उपन्यास- शम्बूक
रामगोपाल भावुक
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2 जन चर्चा में.शम्बूक भाग 3
यह सब सोचते हुए सुमत, सतेन्द्र के साथ कल आने का वादा कर लौट आया। उसकी बुआ उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे देखते ही बोली-‘ क्यों रे सतेन्द्र इसे लेकर कहाँ चला गया था? मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। सुबह से तुमने न कुछ खाया न पिया। कह कर तो जाते ,जाने कहाँ चले गये थे। लो पहले तुम दोनों ये दलिया खालो। सुबह से भूखे हो। सुमत तुम अपने घर होते तो भाभी, तेरी माँ तुझे कुछ न कुछ खिला ही देती।
मैंने दूध-दलिया लेते हुए बुआजी से कहा-‘ बुआ जी इस गाँव के बरगद के पेड़ के नीचे कुछ लड़के बैठे थे, वहीं एक शम्बूक नामका लड़का भी था। बुआ जी वह तो मुझे इस उम्र में बड़ा समझदार और ज्ञानी लगा।’
मेरी यह बात सुनकर वे क्रोध व्यक्त करते हुए बोली-‘ मैंने सतेन्द्र से कितनी वार मना किया है कि शम्बूक से दूर रहा कर। उसके लक्षण अच्छे नहीं हैं। वह इस उम्र में शूद्र जाति का होते हुए भी बड़ी-बड़ी बातें करने लगा है। सारा गाँव उसकी बातों का विरोध करता है। अब कल से उसके पास न जाना। समझे!
मैंने सिर हिलाया-‘जी । किन्तु सोचने लगा- मैं उससे कल आने का बादा जो कर आया हूँ उसका क्या होगा? इन बड़ों के अपने सिद्धान्त हैं। उसने जम्हाई के समय निकलने वाले सास्वत शब्द के बारे में जो बातें कही हैं, निश्चय ही वह मुझे असाधारण लगी हैं। सारा गाँव उसका विरोधी क्यों बन गया। बुआजी कह रहीं थी वह शूद्र है, बड़ी- बड़ी बातें करता है। उसकी जम्हाई वाली बात गहरी तो है पर यह बात असत्य कहाँ हैं?’ हूँ क्यों
यही सब सोचते हुए मैं दूसरे दिन सतेन्द्र को बिना बतलाये चुपके से उसके पास पहुँच गया। संयोग से वह वहाँ अकेला ही था। उसने मेरा मुस्कराकर स्वागत किया और बोला-‘सुमत, तुम्हारी बुआजी ने मुझ से मिलने की मना की होगी फिर तुम मुझ से मिलने क्यों चले आये?’ मुझे कहना पड़ा-‘तुम में मुझे कोई दोष दिखाई नहीं दिया। मेरा चित्त मुझे तुम्हारे पास खीचं लाया। तुम्हारा सोच गहरा है। लोगों के पास दृष्टि नहीं है। इसीलिये वे आपको सही नहीं मान पा रहे हैं। उन्हें तुम्हारी बातें धर्म के विपरीत लगतीं हैं।’
वह बोला-‘ क्या शूद्र होना कोई अभिशाप है? जातियाँ कर्म के आधार पर बनी हैं कि नहीं? अब उन्हें जन्म से जोड़कर हेय किया जा रहा है। तुम्ही बताओ कि क्या यह न्याय संगत है? यदि नहीं तो मेरे शूद्र होने का विरोध क्यों? इस तरह की बातें बहुत देर तक हम दोनों उस वटवृक्ष के नीचे बैठे करते रहे।
उसकी तर्क संगत बातें गुनते हुए मैं बुआजी के डर से जल्दी ही लौट आया था। उस दिन से उसकी बातें मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं हैं। अगले दिन ही मेरे पिता जी मुझे लेने पहुँच गये तो मैं उनके साथ अयोध्या लौट आया।
