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शम्बूक - 17

उपन्यास : शम्बूक 17

रामगोपाल भावुक

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11 कर्मणा और जन्मना संस्कृतियों में द्वन्द भाग 3

दूसरे दिन सुबह ही दोनों महेन्द्र के घर के लिये निकल पड़े। रास्ते में क्षत्रियों की वस्ती से पहले लोह कर्मियों का मोहल्ले से निकलकर जाना पड़ रहा था। उस मोहल्ले में लोहकर्मी अपनी अपनी दुकान में घोकनी के द्वारा अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें तेजी ला रहे थे। इससे लोहा लाल पड़ गया था। वे उसमें से निकालकर उसे पीट-पीट कर नये- नये अस्त्र-शस्त्र बना रहे थे। सभी दुकानदार वर्छी-भाले एवं नये नये तरह के तीरों का निर्माण करने में लगे थे। दोनों दत्तचित्त होकर उसे देखते हुये उस मोहल्ले को पार कर गये। वे समझ गये ये सभी अस्त्र-शस्त्र क्षत्रियों के लिये ही बनाये जा रहे हैं। क्षत्रियों ने अपनी सुविधा की दृष्टि से उन्हें अपने मोहल्ले के पास बसा लिया है जिससे उनके अनुसार उनका निर्माण हो सके। यही सब देखते हुये दोनों ही अपने पुत्र महेन्द्र की अस्त्र-शस्त्र शाला में पहुँच गये।

महेन्द्र की अस्त्र-शस्त्र शाला क्षत्रिय परम्परा के अनुसार सजी थी। तीर चलाने के लिये दीवार पर निशान वने थे। आँगन के नीम के पेड़ो पर पुतले टंगे थे। जिससे उनपर निशाना लगाया जा सके। महेद्र दत्त चित होकर निशाना लगाने में व्यस्त था। उसके भी छात्र उससे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उसकी पत्नी रचना उसे उसके काम में एक क्षत्राणी की तरह सहयोग कर रही थी। उसी समय उस की दृष्टि माता-पिता पर गई। वह उसी क्षण अपना काम छोड़कर उनके पास आ गया। उसने भी पिताजी एवं माता जी को क्षत्रियोचित प्रणाम किया। महेन्द्र की पत्नी रचना ने क्षत्राणी के बेष में आकर हाथ में पल्लू लेकर चरण छू लिये।

उसके छात्र जो उससे अस्त्र-शस्त्र चलाना सीख रहे थे़, उन्होंने भी बैसा ही आचरण किया। त्रिवेदी जी को लगा, मैं व्यर्थ ही इसके कार्य कलापों पर संन्देह कर रहा था। यह भी अपने सदाचरण पर चल रहा है। रचना उनके लिये षीघ्र ही जल-पान की व्यवस्था करने अन्दर चली गई। वह कुछ ही समय में आम्ररस लेकर आ गई । उसने सास स्वसुर दोनों को आम्ररस का पान कराया और बोली-‘ आप लोग निवृत होलें, मैं अभी भोजन तैयार किये देती हूँ। यह कह कर वह रसोई घर में चली गई। उसके पीछे- पीछे सरस्वती भी उसकी रसोई घर में चली गई।

सुन्दर लाल त्रिवेदी ने महेन्द्र से कहा-‘यहाँ तो सभी अपने अपने काम में लगे हैं। मैं तुम्हारे पास आया हूँ तो तुम्हारे यहाँ के पडोेसी मुझे यहाँ आते हुये देखते रहे। उनका का यह दायित्व नहीं है कि वे मुझ से मिलने आते।’

