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शम्बूक - 10

उपन्यास: शम्बूक 10

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

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7 शम्बूक का विवाह

इस विषय पर सुमत योगी की दृष्टि गहराती चली गई। संयोग से उन दिनों शम्बूक के फूफा जी का अयोध्या में अगमन हुआ। सुमत ने समय पाकर उनसे पूछा- ‘फूफा जी बतलायें, मेरे मित्र शम्बूक के क्या हाल-चाल हैं?’

उन्होंने बतलाया- हमारे गाँव के काशी प्रसाद शम्बूक के पिता के समवयस्क हैं। उन्होंने शम्बूक के पिताजी को समझाया-‘ अरे! सुमेरु जी मेरी दृष्टि में शम्बूक को राह पर लाने के लिये उसका विवाह कर देना चाहिए। उसके बाद इसके पास इन सब बातों के लिये समय ही नहीं रहेगा। आप कहें तो मेरी बहिन की लड़की बहुत अच्छी है। कहें तो मैं कल ही अपने बहनोई विष्णू नारायण को बुला लेता हूँ। सुना है वह लड़की भी साधना करती रहती है। साथ ही वह घर के काम-काज में निपुण है। दोनों एक जैसे मिल जायेंगे तो जीवन आराम से कट जायेगा। साथ ही वे अपने कार्य में प्रगति भी कर सकेंगे। देखना, खाली दिमाग शैतान का घर होता है। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।’

शम्बूक के पिता सुमेरु को काशी प्रसाद की यह बात बहुत भा गई। उसने शम्बूक का विवाह करने की ठान ली।

दूसरे दिन उसने पत्नी बासन्तिका के सामने यही बात रखी-‘गाँव के लोग यह कह रहे है कि हमें शम्बूक का शीघ्र विवाह कर देना चाहिए।’

वे बोली-‘सयाने लड़के बच्चों से उनकी अपनी राय लेने में ही भलाई है। हमने उसका विवाह तय कर दिया और वह तप-साधना करने पर आमादा हैं। अपनी बात खराब हो इससे पहले अच्छा है कि उससे भी बात की जाये। आप इस बात की चिन्ता नहीं करें आप के सामने वह कुछ बोलेगा नहीं। मैं ही उससे पूछ लूँगी। बच्चे माँ से अपने मन की बात कह देते हैं।’

अगले दिन शम्बूक साधना करने के बाद भोजन करने के लिये भोजन कक्ष में आया। बासन्तिका ने प्यार से भोजन की थाली परोसी और उसे उसके सामने रखते हुये बोली-‘बेटा, तुम्हारे पिताजी तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं। तुम इस बारे में क्या सोचते हो?’

‘माता जी मैं अपने तप-साधना में किसी को बाधक नहीं बनने देना चाहता।’

‘बेटा, कोई किसी के कार्य में बाधक नहीं बनता। बडे- बड़े ऋषि-मुनि भी तपस्वी हुये हैं। उन्होंने भी विवाह किये हैं कि नहीं?’

‘माता जी, आपका सोचना सही है। यदि दृढ़ संकल्प हो, उसमें कोई बाधक नहीं बन सकता। एक बात का घ्यान रखें, जिस लड़की से मेरे विवाह की बात करें, उसे मेरे संकल्प से अवगत जरूर करादें, जिससे वह मेरे इस कार्य मे बाधक नहीं बने।’

बासन्तिका को अपने पुत्र से इस तरह की बात की आशा नहीं थी। बड़े- बड़ों के यहाँ स्वयम्वर में सभी बातों की छूट है। हमारे वर्ग में ऐसी बातों का चलन नहीं है। उसने डरते- डरते यह बात अपने पति सुमेरु के समक्ष रखी-‘आपका सुपुत्र यह चाहता है कि जो लड़की विवाह कर आये वह उसकी तप- साधना में बाधक नहीं बने।’