उसे शम्बूक के बारे में फूफा जी द्वारा कही बातें याद आने लगी -हर पिता की दृष्टि अपने पुत्र की प्रगति के लिए प्रयास करने पर रहती है। एक दिन उसके पिताजी सुमेरु ने अपने परिजनों के समक्ष शम्बूक के बारे में बात रखी-‘मेरे वत्स शत्बूक का आचरण मुझे ठीक नहीं लग रहा है। उसका कहना है कि क्या हमारी जाति राक्षसों से भी गई गुजरी है कि हमें तप करने का अधिकार नहीं है। बड़े-बड़े राक्षस तप करके तीनों लोकों के लिये सिर दर्द बन गये हैं। उन्हें किसी ने तप करने से रोका नहीं। इसके विपरीत बात यह रही कि स्वयम् भगवान शंकर जी को एवं ब्रह्मा जी को उपस्थित होकर उन्हें वरदान देना पड़ा है। हम सेवाभावी लोग हैं ,हमारे लिये केवल सेवा का काम ही दिया गया है। कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए, अपने को श्रेष्ठ घोषित करने के लिए, हमें तप से वंचित करके ठीक नहीं किया है। इसमें उनके स्वार्थ ही आड़े आ रहे हैं।’
उनमें से एक बयोवृद्ध ने कहा-‘जो हो, हमारे शम्बूक की बात तर्क संगत है। जो बात तर्क की कसौटी पर खरी न उतरे उसे पालन करने के लिये हम बाध्य नहीं है। हम सब को परिणाम की चिन्ता न करके, शम्बूक जो करना चाहता है उसे करने देना चाहिये। उसकी सभी बातें तर्क संगत हैं।’
समाज के इस निर्णय की बात जब शम्बूक ने सुनी तो उसका साहस और बढ़ गया। वह योग विद्या के अनिवार्य अंग ध्यान-साधना की ओर अग्रसर हो गया। घर के सूने कक्ष में घन्टों बैठा रहता। चुपके-चुपकें साधना चल पड़ी। अब उसके सामने प्रश्न था साधना कैसे की जाये?
ष्शम्बूक जान गया था कि साधना में गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु मिलना प्रभु कृपा से ही सम्भव है। मुझे तो यह बात आश्चर्य जनक लगती है कि प्रभु भी जिनका साधना के मार्ग पर कब्जा है, उन लोगों के दबाव में आकर अन्य किसी पर कृपा करने में संकोच कर रहे होंगे। यह सोचकर शम्बूक समझ गया, प्रभू मुझ पर कृपा क्यों करने लगे। वे मुझे पात्र ही नहीं मान रहे होंगे। इन गुरुओं के पास पात्रता नामक अस्त्र, व्यक्ति से दूरी बनाने के लिये बहुत बड़ा साधन है।
शम्बूक ऐसी ही बातें सोच-सोच कर व्यथित हो रहा था। इस सब के बावजूद उसने हार नहीं मानी। वह साधना में बैठता रहा। उसने सुना था महार्षि वाल्मीकि एक डकैत थे। उन पर नारद जी ने कृपा कर दी, नहीं-नहीं मुझे तो लगता है कृपा नहीं की, वल्कि उसको तप से विमुख करने के लिए उन्हें नारद मुनि ने उल्टा ही मंत्र जाप करने के लिए बतला दिया। डाकू जीवन जीने वाला क्या जाने इन चतुर लोगों की चालाकी। वाल्मीकि ने नारद जी को सच्चा परामर्शदाता मान लिया। वे आ गये नारद जी की बातों में और मरा-मरा जपने का रास्ता स्वीकार कर लिया। वे उनकी बात मानकर मरा-मरा का जाप करने लगे। मरा-मरा, राम- राम में बदल गया। तप के बल पर एक डकैत इतना बड़ा ऋषि बन गया है कि सुना है इन दिनों वे राम कथा का लेखन कर रहे हैं।
