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शम्बूक - 16

उपन्यास: शम्बूक 16

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

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जन्मना संस्कृतियों में द्वन्द भाग 2

। क्षत्री का पुत्र क्षत्री बने रहने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं। यों नया वर्ग जाति का आधार बनता जा रहा है। कर्मणा संस्कृति पीछे छूट रही है। जन्मना संस्कृति विस्तार पाती चली जा रही है। कर्मणा संस्कृति को लोग पुरानी परम्पराबादी संस्कृति की तरह देखने लगे हैं। जन्मना संस्कृति को नई विकसित आधुनिक सभ्य संस्कृति के रूप में पेश किया जाने लगा है। कर्मणा को पिछड़ी इुई संस्कृति के रूप में लोग देखने लगे हैं। इस तरह नई-पुरानी संस्कृति की टकराहट दिखाई देने लगी है। यों नई स्ंस्कृति अपनाकर सभी अपने को अत्याधुनिक घोषित करने का प्रयास करने लगे हैं। मेरे मन में यह बात आती है कि एक वार चलकर देख लेना चाहिए , ये लोग कैसे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

इस तरह सुन्दर लाल त्रिवेदी यही सब सोचते हुये वस्ती का भ्रमण करने निकले। वे बस्ती के बाहर बनी चर्मकारों की वस्ती में प्रवेश कर गये। वे एक चमड़े की विभिन्न प्रकार की बस्तुएँ बनाने वाले की दुकान में प्रवेश कर गये। दुकानदार उनके हम उम्र था तथा उन्हें पहिचानता भी था। वह उनके पास आकर बोला-‘ मेरे अहोभाग्य जो आप हमारे यहाँ पधारे हैं। वैसे इस दुकान पर महाराज शत्रुहन जी का सेवक अपने आसन के लिये मृगचर्म लेकर गया है। त्रिवेदी आप तो ये पनहीं पहन लें।’

सुन्दर लाल त्रिवेदी बोले-‘ पनहीं तो मैं फिर किसी दिन पहिनने आउँगा। आज तो आप सब से मिलने के लिये ही आया हूँ।’

वह बोला-‘फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’

वे दुकान से बाहर निकलते हुये बोले-‘ आज नहीं फिर कभी सेवा तो लेना ही पड़ेगी।’ अब वे आगे बढ़ गये। उसके पास में चर्मकारों की अनेक दुकानें थी। वे उन पर दृष्टि डालते हुये उस मोहल्ले को पार कर गये।

इसके आगे बुनकरों की दुकाने थीं। वे सूत कातने के यंत्रों पर सूत कात रहे थे। कुछ दुकानों में महीन सूत से बस्त्र बुने जा रहे थे। वे दत्त चित्त होकर अपने काम में लगे थे। किसी दुकान में कुछ ग्राहक दुकानदार से मोल-भाव करने को लेकर कहा सुनी कर रहे थे। उसके पास दस सेर ही गेंहूँ था, दुकानदार जनानी धोती के पन्द्रह सेर गेंहूँ माँग रहा था। इससे कम पर बात नहीं बनी तो ग्राहक धोती छोड़कर जा रहा था। तरह-’तरह के वस्त्र ग्राहको को लुभाने दुकान में बंधीं डोरी पर लटका रखे थे।

वे दत्तचित्त होकर उन्हें देखते हुये आगे बढ़ते रहे। अब वे सुनारों की बस्ती में से गुजर रहे थे। सभी दुकानदार त्रिवेदी जी को लालायत दृष्टि से देख रहे थे कि वे कुछ खरीदने उनकी दुकान में आ जाये। दुकानों में कुछ लोग सोने- चाँदी के आभूषण बना रहे थे। प्रत्येक दुकान से ठक- ठक की आवाज सुनते हुये वे आगे बढ़ते रहे। वे सोच रहे थे मैं इस नई विकसित संस्कृति का व्यर्थ ही विरोध कर रहा था। यहाँ तो सभी अपने अपने काम में व्यस्त हैं। मानव के विकाश के ये अच्छे लक्षण हैं। यहाँ सभी एक दूसरे की होड़ में आगे वढ़ने का प्रयास कर हे हैं। हमारे घर में तो सभी भाई एह दूसरे का मुँह ताका करते थे।