वे बड़ी देर तक पत्नी के चेहरे की तरफ देखते रहे फिर बोले-‘शम्बूक की माँ ऐसे जिद्दी लड़के की उसकी अपनी बात मनाने में ही भलाई है। सम्भव है आगे चलकर वह अपनी जिद्द छोड़ दे। मैं काशीप्रसाद के समक्ष अपनी बात रख दूँगा। वे मेरी बात से सहमत होंगे तो बात आगे बढेगी। नहीं तो जाने-माने घर का, इतना अच्छा रिस्ता हाथ से निकल जायेगा। उनकी लड़की खानदानी है, वह सभी को साथ लेकर चलेगी। बुढ़ापे में हमारी सेवा भी करेगी।’

वे बोली-‘ कैसे भी शम्बूक के हाथ पीले हो जाये। इसी में हम सब की भलाई है।’

‘ठीक है पहले मैं काशीप्रसाद को समझाकर अपने मन की सारी बात बतला देता हूँ। उसे हमारी बात ठीक लगेगी तो बात आगे बढ़ जायेगी।’ यह कहते हे वे घर से बाहर निकल गये। उन्होंने यह बात काशीप्रसाद के सामने रखी। वे बोले-‘ हमारे वर्ग में क्षत्रियों की तरह स्वय्मवर का चलन नहीं है। हम शूद्र वर्ग के न होते तो हम भी अपनी भाँन्जी का स्वयम्वर आयोजित करते। सुना है राजा जनक की बाटिका में राम और सीता का मिलन हुआ था। दोनों नें एक दूसरे को देख परख लिया तभी बात आगे बढ़ी है। मैं भी उनके यहाँ जाकर, अपनी बहिन से यह बात पुछवा लूँगा।’

तीन-चार दिन बाद सुमेरु को खबर मिली-‘ हमारी भाँन्जी मोहनी को इस बात में कोई आपत्ति नहीं है। अरे! वह तप-साधना करे अथवा खेती- किसानी करे। उसका कहना है कि वह बिना काम के नहीं है। उसके पास कोई न कोई काम तो है।’

इसके बाद तो विवाह की तैयारियाँ की जाने लगी। सुमत को किसी न किसी बहाने से शम्बूक की सूचनायें मिलतीं रहीं। वह जाने कब से बुआ के यहाँ जाने की सोच रहा था। इन दिनों उसे बुआ के गाँव जाने का अवसर मिल ही गया। जब वह उस गाँव में पहुँचा शम्बूक कें विवाह की तैयारियाँ की जा रही थीं।

इन दिनों अयोध्या के हर गाँव और कस्वे में श्री राम के विवाह की तरह की परम्पराओं का चलन चल निकला है। इस क्षेत्र के निवासी इसी परम्पराओं सें अपने बच्चों के विवाह करना चाहते थे। इस तरह एक नई लोक रीति ने जन्म ले लिया था। सुमेरु भी इस विवाह को श्री राम के विवाह की तरह एक यादगार बनाना चाहते थे। खूब धूम-धाम से विवाह करनें की योजना बनाने लगे।

घर को नव वधू के स्वागत में लीप -पोतकर सुन्दर बना लिया। घर के सामने गेरू से वर वधू के काल्पनिक सुन्दर- सुन्दर चित्र बना दिये। जिससे लगने लगा कि इस घर में विवाह का कार्य सम्पन्न होना है।

उन दिनों विवाह के अवसर गाँव के प्रत्येक घर में राम-सीता के लोक गीत गाये जाने लगे। आर्यों के समय से जिस रीति-रिवाज से विवाह की पद्धति शुरू की हुई थी, उसी लोकरीति से विवाह के कार्यक्रम शुरू हो गये। वर-वधू में राम-सीता की छवि देखने की परम्परा विकसित हो रही थी। विवाह के कुछ दिन पहले पंण्डित जी सगुन लेकर आ गये। गाँव में विवाह का बुलउआ लगा, साथ ही लोक गीत गाये जाने का बुलउआ भेज दिया। स्त्रियाँ एकत्रित होकर लोक गीत गाने लगीं-

बने दूल्हा छवि देखो भगवान की, दुल्हन बनी सिया जानकी।

जैसे दूल्हा अवध विहारी, तैसई दुल्हान जनक दुलारी।

जाऊँ तन मन पर वलिहारी, मंशा पूरन भई सबके अरमान की।। दुल्हन बनी सिया जानकी.........

