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शम्बूक - 2

उपन्यास शम्बूक

रामगोपाल भावुक

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2 जन चर्चा में.शम्बूक भाग 2

मैंने आजी से प्रश्न किया-‘आजी जी, क्या सच में यह सम्भव है। वरदान में कोई कुछ भी माँग सकता है और भगवान शंकर इतने भोले हैं कि उसे मनचाहा वरदान दे भी देते हैं।

‘जी वत्स, भगवान शंकर भोले बाबा हैं। उनसे वरदान में सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।’

‘तो आजी जी क्या मैं भी तपस्या करके अपने लिये कुछ भी माँग सकता हूँ?’

‘लेकिन वत्स, तप करना सरल कार्य नहीं है। भूखा-प्यासा रहकर दिन-रात अपने इष्ट की साधना में लगना पड़ता है। तुझे इन बातों से क्या लेना देना? हम लोग तो श्रमजीवी हैं। मेहनत करके हमें अपनी सुविधा की सभी बस्तुएँ उपलब्ध हो जाती हैं। तपस्या करना बड़ा ही कठिन कार्य है। इसके करने पर कभी- कभी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। वत्स, जिस काम में निश्चिय न हो वह काम हमें नहीं करना चाहिए।’

शम्बूक ने पूछा-‘क्यों?’

‘वत्स ,ईश्वर का स्वरूप निर्गुण निराकार है। उसे किसी स्वरूप में बाँधकर उसकी आरारधना करना क्या तुम्हें उचित लगेगा। इसके लिये कौन सा रूप उचित रहेगा। जिसमें वह साकार होकर सामने आ सके। यदि नहीं, तो फिर वह किस रूप में आकर तुम्हें वरदान देगा। इसी बात में बहुत सारे भटकाव हैं। मुझे तो ये सब बातें झूठ का पुलन्दा लगती हैं। एक नाम के सहारे, वह कौन सा रूप धारण करके सामने आयेगा। हमें कैसे विश्वास होग कि वह सच में जो सामने आया है वह भगवान ही है। यदि कोई आया भी तो वह हमारे मन के सतत् सोच का भ्रम भी तो हो सकता है।’

‘लेकिन आजी , मैं तो उस निराकार को साकार रूप में अपने सामने उपस्थित करना चाहता हूँ। सुना है जितने संसार में प्राणी है उतने ही उस निराकार के रूप हो सकते हैं। वह मत्स्य, कूर्मा और तो और वह सृष्टि से प्रथक नरसिंह रूप भी धारण कर सकता है। जाने किस- किस रूप में वे अपने भक्तों को भाषित हो जाये। ऐसा विचित्र किन्तु खोज पूर्ण कार्य करने में जो आनन्द है वह किसी ओर कार्य में नहीं है। आजी जी कहते हैं आदमी से कोई कार्य बड़ा नहीं है।’

कुछ देर ठहरकर शम्बूक ने मुझसे प्रश्न किया-‘ तुम सुमत योगी?’

‘जी’

‘तो बताओं तुम्हारे नाम में योगी क्यों लगा है, क्या तुम योग विद्या के जानकार हो?’

‘बन्धुवर, मेरे पिता जी परम योगी हैं। उन्हें तो अष्टांग योग सिद्ध है। इसीलिये लोग उन्हें योगी जी कह कर बुलाने लगे हैं। इसी क्रम में मेरा नाम भी जन्मना संस्कृति के कारण योगी ही पड़ गया है। मैं भी अपने पिताजी से ध्यान-योग की शिक्षा ले रहा हूँ।’

शम्बूक बोला-‘मुझे भी ध्यान-योग सिखा दो ना। मैंने सुना है योग की यह विशेषता है कि आदमी इससे आकाश गमन कर सकता है। नदी को लाँधकर पार कर सकता है। बिना कुछ खाये लम्वे समय तक जीवित रह सकता है। सुना है- इससे वह लम्बे समय तक वह युवा बना रह कर जीवन जी सकता है।

बैसे प्रभु प्राप्ति के दो ही रास्ते मेरी समझ में आये हैं, एक है सतत् जाप, जो हमारे इष्ट के नजदीक पहुँचा देता है। दूसरा है ध्यान-योग, इस माध्यम से भी हम परमात्मा से रू-ब-रू हो सकते हैं। सतत् अभ्यास तो दोनों ही मार्गों में आवश्यक है।

सुमत उसके विचार सुनकर बोला- आप मुझे काफी पहुँचे हुए लगते हैं। अन्यथा साधना के अन्तर को कम ही लोग जानते हैं! मैं योग-साधना के सम्बन्ध में जितना जान पाया हूँ, आप पूछे? मैं बतलाने का प्रयास करुँगा। पहले आप यह बताये-आप किसी मन्त्र का जाप करते होंगे?

‘जी करता ही हूँ।’

‘मुझे किसी का जाप करने वाला मंत्र पूछना नहीं चाहिए। उसे गुप्त रखने की परम्परा विकसित हुई है।’

यह बात मुझे ज्ञात है।’

सुमत ने पूछा-‘‘ आपके गुरु कौन है?’

‘ मेरी आजी़।’

‘आजी?’

‘ जी आजी ने ही मुझे यह मन्त्र बतलाया है।’

‘ अरे!’