इन्हीं विचारों में डूवे वे अपने बड़े लड़के उमेश के घर पहुँच गये। घर में पढ़ने वाले छात्र अध्ययन रत थे। उमेश उन्हें दत्तचित्त होकर पढा रहा था। आश्रम प्रणाली की वेशभूषा में उन्हें अध्ययन करते देख, उनका मन आनन्दित हो गया। जैसे ही पिता जी पर उमेश की दृष्टि पड़ी। वह साष्टांग हो उनके चरणों में पड़ गया। उन्होंने उसे प्यार से उठाया और दुलारते हुये बोले-‘ मैं तुम्हारे कार्य से संन्तुष्ट हूँ। मैं व्यर्थ ही तुम में भ्रमित होने का संन्देह पाल रहा था। तुम तो उचित दिशा में आगे बढ़ रहे हो। उन्होंने देखा, उसी समय उमेश के छात्र उन्हें क्रम से प्रणाम करने आ गये। वन्दना घर के अन्दर थी, उसे जैसे ही ज्ञात हुआ कि स्वसुर जी आये हैं तो वह भी वहाँ आ गई । उसने अपनी साड़ी का पल्लू पकड़ा औरं उसके सहारे उनके चरण छू लिये। साथ में एक सेवक पौते को गोद में लिये था। सुन्दर लाल त्रिवेदी ने आगे बढ़कर उसे ले लिया और सीने से चिपका लिया। वह उन्हें देखकर रोने लगा तो वे बोले’- बेटे, अब रो नहीं मैं आ गया हूँ। वह तोतली भाषा में बोला-‘हमें...यहाँ अच्छा नहीं लगता...। यह सुनकर वे समझ गये- वहाँ अपने सभी काकाओं एवं काकियों का साथ था , यहाँ इन दो के चक्कर में फस गया है। वहाँ भरापूरा घर था यहाँ अकेला रह गया है। इसे यहाँ अच्छा कैसे लगेगा? यह सोचकर बोले-‘ अब यहाँ तुम्हारे पास सभी आया करेंगे।’

वह बोला-‘ सच बाबाजी।

उन्होंने कहा-सच। वे बहुत देर तक उसे दुलारते रहे। वन्दना अन्दर जाकर उनके लिये वेलपत्र के फल का शर्वत बना लाई और उसे उन्हें देते हुये बोली-‘ पिताजी भोजन तैयार है। आप निवृत होकर भोजन करलें।’

वे बोले -‘ आज तो मैं तुम्हारे हाथ का ही भोजन करने आया हूँ। मैं क्या करूँ, तुम्हारे हाथ के बने भोजन की बहुत याद आती है। मुझे सबसे अधिक याद आती है तो पौत्र ऋतुराज की। उसके बिना तो घर में मेरा मन ही नहीं लगता किन्तु क्या करें ? वह अपनी माँ के बिना भी तो नहीं रह सकता है।

उमेश बोला-‘यहाँ मेरा भी मन आप सबके बिना नहीं लगता है किन्तु यहाँ पढ़ने वाले छात्रों के लिये अनुकूल वातावरण है। क्षेत्र भर के लोग उन्हें यहाँ पढ़ने भेजने को उत्सुक रहते हैं। यह अच्छा काम यहाँ जम गया है। बच्चों से मेरी आवश्यकता की पूर्ति होती रहती है। घर आराम से चल जाता है और कुछ बचत भी हो जाती है। अब यहाँ ऐसा फस गया हूँ कि इसे छोड़कर जाना भी नहीं हो सकता।’

उसे पिता जी समझते हुये बोले-‘ कोई दूर तो रह नहीं रहे। रह तो इसी गाँव के दूसरे मोहल्ले में ही हैं। बेटा, हमारे पास भी कभी-कभी चक्कर लगा दिया करो।’