पंड़ित आये सगुन विचारें, कोऊ कोऊ मुँह से बेद उचारे।

सखियाँ करतीं है न्यौछारें, माया लुट गई सब हीरा के खान की।। दुल्हन बनी सिया जानकी.....

सखियाँ फूली नहीं समाबैं, दशरत जू कौ गारी गावैं।

दशरथ खड़े खड़े मुस्क्यावै, गारी गाती है राम विवाहके मान की।। दुल्हन बनी सिया जानकी....

सर पै क्रीट मुकुट को धारें, बागौ बारम्बार सम्हारें।

हो रही फूलन की बौछारें, शोभा बरनी जाय, धनुष-बान की।। दुल्हन बनी सिया जानकी...

दूसरे दिन दोपहर होने से पहले बारात सज-धजकर बैलगाड़ी से चल पड़ी। शम्बूक की ससुराल का गाँव दो योजन की दूरी पर ही था। धीरे-धीरे बारात अपनी चाल से दिन ढले उस गाँव में पहुँच पाई। बारात के स्वागत में सारा जन समूह गाँव की सीमा पर एकत्रित हो गया था। सभी बाराती राम की बारात की तरह आनन्द ले रहे थे। दूल्हें में राम की छवि निहार रहे थे। श्री राम की बारात सभी के लिये एक आदर्श बन गई थी। अब आर्यों की इस धरा पर एक इस नई परम्परा के अनुसार विवाह की रस्में की जाने लगीं थी। सभी इस नई लोकरीति का भरपूर आनन्द ले रहे थे। बारात समय पर पहुँच गई। पहले गाँव के लोगों ने बारात को एक बगीचे में जाकर ठहराया। परम्परा के अनुसार सारा गाँव बारात की सेवा में लग गया। सभी यह मानकर चल रहे थे कि बारात उनके अपने घर आई है। अच्छी दावत की व्यवस्था की गई। सभी बाराती शान में तने दिख रहे थे। गोधूल वेला में लग्न का समय था । बारात सजधजकर उनके दरवाजे पर पहुँच गई। टीका हुआ उसके बाद बारात को पंगत दी गई। महिलायें बारात के स्वागत में गीत गा रही थी-

राज जनक जी की पौर पै दशरथ चढ़ आये ।

कोट नवै परवत नवै सिर नवै ना जानें

माथों आजुल राजा नवै,

साजन द्वार पै आवें टीका के बाद शम्बूक को मण्डप के नीचे ले जाकर बैठाया गया। मण्डप केले और आम के पत्तें से सजा हुआ था। मण्डप के बीचों बीच मडवा का प्रतीक जो पलाश की लकड़ी का बना हुआ था जिसे गाँव के बढ़ई ने कारीगरी से इतना सुन्दर बना दिया था कि देखते ही रहो। उसे जमीन में गढढ़ा कर के गाड़ दिया गया था। उससे सटकर बाँस की लकड़ी भी गड़ी थी। उस पर कलावा लपेट दिया गया था जिससे वह बहुत ही सुन्दर लग रहा था। मण्डप को रच रचकर गेउरी मिश्रित गोबर से लीपा गया था। भाँवर का समय हो गया तो बधू मोहनी को वर के बगल में बैठाया गया। ब्राह्मण ने वेद मन्त्रों का उच्चारण करना शुरू कर दिया। देर रात तक विवाह का कार्यक्रम सम्पन्न हो गया।

गारी मानव स्वभाव में रची वसीं है। विवाह के अवसर पर ये अपना नया ही रूप धारण करके समाज के सामने परोसी जातीं रहीं हैं। इनकी मिठास से हम आपको भी वंचित नहीं करना चाहते।

वधूपक्ष की ओर से महिलायें वर पक्ष के सम्मान में राम के जीवन से जोड़कर गारीं के रूप में गा रहीं है-