महेन्द्र बोला-‘पिताजी यहाँ काम का अधिक महत्व है। वे जब तक अपने काम से निवृत नहीं होगे। वे यहाँ आने वाले नहीं है। देखना वे आते ही होंगे। देखो,विजय क्षत्री जी आ रहे हैं। वे क्षत्री की बेषभूषा में सुसज्जित एक वीर पुरुष लग रहे थे। उन्हें देखकर महेन्द्र बोला-‘ पिताजी , मुझे विजय जी का पूरा सहयोग मिल रहा है। इनमें सच्चे क्षत्री के लक्षण मौजूद है। इनका निशाना अचूक है। ये उड़ते पक्षी को वेधने की छमता रखते हैं। दिन रात साधना में रत रहते हैं। एक वार तो लुटेरों से अकेले ही जूझ पड़े थें, उन्हें खदेड़कर ही माने। सभी वैश्य इनका आदर करते हैं। इन्होंने वैश्य वस्ती की सुरक्षा का भार अपने ऊपर ले रखा है। इन्होंने मुझे भी इस काम में अपना साथी बना लिया है। इनके कारण मेरा काम अच्छी तरह जम गया है।’

यह सुनते हुये वे पास आ चुके थे। वे ही बोले-‘ काका जी, इनके कारण मुझे अपने काम में बड़ी राहत मिली है। महेन्द्र जिस काम को हाथ में लेते हैं पूरे मन से लेते हैं। जो काम शुरूकर दिया उसे पूरा करके ही चैन लेते हैं। यह कहते हुये विजय ने उनके चरण छू लिये। त्रिवेदी जी ने उसे आशीष दिया-‘तुम समाज के सच्चे रक्षक बनकर उनकी सेवा करते रहो। हम जो काम करें सेवा भाव से करें। निश्चय ही सफलता हाथ लगेगी।’

विजय बोला-‘बस आप जैसे सद् पुरुषों का आर्शीबाद बना रहे।; इसी समय रसोई से सरस्वती की आवाज सुनाई पड़ी।’ आप लोग बातें ही करते रहोगे, हाथ-मुँह धोकर निवृत होले, भोजन तैयार है। वे उठे और घर में बने कूप तथा स्नानागार की ओर चले गये।

दिन ढले तक वे दोनों वहाँ से निकल पाये। वे यहाँ से सीधे वैश्य वस्ती की ओर मुड़ गये। रास्ते में इस वस्ती में दुकाने ही दुकाने थीं। दुकानों में मिटटी के बने बड़े-बड़े गोरे नामके पात्र रखे थे। इनका मुख चौडा होता है। जिससे इनमें समाने रखने और निकालने में आसानी रहती है। इन गोरों का उपयोग लोग इन्हें जमीन में गाड़कर इनमें अनाज भरने के लिये करते हैं, जिससे अनाज सुरक्षित बना रहता है। यहाँ दुकानदार ने इन्हें विभिन्न रंगों से पोत दिया था, वे इस ढ़ंग से रखे थे कि जिनमें ग्राहकों से आया प्रथक- प्रथक अनाज प्रथक- प्रथक ढ़ेरों में इनमें इकटठा होता रहे। उनमें मिलावट की समस्या न रहे। वैश्यों की यह तरकीव उन्हें बहुत पसन्द आई। वे समझ गये, यह वर्ग अपने काम में बहुत चतुर हो गया है। इससे बस्तुओं के मिलावट की समस्या नहीं रहती। दुकानें ग्राहको को आकर्षित करने विभिन्न प्रकार से सजीं थीं।

पत्थर से बने गोल मटोल मानक बाँट रखने लगे हैं। समय के मानक के रूप में घटी पल का चलन चला आ रहा है। सच में राम राज्य में हम कितने विकसित हो गये हैं। यह सोचते हुये वे सुखदेव के घर पहुँच गये।

उसके दरवाजे पर दो लोग खड़े, उनसे मिलने की प्रतीक्षाकर रहे थे। इन्हें देखकर एक बोला-‘ लगता है आप भी श्रेष्ठी जी से ही मिलने आये हैं। अभी ही किसी कार्य से अन्दर गये हैं। सुन्दर लाल त्रिवेदी और उनकी पत्नी सरस्वती ने उनकी बात सुनते हुये घर में प्रवेश किया। बाहर निकलते हुये सुखराम ने पिता औा माता को घर में प्रवेश करते देख लिया। वह दौड़ते हुये दरवाजे पर आ गया। उसने दोनों हाथ बढ़ाकर माता- पिता के चरण छू लिये। बोला-‘ आप मुझे सूचना भेज देते मैं स्वयम् उपस्थित हो जाता।

वे बोले-‘ मुझे देखने-परखने आना ही था,यहाँ कैसे रह रहे हो?’