उमेश ने उत्तर दिया-‘ छोटा सुशील तो अपने भतीजे के पास रोजाना चक्कर लगा जाता है। आप, चिन्ता नहीं करें, मुझे जैसे ही समय मिला करेगा मैं भी आपके पास आता- जाता रहूँगा ।

इसी समय वन्दना ने आवाज दी पिताजी, थाली परोस गई है। आप हाथ- मुँह धोकर भोजन करने बैठ जाये। सुबह के घर से निकले हैं, भूखे होगे।’

वे उसकी बात सुनकर हस्त प्रछालन करने हेतु जलघर में पहुँच गये। वहाँ व्यवस्थित जल पात्र रखने की जगह घिनोची दिखी। सामने पत्थर की टोड़ निकली थी। जिस पर एक खेप ताम्प्रपात्रों की, जिसमें पहले बड़ा पात्र उस पर उससे छोटा पात्र और उसके ऊपर उससे छोटा पात्र रखे थे। दूसरी खेप वहाँ मिटटी के बने पात्रों की रखी थी। एक के ऊपर एक क्रम से जलपात्रों को रखा देखकर वे मुग्ध हो गये। एक जलपात्र से जल उड़ेलकर उन्होंने हाथ मुँह धोया और भोजन करने करने के लिये जेमने घर अर्थात् भोजन कक्ष में पहुँच गये। वहाँ विछे कुशासन पर जाकर पालथी मारकर बैठ गये। वन्दना ताँवे के पात्र में जल भर कर ले आई और पिताजी के सामने रख दिया। उसके बाद काँसे की थाली में भोजन परस कर ले आई। दाल-चावल वथुआ की हरी सब्जी, नथुनों में सुगन्ध भरने लगी। उन्होंने ऊँ प्राणाय स्वाह ,ऊँ अपानाय स्वाहा, ऊँ समानाय स्वाहा, ऊँ उदानाय स्वाहा ऊँ व्यानाय स्वाहा मंत्र बोला- तीनवार आचमन किया और प्रभू का भोग लगाया और भोजन करने लगे। पौत्र ऋतुराज घुटनों के बल सरक कर उनके पास आ गया। वन्दना ने उसे रोकना चाहा कि वह भोजन करने में व्यवधान उत्पन्न न करें। सुन्दर लाल त्रिवेदी बोले-‘ बेटी, उसे आने दे। पौत्र उनके पास पहुँच गया। वे उसे अपने हाथ से भोजन कराने लगे। वन्दना और उमेश यह देखकर मन ही मन पश्चाताप करने लगे- पता नहीं किस विकास के स्वार्थ में हम घर छोड़कर चले आये। उधर पिताजी भोजन से निवृत हो गये। ऊँ सहनावतु ,सह नौ भुनक्तु, सह वीर्य करवावहै, तेजस्विनावधी तमस्तु, मा विद्विषावहै, ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। कहकर आचमन ले लिया। उनका चित्त कचपचाते मन से घर लौटने का हो गया। वे इस आनन्द को छोड़ना नहीं चाहते थे किन्तु छोटे का सेवाभाव याद आने लगा। वे उठे और पौत्र को उठा कर गले लगाकर दुलार करते रहे। उसके वाद उसे वन्दना को दे दिया और वापस लौट पड़े। उनका मन महेन्द्र और सुखदेव के यहाँ की व्यवस्था देखने का हो गया। पता तो चले वे कैसे रहते हैं। आज समय अधिक हो गया था इसलिये सीधे घर चले गये। घर जाकर सारा वृतांत पत्नी सरस्वती से कह सुनाया। वे उनसे लड़ने लगीं। आप उसके यहाँ अकेले कैसे चले गये? मुझे भी साथ लेकर जाते। वे बोले- ‘हम दोनों ही कल महेन्द्र और सुखदेव के यहाँ चलते हैं।’

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