‘ वे कहतीं हैं, हम जन्म-मरण में विश्वास करते हैं।’

सुमत ने उत्तर दिया-‘ करते ही हैं।’

‘शम्बूक ने कहा, मेरी आजी कहतीं है-जब हम जम्हाई लेते हैं, उस समय कोई अचेतन में छिपा शब्द हमारे मूँह से फूट निकलता है। यों जन्म-जन्मान्तर के संस्कार शब्द के रूप में फूट कर हमारे मुँह से निस्सृत होने लगता है। हम ध्यान देगें तो हमारे द्वारा जन्म-जन्मातर से अभ्यास किया मंत्र हमें हमारा ज्ञात हो जायेगा। किसी-किसी के मुँह से ‘ऊँ...’ निकलता है किसी के मुँह से और कोई अन्य शब्द। यही हमारा जन्म-जन्मान्तर में मिला गुरु मंत्र है। उसी का हम सतत् जाप कर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मुँह से अलग-अलग शब्द निकल सकते हैं। उस अचेतन स्थिति में जो निकले वही आपका सच्चा गुरु मंत्र है। वह शीघ्र फलदाई होगा विश्वास हो तो करके देख लें, लेकिन किसी-किसी के मुख से ऐसी स्थिति में गालियाँ भी निकलतीं है। यह उनके पूर्व जन्म में किये अभ्यास का प्रतिफल है।’

सुमत उसकी बात सुनकर दंग रह गया। यह तो कोई पहुँचा हुआ जन्म-जन्मान्तर से महात्मा है। उसे कहना पड़ा-‘ आपको सच्चा गुरु मंत्र मिल गया है। अब आपको किसी गुरु की आवश्यकता नहीं हैं। इसी मंत्र का जाप करते रहें। लक्ष्य को पा लेंगे। ’इसी समय वहाँ कुछ और लोग भी आ गये तो विषय विषयान्तर हो गया। मैं सतेन्द्र के साथ अपनी बुआजी के घर लौट आया था।

उसके बाद मैंने एकान्त पाकर सतेन्द्र से चर्चा की। उसने बताया-‘शम्बूक बचपन से ही जान गया है कि तपस्या से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, इस तरह वह बचपन से ही तपस्या करने की सोचने लगा है।’

उसकी बात सुनकर सुमत ने कहा-‘आदमी के बचपन में जो धुन सवार हो जाती है वह जिन्दगी भर बनी रहती है। प्रसंगवश शम्बूक ने कहा था-‘उसकी आजी उसको समझाती-‘वत्स, तेरा तप-साधना के बारे में सोचना उचित नहीं है। हम ठहरे शूद्र जाति के लोग। हमें तप-साधना करने का अधिकार नहीं है। समाज में जो नियम बनाये हैं वे बहुत सोच समझकर बनाये गये हैं। हमें उनका पालन करना ही चाहिये कि नहीं?’

शम्बूक ने कहा-‘आजी यह नियम तो बहुत ही त्रुर्टिपूर्ण है। प्रभू को प्राप्त करने का रास्ता तप-साधना है। जिसे हर इन्सान को करने का हक है। जो यह कहते हैं कि हमें तप-साधना करने का अधिकार नहीं है, वे ठीक व्याख्या नहीं कर रहे हैं। जब राक्षस जैसे प्राणी तप करके इस संसार सागर में अमर होने का प्रकृति के प्रतिकूल वरदान मांग कर संसार चक्र में व्यवधान पैदा करने का प्रयास करते रहे हैं। उनके तप करने पर कभी किसी ने कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया क्योंकि वे शक्तिशाली थे।

उसकी आजी कलावती ने अपने विचार व्यक्त किये-‘वत्स, जंगलों में कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं जो अमानुषिक कार्यों के कारण, हम उन्हें मानवों से इतर श्रेणी में मानते र्हैं। वे तप-साधना करने वाले साधु-संन्तों को अपने बस में करके उनसे अमानवीय व्यवहार करते हैं। वे खान- पान में कोई नियम नहीं मानते। वे गाय, भैंस, खर एवं कुत्ता आदि का भक्षण करने में संकोच नहीं करते हैं। वे नर भक्षी भी होते हैं। इसी कारण हम इन्हें श्रेष्ठ प्राणी नहीं मानते।’

शम्बूक बोला-‘आजी, हम मानव कल्याण का वरदान माँगने में पीछे क्यों रहें।’

वे बोलीं-‘वत्स, हमारा काम सेवा करना है। उससे बड़ा कोई धर्म नहीं है।’

आजी, ‘मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मानव सेवा करना तप करने से कठिन कार्य है, किन्तु तप एवं योग साधना करना भी मुझे अनिवार्य लग रहा है। तप-साधना करने का अधिकार तो हर मानव को होना चाहिये। मैं यह अधिकार सभी को दिला कर रहूँगा। इस कार्य के लिए मुझे जो भी कष्ट सहने पड़े, मैं पीछे हटने वाला नहीं हूँ।’

यह सुनकर उन्होंने मेरे साहस को बढ़ाते हुये कहा-‘हमें द्रढ़ निश्चयी बनकर अपने कार्य करते रहना चाहिए।

उसकी बात सुनकर सुमत को विश्वास हो गया कि ऐसी धारणायें बचपन से ही शम्बूक मन में बैठ चुकी थी। यों दिन-रात तप-साधना करने के बारे में सोचने लगा था। वह यह भी सोचता था आर्यों द्वारा प्रदत्त जाति प्रथा जन्मना से जुड़कर नया रूप धारण कर रही है। जातियों के बटवारे में प्रारम्भ में जो भावनायें थीं लोगों ने उनका रूप बदलकर नये रूप में ग्रहण कर लिया है। काम का बटवारा सभी ने आपस में मिल बैठकर लिया है, जो जिस लायक था उसे वही कार्य करने का दायित्व सौपा गया है। हम जो विचार स्वीकार लेते हैं उसे ही सच समझने लगते हैं। इसी भावना से तप-साधना करने का अधिकार हम से छीना गया है। पहले बातों-बातों में हम से इसे छीनने की स्वीकृति ले ली गई होगी। बाद में वही स्थाई नियम के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया गया।

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