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शम्बूक - 15

उपन्यास: शम्बूक 15

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

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11 कर्मणा और जन्मना संस्कृतियों में द्वन्द-

वे किस्सा सुनाने से रुके नहीं, बोलते रहे-जब-जब लोगों को किसी संस्कृति में दोष दिखाई देने लगते हैं तब-तब उनके सुधार की आवाज बुलन्द होने लगती है। विकसित संस्कृति के लक्षण यह हैं कि वह दोष निवारण के लिये आतुर दिखाई देने लगती है। हमारी सनातन कही जाने वाली संस्कृति की यही पहिचान है। कर्मणा संस्कृति में कुछ दोष दिखाई देने लगे थे तभी वह आगे बढ़ी और उसने जन्मना संस्कृति का हाथ थाम लिया।

यह परिवर्तन इतने शनैः- शनैः होता है कि इसकी किसी को आहट भी नहीं मिलती और परिवर्तन होता चला जाता है। जब परिवर्तन का बड़ा रूप दिखाई देने लगता है तव लोगों की समझ में आ पाता है कि कहीं कोई परिवर्तन हो गया है।

दोष किसी संस्कृति में मढ़े नहीं जाते वल्कि उसमें चलते- चलते स्वाभाविक रूप से दिखाई देने लगते हैं। उनका उपचार भी स्वतः ही होता चलता है। इन पड़ावों से ही संस्कृति आगे बढ़ती जाती है।

सुन्दर लाल त्रिवेदी के घर आज उनका बड़ा पुत्र उमेश घर छोड़ने के लिए अपना सामान बाँध रहा है। वह अपने छोटे भाई सुशील से इस काम में मदद ले रहा है। जब सारा सामान बँध गया तो वह बैठक में आकर अपने पिताजी से बोला-‘आज मैं पाण्डित्य कर्म करने वालों की बस्ती में निवास करने के लिये जा रहा हूँ। वहाँ अपने वर्ग के लोगों के साथ मेरे कार्य में उन्नति सम्भव है। मैं चाहता हूँ आप मेंरे साथ रहने के लिये चले। उस बस्ती में सभी ने मिलकर मेरे लिये रहने कें लिये घर बनाने में मदद कर दी है। अब तो सीधे वहाँ जाकर रहना है।’

सुन्दर लाल त्रिवेदी बोले-‘मैं तो यही रह कर जीना-मरना चाहता हूँ। मेरे साथ मेरे सभी छोटे पुत्र भी बधे हैं। तुम अब कमाने- खाने लगे हो। तुमने समाज में अपनी साख भी बना ली है। मैं समझ रहा हूँ, तुम यहाँ की व्यवस्था से संन्तुष्ट नहीं हो। वहाँ खुलकर अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रह सकोंगे। मैं समझ रहा हूँ यहाँ के सारे नियम-कानून वहाँ लागू नहीं होगे। सुख से रह सकोगे। मेरे घर की परम्परायंे मेरे पुरखों की देन हैं, मैं उन्हीं से बँधा हूँ। इस देहरी पर मैं उन्हें टूटने नहीं दूँगा। इसे मेरा अपनी पोषित व्यवस्था के प्रति मोह कहें चाहें कुछ और। मुझे परम्परावादी भी कह सकते हैं। यहाँ रहें चाहे कहीं चले जायें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। जब मेरा मन होगा मैं तुम्हारे यहाँ आता जाता रहूँगा।’

यह सुनकर उमेश ने पिताजी के चरण छुये और अन्दर जाकर अपना समान उठा लिया। उसकी पत्नी वन्दना अपने पुत्र को लेकर अपनी सासू माँ के चरण छू कर घर से निकल पड़ी। उनकी दोनों भ्राताओं की पत्नियाँ उनके पीछे- पीछे देहरी तक आई। जब वह निकल गई तो ठिठकर देहरी के अन्दर ही रह गईं। सभी अपने आँसू रोक नहीं पाये। सबसे छोटा भ्राता सुशील उमेश के साथ सामान लेकर उसे पहुँचाने उसके साथ चला गया था। पिता खड़े-खडे उसे जाते हुये देखते रहे। उन्हें दुःख था तो अपने पौत्र के दूर रहने का था। वे एक टक उसे ही देखे जा रहे थे। उन्हें अपना टूटता घर उनके अपने सपनों को तोड़ रहा था।

