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शम्बूक - 9

उपन्यास : शम्बूक 9

रामगोपाल भावुक

6 जन चर्चा में रामकथा

इन दिनों त्रिगुणायत गाँव की चौपाल पर सभा हो रही थी। अनायास सुमत योगी उस सभा में पहुँच गये। सुधीर पौराणिक ग्राम प्रधान के आसन पर विराजमान थे। वे कह रहे थे- श्रीराम की चर्चा एक गाँव से दूसरे गाँव फैलती जा रही है। कैसे यज्ञ के प्रभाव से राम और उनकें भाइयों का जन्म हुआ। जन्म के बाद उनके नाम करण की कथा चर्चा का विषय बनी। इन दिनों घर-घर में श्री राम के बाल रूप की चर्चा होने लगी है। धीरे-धीरे वे बड़े होने लगे। विश्वामित्र उन्हें यज्ञ की रक्षा के लिये अयोध्या नरेश महाराज दशरथ से माँग कर ले जाते हैं। रास्ते में श्रीराम अहिल्या का उद्धार करते हैं। कुछ लोगों को यह बात राम की ठीक नहीं लगी।

सुन्दरलाल त्रिवेदी के परिवार की अपने क्षेत्र में साख चरम पर थी। उनके पुत्र उमेश त्रिवेदी ने अपनी बात रखी-‘दोष अहिल्या का हो चाहे न हो, भले ही वह लम्बे समय से पाषाणवत् पड़ी जीवन यापन कर रही थी। राम भले ही राजपुत्र हैं। विश्वामित्र के सहयोग से उन्होंने अहिल्या का मातृवत पूजन किया और उनके पति गौतम ऋषि को बुलाकर उन्हें सौप दिया। राम की समझाइस से वे ना नुकुर नहीं कर पाये।

महेश द्विवेदी ने अपने विचार रखे-‘त्रिवेदी जी आपके विचार मुझे सार्थक लग रहे हैं। सुना है वहाँ से विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर जनकपुर सीता स्वंयमवर में पहुँचे थे। पुष्प बाटिका में राम और सीता का मिलन हुआ। राम द्वारा स्वयम्वर में शंकरजी के धनुष को भंग करने पर सीता जी ने वरमाला पहनाकर उन्हें वरण कर लिया।, शंकरजी के धनुष को भंग करने पर परशुराम जी ने उन पर बहुत क्रोध प्रकट किया, जिस पर लक्ष्मण जी ने उनका बहुत ही अपमान किया। राम ने वाक्चातुर्य से उन्हें संन्तुष्ट कर वहाँ से विदा कर दिया। समझ नहीं आता परशुराम जैसा वीर एवं तपस्वी व्यक्तित्व कैसे उनसे संन्तुष्ट हो गया! निश्चय ही राम में कोई न कोई ऐसी दिव्य शक्ति तो है जिससे महान तपस्वी भगवान परशुराम जी उनसे संन्तुष्ट होकर तप करने चले गये।’

सुरेश चतुर्वेदी ने अपनी बात कही-‘श्री राम निश्चय ही एक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति हैं। अवतार के रूप में उनका समझना व्यर्थ नहीं है, लेकिन सृष्टि के निर्माता से उनकी तुलना उचित नहीं है। यदि ने सर्व सम्पन्न राम हैं तो भी मर्यादा में उनके बंधे रहने से हमें भी मर्यादा में ही रहना चाहिये। उनमें निर्गुण निराकार का अवलोकन उचित नहीं है। आदमी है कि उसने किसी में थोड़ी सी भी शक्ति देखी कि उनमें उसे परमात्मा दिखाई देने लगता है। किसी ने कोई नया कार्य करके दिखाया कि उसकी शक्ति को ईश्वर की शक्ति मान कर उसे नमन करने लग जाता है। यों ईश्वर रूपी शक्ति का प्रचार- प्रसार बढ़ता चला जा रहा है। श्रीराम एक शक्ति पुंज के रूप में दिखाई देने लगे हैं।

सुधीर पौराणिक ने राम कथा को और आगे बढ़ाया-‘ जनक जी ने स्वयम्वर का सारा वृतांत अपने संन्देश वाहक के द्वारा अयोध्या भेज दिया। महाराजा दशरथ राम की बारात लेकर जनकपुर आ गये। बारात की शान सौकत देखते ही बनती थी। राम के साथ सीता, उनके के भ्राता भरतके साथ माण्डवी, लक्ष्माण के साथ उर्मिला और शत्रुघन के साथ श्रुर्ति कीर्ति का विवाह हो गया। वे बारात लेकर अयोध्या लौट आये। राम अपने भाइयों के साथ आनन्द में रहने लगे।’

