी खड़ाउ देने का अर्थ था। प्रत्येक घटना को आदमी अपनी तरह से देखता है। किसी में कितने ही गुण हो उनमें भी वह दोष निकाल लेता है। इसीलिये कहा है ,सारा संसार ही गुण-दोषमय है।

राम और सीता के राज्याभिषेक के बाद राम ने एक आदर्श राज्य की कल्पना जो वन में रहकर संजोई थी, उसे साकार करने में लग गये। यह प्रयास किया जाने लगा कि राज्य के सभी जन सुखी तथा निरोग रहें।’

प्रकृति भी उन्हें पूरा सहयोग करने लगी। समय पर पानी वरसने लगा। समय पर गर्मी-सर्दी पड़ने लगी। सारा मानव समाज शास्त्र के अनुकूल आचरण करने लगा। सूर्य उगने से पहले लोग अपने बिस्तर छोड़ देते। सभी सुबह के भ्रमण के लिये निकल जाते। योग साधना में सारे जनजीवन की रुचि हो गई। इस तरह के सदाचरण करने से रोग-दोष इत्यादि न रहे। यों प्रकृति पूरी तरह अनुकूल होती चली गई।

प्रकृति का अनुकूल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रकृति चक्र में यह सम्भव है। ऐसा चक्र पुनः पुनरावृति होने की कल्पना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है। हम सब आज उसी के लिये प्रतीक्षारत हैं।

मोहनी बोलीं-‘ स्वामी, इस समय मेरे मन में एक प्रश्न और उठ रहा है।’

शम्बूक ने प्रश्न करने के लिये प्रेरित किया-‘ देवी संकोच न करें, मैं समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास करुँगा। कहें!’

वे बोलीं-‘स्वामी,, सुना है श्री राम ने जो अश्वमेध यज्ञ किया है उसमें जो सीता जी की स्वर्णमयी मूर्ति स्थापित की है। श्री राम महाराजा है, उन्हें निश्चय ही पता होगा कि सीता वाल्मीकि के आश्रम में रह रहीं हैं, आप कहेंगे कि उन्हें यह बात ज्ञात नहीं थी, इसका अर्थ है उनकी गुप्तचर व्यवस्था वड़ी लचर रही होगी । आप कहेंगे कि उनकी गुप्तचार व्यवस्था लचर नहीं थी तो उन्होंने रावण के उस उपदेश का इस यज्ञ में पालन न करके सीता की स्वर्णमूर्ति को पाशर््व में बैठाकर अश्व मेध यज्ञ किया ह्रै।’

‘देवी, लोग कहते कि उनका अश्वमेध यज्ञ पूरी तरह सफल रहा। मेरा मानना है जो यज्ञ कराने वाले हैं वे ही उसे सफल यज्ञ कह कर प्रचारित कर रहे हैं। समझ नहीं आता विना पत्नी के यज्ञ कैसे सफल हो गया? इस यज्ञ में भी सीता जी को बुलाया जाना चाहिए था।

मैं (शम्बूक) कहाँ भटक गया हूँ? क्या प्राप्त करना चाहा है! रावण की तरह भटकाव में पड़कर अहम् पाल लेना सच्चे तपस्वी के लक्षण नहीं है। यह बात मुझे बहुत देर से समझ में आई है। जब मैं विवाद का विषय बन गया। मैंने यह समझने में बहुत देर कर दी। मुझे मेरे ही नाम से कैसी- कैसी पृथक-पृथक कथायें सुनाईं पड़ रहीं हैं।

मैं (शम्बूक) सोच में डूवा हूँ। शबरी और जनक की तपस्या ने मेरी आँखें खोल दीं हैं। मैं अपने लोगों को ही श्रीराम के विरुद्ध उकसा रहा था। मेरी बातों पर पूर्ण विश्वास करके वे जन्मना संस्कृति को मानव संस्कृति के पथ का रोड़ा मानने लगे हैं। आज मैं समझ रहा हूँ कि कर्मणा संस्कृति में इतने दोष समाहित हो गयें थे कि वह रूप बदलकर जन्मना संस्कृति के रूप में विकसित हुई है।