उमेश अब अपने लोगों की बस्ती में पहुँच गया था। वहाँ लकड़ी से पाटकर दो-तीन मन्जिल के मकान बना लिये थे। उनके घर आसमान को छूने का प्रयास कर रहे थे। वहाँ लोग अपने-अपने कार्य में लगे थे। कुछ चरक संहिता के माध्यम से देशी दवाओं की नयी- नयी खोजों में लगे थे। कुछ लोग रोगों के उपचार के नये तरीके खोजने का दावा कर रहे थे। कुछ कृषि में नयी- नयी शोध करके नये- नये बीज पैदा करने की जुगत बैठा रहे थे। कुछ वेद शास्त्रो से नये- नये अस्त्र-शस्त्र बनाने की कला खोज कर शिल्पकारों के समक्ष रखना चाहते थे। हर घर में शास्त्र चर्चा कर नये- नये निष्कर्ष निकालने का प्रयास कर रहे थे। ज्योतिष का कार्य भी तीर्व गति से चल पड़ा था।

उधर सुन्दर लाल त्रिवेदी का दूसरा पुत्र महेन्द्र भी अपनी पत्नी से परामर्श कर अपनेी राह खोजने में लग गया था। उसने भी अपने जेष्ठ भ्राता की तरह अपनी मंजिल तय करने का मन बना लिया। उसकी पत्नी भी पति से नित्य मिलन कें सपने देखने लगी। उस आनन्द की बातें पति से व्यक्त करने लगी। महेन्द्र का मन उस आनन्द को छोड़ना नहीं चाहता था। उसने अपने क्षत्रिय वर्गं की बस्ती में अपने लिये घर की व्यवस्था कर ली। कुछ ही दिनों में उसने भी पिताजी से कहा-‘पिताजी मैं क्षत्रियों की बस्ती में रहने जा रहा हूँ। मेरी वहाँ रहने की व्यवस्था सभी के सहयोग ये हो गई है। आप भी मेरे साथ रहने के लिये चलें। वहाँ आपको किसी तरह का कष्ट नहीं होगा।’

वे बोले-‘मैं समझ गया हूँ, मैं जिस संस्कृति को बचाने का प्रयास कर रहा था वह बच नहीं पा रही है। चाहे जो भी हो मैं अपने पथ पर जिन्दगी भर चलता रहूँगा। उमेश उस बस्ती में जाकर वहुत खुश है। तुम भी अपनी बस्ती में जाकर खुश रहो। हमें यही रहने दो।’

उनकी बातें सुन कर वह भी अपना सामान लेकर धर से चला गया। सुशील उसे भी छोड़ेने उसी तरह गया जैसे बड़े भ्राता को गया था।

इस क्षत्रियों की बस्ती के एक ओर लोहकर्म करने वालों ने अपना मोहल्ला बनाकर मोर्चा सँभाल लिया था। वे लोहे के नये नये अस्त्र-शस्त्र बनाने में लगे थे। कौन सा अस्त्र कैये उपयोगी हो सकता है, इस विषय पर क्षत्रियों में चर्चा घनीभूत हो गई थी। महेन्द्र इस काम में बढ-चढ़कर हिस्सा ले रहा था। वह अपने को सच्चा क्षत्री बनकर दिखला देना चाहता था।

उधर महेन्द्र के जाते ही घर खाली-खाली लगने लगा। सुखदेव को भी अब अपनी मंजिल दिखाई देने लगी। कुछ ही दिनों में वह भी उसी तरह अपने वैश्य वर्ग की बस्ती में रहने के लिये पहुँच गया।