इसी समय उसकी पत्नी दुर्गा उनके लिये अनार का सरवत बना कर ले आई। दोनों को सम्मान पूर्वक बैठक में बैठाया गया। दोनों प्यार से सरबत का पान करने लगे। उसके घर में सेवकों की बहुतायत थी। बैठक में से सुखदेव की दुकान दिख रही थी। उसमें बस्तुओं को संग्रह करने ताँवे के पात्रों की अधिकता थी। दुकान की सजावट देखते ही बनती थी। सभी बस्तुएँ व्यवस्थित ढ़ग से सजी हुई थीं। दुकान में ग्राहकों की भीड़ थी। सेवक दुकान चला रहे थे। एक सेवक ग्राहक को लेन देन के सम्बन्ध में समझा रहा था। सुन्दर लाल त्रिवेदी बोले -‘देख सुखदेव, सेवकांे पर इतना विश्वास ठीक नहीं है।’

वह बोला-‘पिता जी इन पर विश्वास नहीं करें तो काम चलने वाला नहीं है। विश्वास से विश्वास बढ़ता है।’

‘और किसी ने विश्वास में विष दे दिया तो?’

बोला-‘ पिताजी उसे भी पान करना ही पड़ेगा। ’

वे बोले-‘ पुत्र, मुझे तुम्हारी यह बात बहुत अच्छी लगी कि विश्वास से विश्वास बढ़ता है। सेवकों का यह स्वभाव होता है कि उसके किसी कार्य से मालिक का विश्वास न टूटे। इसके लिये वह जी जान से प्रयास काता रहता है। इससे उसे रोजगार पाने में आसानी रहती है। मैं किसी पर अन्धा विश्वास नहीं करता वल्कि उसकी परख कर लेता हूँ। यदि वह सफल रहा तो मैं उस पर सारा काम छोड़ देता हूँ। पिताजी, सारे लोग एक जैसे नहीं होते।

बेटे, जिसे आदमी की पहचान हो गई वह आदमी जीवन के हर कार्य में सफल हो सकता है। असली बात तो यही है, हम आदमी की पहचान करने में धोखा खा जाते हैं। व्यापार में वस्तुओं की पहिचान भी जरूरी है।

‘पिताजी, अनाज की पहचान बहुत कठिन है। किसी बस्तु का मूल्य निर्धारण उसके गुण दोष देखकर ही हो पाता है। कौन सा अनाज अच्छा पका है। कौनसा अनाज अधिक टिकाऊ है। लम्बे समय तक जिसके रख रखाव में सुविधा रहती है उसका मूल्य निर्धारण अन्य की तुलना में अधिक ही रहेगा।

बेटे, जिसकी जिस विषय में रुचि होती है उसे वही कार्य अच्छा लगता है। काम का बटवारा रुचि पर निर्भर करता है। हम आर्य लोग किसी पर कोई कार्य थोपते नहीं हैं। संयुक्त परिवार में सीखने वाले को यह सुविधा आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अब चलन बदल रहा है। पिता अपनी रुचि का कार्य ही पुत्र से सिखाना चाहता है लेकिन यह मुझे ठीक नहीं लगता।