वहाँ राम कथा के जानकार सुमत योगी ने सभी को सम्बोधित करके कहा-‘अयोध्या के महाराज दशरथ ने दर्पण में अपने श्वेत वालों को देखकर राम का राज्याभिषेक करने की घोषणा की। धूमधाम से राज्याभिषेक की तैयारियाँ की जाने लगी। उन दिनों भरत अपनी ननिहाल में थे। मेरी दृष्टि में महाराज दशरथ से एक भूल हो गई, यह निर्णय लेते समय उन्हें भरत को बुलाना चाहिए था। भरत की अनुपस्थिति में राज्याभिषेक की बात सुनकर मंथरा ने कैकयी के मन में सन्देह उत्पन्न कर दिया। उन्हें यह बात उचित नहीं लगी। कैकयी के कहने से राम को वनवास दे दिया गया।

राम वन को चले गये। महाराज दशरथ ने पुत्र वियोग में देह त्याग कर दिया। गुरुदेव बसिष्ठ की आज्ञा से दूत को भेजकर ननिहाल से भरत को बुलाया गया। भरत महाराज दशरथ का अन्तिम संस्कार करके राम को वापस लेने के लिये चित्रकूट जाते हैं।

चित्रकूट में एक सभा का आयोजन किया जाता है। जिसमें भरत राम से वापस अयोध्या लौटने का प्रस्ताव रखते हैं। बहुत विचार-विमर्श के उपरान्त भरत राम की खड़ाउँ लेकर अयोध्या लौट आते हैं। भरत की तरह वहाँ का जन-जीवन भी उन्हीं की खड़ाउँ की पूजा करने में लग जाता है। इससे अयोध्या में सामान्य जन जीवन अस्त- यस्त हो जाता है। भरत का ध्यान पूजापाठ एवं राम की भक्ति में ऐसा रम गया कि राज-काज के लिये उनके पास समय ही न रहा। राज-काज की व्यवस्था में इससे व्यवधान उत्पन्न हो गया। जन मानस त्राह त्राह कर उठा।

उधर राम ने कामदगिरि पर्वत पर बारह वर्ष का समय व्यतीत किया। उस पर्वत के ऊपर एक स्वच्छ जल की झील है। इसी पर्वत के पास में एक दूसरे पर्वत पर लक्ष्मण जी ने अपना निवास बनाया। वहाँ से दिन रात उनकी सुरक्षा में रत रहने लगे। श्री राम वहाँ रहकर वहाँ के जन जीवन को संगठित करने का कार्य करने लगे। इसी उदेश्य के निमित्त श्री राम ने दक्षिण की तरफ पयान किया। वहाँ उन्होंने गोदावरी के तट पर पंचवटी को अपना आश्रय स्थल बनाया। इस बात की चर्चा राक्षसराज रावण के दरवार में पहुँच गई।’

बन्धुओ, इन्हीं दिनों मैंने एक यह जनश्रुति सुनी है कि शम्बूक शूद्र जाति का नहीं बल्कि वह तो रावण की बहिन सूर्पनखा का पुत्र है, जिसका पालन पोषण एक शूद्र के यहाँ हुआ है। वह तो जन्म से राक्षस जाति का है। उसके जन्म का सम्बन्ध रावण के वंश से है।

यह कहकर सुमत योगी सोच के सागर में डुवकियाँ लगाते हुये गम्भीर वाणी में बोले-‘यह सच है कि सूर्पनखा का पति विदुतजिव्हा का जन्म एक शूद्रकुल में हुआ था। यह बड़ा ही होनहार था। एक दिन वह जंगल में भटक रहा था कि उस पर प्रवास पर निकले रावण की दृष्टि पड़ी। वह उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुआ। वह उसे ले जाकर पाताल लोक में छोड आया। वहाँ के राजा की उस पर दृष्टि चली गई। उसने उसकी प्रतिभा को देखकर उसे अपनी सेना का प्रमुख बना दिया। सूर्पनखा वहुत ही सुन्दर राज कुमारी थी। एक दिन भ्रमण करते हुए वह पाताल लोक पहुँच गई, उसने वहाँ विदुतजिव्हा को देखा तो वह उसके मन को भा गया और उसने उससे विवाह कर लिया। जिससे यह शम्बूक नाम का पुत्र पैदा हुआ।