इन्हीं दिनों कुछ ऋषियों का श्री राम के दरवार में आगमन हुआ। श्री राम जी ने उनकी श्रद्धा भाव से सेवा सुश्रुषा की। वेदवेत्ता महर्षि अगस्त बोले-‘ हे महाबाहो! हम सब आपके प्रताप से सर्वत्र कुशल से है। हे रधुनन्दन! बड़े सौभाग्य की बात है कि शत्रुदल का संहार करके आप सकुशल लंका से लौट आये हैं। अब शासन व्यवस्था को सुचार रूप से संचालित कर रहे हैं। हमें आपके राज्य में कहीं कोई समस्या दिखाई नहीं देती है।

इधर सुमत योगी की दृष्टि श्रीराम पर गहराती चली गई- राम का राज्य सभी को भा रहा है। प्रकृति भी राम राज्य पर कृपावन्त है। समय पर पानी वरसने लगा है। दैहिक, दैविक, भौतिक ताप किसी को भी नहीं व्याप रहे हैं। ऐसा मौसम रहने लगा है कि सभी निरोगी हो गये हैं। व्यर्थ के झूठ-सच लोगों की जिब्हा से विदा हो गये हैं। मानवीय दृष्टिकोण मानव धर्म वन गया है। इस गाँव के लोग ऐसे वातावरण में भी डर रहे हैं तो मेरी तप-साधना से। कहीं मेरा तप कोई अनिष्ठ पैदा न कर दे। लोग कितने मूर्ख है? अरे! वे यह नहीं जानते कि जो व्यक्ति गलत ढग से साधना करेगा उसे उसका फल तो भुगतना ही पड़ेगा।

राम के नाम का अस्तित्व सारे चराचर में व्याप्त परब्र्रह्म की तरह दिखाया जाने लगा है। कुछों को यह बात भी असहनीय होने लगी है। उन्हें यह बात पच नहीं रही है कि एक व्यक्ति में निराकार ब्र्रह्म के गुण धर्म होने वाली बात उनके गले से नीचे नहीं उतर रही है। वे इस समस्या का निदान खोजने लगे। राम जैसे व्यक्तित्व के अस्तित्व की निराकार ब्रह्म से तुलना कुछ लोगों को रास नहीं आ रही है। उनके समाज में यही चर्चा का विषय बन गया है।

कुछ लोग जो योग साधना के द्वारा निराकार ब्र्रह्म से रू-ब-रू हो रहे थे, उन्हें तो राम का अस्तित्व शून्यवत दिखाई दे रहा था। वे ऐसे ब्र्रह्म की कल्पना में डूबे थे जो बिना कानों सुनता है, बिना त्वचा के स्पर्श महसूस करता है तथा बिना आँखों के देखता है। वह बिना पैरों के दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ भी सकता है। ऐसे परमात्मा से देह धारी प्राणी की तुलना उन्हें असह्य हो उठी है।

इस तरह जहाँ राम की चर्चा होती वहीं निराकार राम की भी चर्चा चल पड़ती। एक ओर यहाँ तप-साधना के कारण कुछ ब्राह्मण शम्बूक के विरोध में आ गये थे, वहीं निर्गुण निराकार ब्रह्म मानने के कारण कुछ अन्य ब्राह्मण राम के भी विरोधी बन गये थे। लोग हैं कि श्री राम को निर्गुण निराकार ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत कराने में लगे हैं।

अब एक तीसरे बर्ग का उदय हो गया है। जो अपने को बुद्धिजीवी कहता है। वह काव्य कला में प्रवीण होने का दावा कर रहा है। वह इन दोनों समस्याओं का समाधान खोजकर अपने अस्तित्व की रक्षा करने की सोचने लगा है। वह चुपचाप ऐसा कुछ कर दिखाना चाहता है, जिससे साँप का साँप मर जाये और लाठी भी नहीं टूटे। उस वर्ग ने अपनी काव्यकला से नई-नई कहानियाँ गढ़कर अपने मन से निर्मित करली हैं और उनका प्रचार- प्रसार शुरूकर दिया है।

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