इसी समय सरस्वती ने आकर कहा-‘ बातें ही करते रहोगे, भोजन तैयार है , चलकर हाथ मुँह धो लो । बहू ने जेमने घर में आपके लिये भोजन करने के लिये आसन विछा दी है। यह सुनकर वे उठे और हाथ मुँह धोकर सीधे जेमने घर में पहुँच गये। भोजन करने पालथी मारकर उस पर बैठ गये। दुर्गा भोजन परस लाई। अपनी सासू जी से पास पड़े आसन की ओर इसारा करके बोली-‘माँ जी आप इस आसन पर भोजन करने विराजमान हो जाये। मैंने थाली आपके लिये भी परस दी है। अभी लेकर आई। वह स्वसुर जी के सामने थाली रखकर दूसरी थाली लेने चली गई। कुछ ही क्षणों में दूसरी थाली आ गई। दूसरें आसन के सामने रख दी । सासू जी को भोजन करने बैठना पड़ा। दाल- चावल गरम- गरम रोटियों के साथ कटोरे में दही का आनन्द अलग ही था। सासू बोली-‘ बहू तुम्हारी घर में बहुत याद आती है। तुम्हारे हाथ का खाना खाने की बड़ी इच्छा हो रही थी।

दोनों ने तृप्त होकर भोजन किया। अपने दोनों लड़को की अपेक्षा इसकी सम्पन्नता अलग ही झलक रही थी।

सरस्वती सोच रही थी-‘ आजकल जिसके पास घन है वही बड़ा आदमी है। उसकी सब जगह पूछ होती है। हमारा बड़ा लडका चाहे जितना विद्वान बना रहे, दूसरा चाहे कितना ही वीर हो, सम्पन्न आदमी के चारो तरफ मधुमखियों के छत्ते की तरह लोग मड़राते देखे जा सकते हैं। सेवक वर्ग इन्हीं के इर्द-गिर्द मड़राते दिखतेे हैं। पेटें- पावँ सभी के है। पण्डित वर्ग शास्त्रों के जानकार हैं। क्षत्री वर्ग शस्त्र विद्या के महारथी हैं, किन्तु इनसे किसी का पेट नहीं भरने वाला। सभी को वैश्य वर्ग के पास आना ही पड़ेगा। मुझे तो वैश्य वर्ग ही अच्छा लगता है जो सेवक वर्ग को साथ लेकर चलता है।’

सुखदेव ने माँ को सोचते देखकर पूछा-‘ क्या सोच रही हो माँ?

‘यही सोच रही थी कि अपने भ्राता सुशील को कोई काम सिखा दे, जिससे वह भी आराम से जीवन यापन कर सके।’

‘माँ, मैंने उसके लिये काम सोच लिया है, मैं उसे अपना ही काम सिखाना चहता हूँ। मैंने परखा है इस काम में उसकी रुचि भी है। मैं अकेला इस काम को सँभाल भी नहीं पा रहा हूँ। यहाँ मुझे मदद करेगा और उधर आप की सेवा भी करता रहेगा।‘ इस तरह उसकी बातों से सन्तुष्ट होंकर वे अपने घर लौट आये थे। इसी । उधेड़बुन

में लम्बा समय व्यतीत हो गया।

सुन्दरलाल त्रिवेदी एवं उनकी पत्नी का देहावसान होया। उनके तीनों बड़े पुत्र सम्पन्न होकर शान-शौकत का जीवन व्यतीत कर रहे थे किन्तु उनका सबसे छोटा पुत्र सुशील अपने बडे भ्राताओं से दूरी महसूस करने लगा था। उसके तीनों भ्राताओं के पुत्र भी युवा हो गये थे। तीनों ही भ्राता अपने- अपने पुत्रों को तो अपना कार्य पूरी रुचि लेकर सिखला रहे थे किन्तु जब वे सुशील को सिखाते तो दुभाँत झलक कर वाणी में उतनाने लगती थी। यह बात सुशील को असह हो गई और उसने आने जेष्ठ भ्राताओं से सम्पर्क तोड़ लिया। वह रोजी- रोटी के लिये एक उपानाह बनाने वाले की सेवा करने लगा, इससे वह उपानाह बनाना सीख गया जिससे उसका जीवन यापन सहज में ही चलने लगा।

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