शम्बूक को यह समझ में नहीं आता कि जातियों के नाम पर तप-साधना से दूर रखने की ये कैसी बात समाज के सामने रखी गई! निश्चय ही विचार-विमर्श करने में कहीं कोई चूक रही होगी जो इस तरह का अविवेक पूर्ण निर्णय समाज पर थोप दिया। वह समझ गया कुछ लोगों ने ऐसा करके तप-साधना को अपने अधिकार में करने की यह कुचेष्टा की है। मैं इस मिथक को तोड़कर रहूँगा। लोग हैं कि अपने मन से चाहे जैसी कहानियाँ गढ़ते चले जाते हैं।
उन दिनों सुमत योगी महसूस कर रहा था कि रावण का आतंक चारों ओर फैल रहा है। विश्वामित्र राजा दशरथ से यज्ञ की रक्षा करने के लिये राम को लेकर गये हैं। राम ने ताड़का का वध कर दिया । तब सारे राक्षस रावण से मिल गये। कहते है रावण ने कठिन तप करके अमर होने का वरदान मांगा था। सारे राक्षस अमर होने का ही वरदान माँगते दिखे हैं। ये राक्षस कैसे मूर्ख हैं इतना भी नहीं जानते जो जन्म लेता है उसे कभी न कभी मरना ही पड़ता है। क्या इनके पास माँगने को और कुछ नहीं था?,सभी असुरों को अमर होने का वरदान माँगना रट गया। सभी यही माँगते रहे। उस दिन शम्बूक ने मुझे यह बतलाया था कि वाल्मीकि भी छोटी ही जाति के थे। तप के बलपर उन्होंने शक्ति अर्जित कर ली है इसीलिये एक लुटेरे को अब कोई छोटी जाति में नहीं गिनता। वैसे लुटेरों की कोई जाति नहीं होती। उसे श्रेष्ठता के कारण इन ब्राह्मणों ने अपने में मिला लिया। वाल्मिीकि भी चाहते तो प्रभू से सभी के लिये तप-साधना करने का अधिकार माँग लेते। साधना करने के तरीके अर्जित हुये तो वो अपने को इतना श्रेष्ठ समझने लगते है कि सब का गुरु बन बैठते हैं। उसके बाद तो वे सभी से अपने प्रति सम्पूर्ण समर्पण चाहते हैं। उसके बाद भी वह साधना करने के तरीके बताने में बहुत नखरे करने लगते हैं। उसे लगता है कि उसने संसार में सब कुछ जान लिया है। वे सर्वज्ञ होने का भ्रम पाल लेते हैं, उसके बाद तो सारे नियम कानून उन्हीं के चलने लगते हैं। वह झूठ को भी सत्य की थाली में रखकर परोसने लगते है। इस समय की सारी की सारी व्यवस्था इन्हीं लोगों का अनुसरण करके चल रही है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णू गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
भैया सुमत, इन्हीं सब कारणों से ये गुरु दूसरे ही ईश्वर बन बैठे हैं। उनकी वन्दना तीनों देवों से भी ऊपर हो गई। इस मंत्र के सहारे ब्राह्मणों ने गुरु के पद पर कब्जा कर लिया। देखना, किसी दिन इसके परिणाम भी देखने को मिलेंगे। कौन गुरु श्रेष्ठ है? कौन नहीं ? इसका निर्णय करना सामान्य जन के लिये बहुत ही कठिन है। सभी अपने-अपने को एक दूसरे से श्रेष्ठ बताने में लगे हैं। हर गुरु अपने को सभी से श्रेष्ठ बतलाता है। इससे जन सामान्य का भ्रमित होना स्वाभाविक है। मेरी बस्ती के सभी ब्राह्मण यह दावा कर रहे हैं कि वे ही संसार के श्रेष्ठ गुरु हैं। इन्होंने तो विश्वामित्र और वशिष्ठ जी जैसे ऋषियों को भी पीछे छोड़ दिया है।
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