इधर रावण ने पाताल लोक पर चढ़ाई कर दी। जिसमें विदुतजिव्हा मारा गया। यह बात सूर्पनखा को जब पता चली तो उसने रावण को मारने की कसम खाली। वह उसे मारने के उपाय खोजने लगी। उसे श्रीराम के वारे में बातें पता चलीं।

सूपर्णखा ने श्रीराम की कार्य प्रणाली को देखना-परखना चाहा। वह समझ गई, वे बहुत वीर पुरुष हैं। वह उनकी कार्य प्रणाली से प्रभावित हुई। उसने उनके सामने अपने विवाह का प्रस्ताव रखा। उन्होंने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। वह इसके लिये उन्हें विवश करने लगी तो लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट दिये। इस पर वह विकराल स्त्री के रूप में प्रगट हो गई। उसने अपने भाई रावण को सीता की सुन्दरता से अवगत कराते हुये राम के विरोध में बातें कह दी।

इस घटना का वर्णन करके सुमत योगी को लगा- शम्बूक से मेरा मित्रता का भाव है। यह बात तो मैंने पहली वार उसके वारे में सुनी है। एक वह शम्बूक दूसरा एक यह। इसका अर्थ है एक ही नाम के दो शम्बूक हो सकते हैं। दोनों की कथाओं को नाम के आधार पर कथाकारों ने भ्रम बस एक में मिला दिया हो। मैं जितना इस विषय को सुलझाने का प्रयास कर रहा हूँ, यह उतना ही उलझता जा रहा है।

कुछ क्षण के बाद सुमत पुनः बोला-‘‘रावण महावली था। उसे सूपर्णखा की बात चुभ गई। उसने योजना बनाकर सीता का अपहरण कर लिया। श्री राम सीता को खोजते हुये वन- वन भटकने लगे। सीता की खोज में उनकी मुलाकात जटायू और शबरी से होती है। वे शबरी के झूठे वेर खाते हैं।

सुमत को अपने फूफाजी परमानन्द शास्त्री से ही ज्ञात हुआ कि इस प्रसंग को लेकर कुछ लोगों ने एक सभा का आयोजन किया था। चर्चा के बाद एक प्रस्ताव लाया गया-श्री राम का यह आचरण हमें ठीक नहीं लगा है। वे राजपुत्र हैं इसका अर्थ यह तो नहीं कि समाज की सारी मर्यादायें तोड़ने का उन्हें अधिकार है। ऐसी क्या कमी आ गई कि शबरी के झूठे वेर ही खा गये। सुना है लक्ष्मण ने उनकी इस बात का विरोध किया था किन्तु वे नहीं माने। एक भीलनी स्त्री के झूठे वेर खाकर राम ने समाज की मरियादा को भंग करने का प्रयास किया है। उन सब ने एक मत से राम के इस कार्य की भर्त्सना भी की।

राम सीता की खोज में आगे बढ़ते रहे। हनुमान जी से उनकी भेंट हुई। उनकी सहायता से सुग्रीव से मित्रता हो गई। धोखे से बाली को मारकर सुग्रीव को वहाँ का राजा बना दिया। इस बात को लेकर भी लोगों ने श्रीराम को बुरा- भला कहा। श्रीराम का यह आचरण भी लोगों को रास नहीं आया।

सीता की खोज हनुमान ने की। उसके बाद सभी वन्य जातियों के सहयोग से राम ने लंका पर चढ़ाई कर दी।

यह कहकर सुमत सोचने लगा। मुझे यह बात सुन्दरलाल त्रिवेदी ने बतलाई थी कि रावण से युद्ध करने से पहले श्रीराम ने तप करके शक्ति अर्जित करना चाही। अर्पित करने के लिये कमल के पुष्प लाकर रखे थे। उनमें से किसी तरह एक कमल पुष्प अर्पित करने में कम पड़ गया। उन्हें अपनी माँ की बात याद आ गई, कि वे मुझे कमल नयन कहा करतीं थीं। यह सोचकर उन्होंने कमल के स्थान पर अपना नयन देवी को अर्पित करना चाहा तो उन्हें उनसे उसी समय साक्षात्कार हो गया। श्रीराम को उस देवी-शक्ति से अनेक दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हुर्ह है।’

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