यह बस्ती सबसे भव्य थी। इस बस्ती में लोगों की भीड़ अधिक थी। लोग अपने दैनिक जीवन का सामान लेने इस दुकान से उस दुकान पर चक्कर लगा रहे थे।

उन दिनों तक केवल स्वर्ण की पण मुद्राओं का चलन ही हो पाया था। उसका उपयोग बड़े बड़े लेन-देन के लिये ही होता था। छोटे- छोटे लेन- देन तो वस्तु विनिमय प्रणाली के आधार पर ही होते थे। जिसके पास जो चीज अधिक होती थी , वह उस वस्तु को लेकर बाजार जाता और उसके बदले में आवश्यकता की सभी वस्तुयें दुकानदार से ले आता था। वस्तु की अधिकता व न्यूनता के आधार पर अनुपात के अनुसार देन-लेन का चलन चलता चला आ रहा था। किसी के खेत में दलहन की फसल पैदा हुई है तो वह उस दलहन को लेकर दुकान पर जा पहुँचा। दलहन के बदले आवश्यकता की सभी चीजे बदले में ले ली। कुछ चीजों के बदले दलहन कम देना पड़ी कुछ के बदले वही दलहन अधिक देना पड़ी। इस तरह बाजार सरसब्ज बनते चले जा रहे थे।

उस काल में चार धान की एक गुंजी या एक रत्ती का चलन रहा। पाँच रत्ती का एक पण। आठ पण का एक धरण, आठ धरण का एक पल अर्थात् ढाई छटाँक के लगभग, सौ पल अर्थात् सोलह सेर के लगभग की एक तुला होती है। बीस तुला का एक भार होता है यानी आज के माप से आठ मन का एक भार होता है। पाँच भार का एक कुडव होता है। चार कुडव का एक प्रस्थ होता है। चार सेर का एक आढ़क यानी बत्तीस सेर का एक द्रोण होता है। तीन द्रोण की एक खारी और आठ द्रोण का एक वाह होता है। इन्हीं मानकों से बाजार फल फूल रहे थे।

वैश्य वर्ग धनाढ़य वर्ग के रूप में सामने आ रहा था। वैश्य वर्ग अपनी वस्तुएँ किसानों को फसल के समय के लिये उधार देने लगे थे। उन पर सवा, दुगना, तिगुना ब्याज का चलन वस्तु के रूप में चल निकला था। वस्तु की उपयोगिता के आधार पर ब्याज तय होने लगा। कुछ आपस के व्यवहार में अथवा दया भाव में कम व्याज भी लेने लगे। इसी समय वस्तुएँ गिरवी रखने का चलन भी चल पड़ा था। यों तीव्र गति से व्यवस्था पंख फैलाने लगी थी।

वैश्य वर्ग के पास काम की अधिकता थी। सेवक वर्ग उन्हीं के यहाँ काम की तलाश में आने लगे थे। वे वैश्य शिल्पकारों से नयी-नयी वस्तुओं का निर्माण करने की कला सीखने लगे। यों सेवक वर्ग को वैश्य वर्ग में सम्मिलित होने की सुविधा मिलने लगी। वैश्य और सेवक वर्ग अन्य वर्गों की तुलना में अधिक निकट होते चले जा रहे थे।

सुन्दर लाल त्रिवेदी सोच में डूवे थे -हर वस्ती में काम के आधार पर बने वर्ग नये रूप में विकसित हो रहे हैं। हर गली, मौहल्ले अलग-अलग वर्गों की बस्ती के रूप में उभर रहे हैं। उनमें उन्हीं वर्गों के लोग बसने के लिये आते जा रहे हैं। सभी अपने अपने पुत्र-पौत्रों को अपने काम की कला सिखाने में गौरव अनुभव कर रहे हैं। इस तरह अब ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण बनकर सामने आने लगा है

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