एक सखी कह सुनों लालजी यह स्वरूप कहाँ पायो।

कानन सुनो काम अति सुन्दर की तुमको सोइ जायो।ा

बोली सिद्धि सुनहु रधुनन्दन तुम हमार नन्दोई।

एक बात तुमसे हम पूछें लाल न राखो गोई।।

होत विवाह सम्बन्ध सबन को अपनी जातिहि माहीं।

निज वहिनी श्रृंगी ऋषि को तुम कैसे दियों व्याही।।

कै उनको मुनीष ले भाग्यो कै वोई संग लगी।

एती बात बतावहु लालन तुम रधुवंश अदागी।।

लखन कहें सुनहु लाड़ली जेहि विधि जहाँ लिखि दीना।

कहैं संयोग होत है ताको विवाह तो कर्म अधीना।।

कहँ हम राजकुमार रधुवंशी कहँ विदेह वैरागी।

भयो हमारो विवाह तुमारे विधिगत गनै को भागी।।

एक सखी कह सुनहु लालजी तुमहि सकहि को जीती।

जाहिर अहे सकल जगमाही तुम्हरे घर की रीती।।

अति उदार करतूतिदार सब अवध पुरी की वामा।

खीर खाय पैदा सुत करती पति कर कछु नहिं कामा।।

सखी बचन सुनि तब रधुनन्दन बोले मृदु मुस्काते।

आपनि चाल छिपावहु प्यारी कहहु आन की बातें।।

कोउ नहि जन्में मात-पिता विन बंधी वेद की नीती।

तुम्हरे तो महि ते सब उपजै असि हमरे नहिं रीती।।

बोली चन्द्र कला तेहि औसर परम चतुर सुकुमारी।

सिद्धि कुवर की लहुरी भगनी लक्ष्मी निधि की सारी।।

लरिकाई ते रहे लालजी तुम तपसिन संग माही।

ये छल छन्द फन्द कहँ पाये सत्य कहो हम पाही।।

कै मुनि नारिन के संग सीखे कै निजि भगनी पासै।

मीठे-मीठे स्वाद लालजी विन चाखें नहिं भासै।।

बोले भरत भली कह सजनी तुमहू तो अबै कुमारी।

वर्णहु पुरुष संग की बातें सो कहँ सीखेउ प्यारी।।

रहे मुनिन संग ज्ञान सिखन को सो सब सुने सुनाये।

कामिन काम काला अब सीखन हम तुम्हरे ढिग आये।।

एक सखी कह सुनहु सवै मिल इनकी एक बड़ाई।

इनको सुन्दर देखि हुई कामवस स्त्रियाँ ताड़का आई।।

बोलें रिपुहन सुनहु भामिनी नाहक दोष न दीजै।

जो करतूति बनी नहिं उनसे सो हमसे भर लीजै।।

बिन जाने करतूति सबन को तुम्हरे घर भौ व्याहू।

सोउ पछिताव न रहै पियारी अब करि लेहु समाहू।।

विवाह के कार्यक्रमों के मध्य शम्बूक इन्हें बड़े ही ध्यान से सुन रहा था। वह मन ही मन राम के वंश की सच्चाई को जानने की कोशिश भी कर रहा था जिससे वह यथार्थ तक पहुँच सके।

सुमत योगी ने जब से यह गारी सुनी है तब से वह सोचता रहता है। राम के वंश परम्परा की तरह आदमी को अपनी मर्यादा बचाये रखने के लिये ये वैवाहिक-ज्योनार सचेत करने का काम करती हैं। जब लोग राम जैसे व्यक्त्त्वि को ही कहने से नहीं छोड़ रहे हैं तव सामान्य जन जीवन को कहने से कौन चूकने वाला है। ज्योनार के इस नये चलन ने सबके मन को प्रभावित किया हैं।

इस तरह घूम-धम से विवाह सम्पन्न हो गया। बधू कों लेकर बारात अपने गाँव लौट आई।

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शम्बूक का विवाह भाग.1 संक्षिप्त सार

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