उपन्यास : शम्बूक 19
रामगोपाल भावुक
सम्पर्क सूत्र-
कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110
मो 0 -09425715707 Email-tiwari ramgopal 5@gmai.com
13 शम्बूक के आश्रम में- भाग 1
13. शम्बूक के आश्रम में-
सुमत योगी का चिन्तन इन दिनों तर्क की सरिता में प्रवाहित हो रहा था-अपना चित्त ही अपना गुरु है। इसे अर्न्तगुरु भी कह सकते हैं। वह आदमी को सत्- असत् का रास्ता भी सुझाता चलता है।
इन दिनों शम्बूक को परम्परा से चली आ रही आश्रम व्यवस्था में भी दोष दिखाई देने लगे हैं। वह सोचता है आश्रम ऐसा हो कि साधना के साथ लोगों को जीविकोपार्जन की राह भी दिखा सके। ऐसा समय आ गया है कि ज्येष्ठ भ्राता ही अपने लघु भ्रताओं को अपनी कला नहीं सिखा रहे हैं। एक समय था जब सभी भ्राता अपने भ्राताओं की संतानों को अपनी संतान की तरह ही प्यार करते थे। जीवन जीने की कलायें उन्हें भी सिखाते थे। अब तो वे केवल अपने पुत्र तक ही सीमित रह गये हैं। उन्हें ही अपना सारा ज्ञान विरासत में देना चाहते हैं। जन्मना संस्कृति में यह दोष कुण्डली मारकर बैठ गया है।
आजकल यह चलन चल पड़ा है कि पिता अपने पुत्र को अपनी कला बड़ी रुचि से सिखाते हुए देखे जा सकते हैं। वे उस कला को अपने पुत्र के अतिरिक्त किसी दूसरे को नहीं सिखाते। मैं अपने इस आश्रम में ऐसे सभी उपेक्षित लोगों को उनके मन के कार्य सिखाने का प्रयास करुँगा। इस तरह परिवारबाद से इस कार्य प्रणाली को बाहर निकालना पड़ेगा। संयुक्त परिवार में जो बच्चा जिस कार्य को सीखना चाहता था सीख लेता था। इस नई विकसित जन्मना संस्कृति में अपनेपन की स्वार्थ भावना का विकास अधिक हो रहा है। इस तरह के सोच में शम्बूक के दोनों लड़के बड़े हो गये थे। दोनों का विवाह भी हो गया । वे कृषि कार्य में लग गये थे किन्तु शम्बूक अपने दैनिक कार्य कलापों के साथ साधना में लगा रहा। उसके लड़कों ने कृषि कार्य सँभाल लिया और एक दिन शम्बूक अपनी पत्नी मोहनी को साथ लेकर जंगल के लिये निकल पड़ा। उन दोनों ने घने जंगल के मघ्य एक आश्रम का निर्माण कर डाला।
शम्बूक के चित्त में कर्मणा संस्कृति एवं जन्मना के मध्य द्वन्द चल ही रहा था। उसे जन्मना की अपेक्षा कर्मणा संस्कृति अधिक सार्थक लग रही थी। उसे नई विकसित होती जन्मना संस्कृति में दोष ही दोष दिखाई देने लगे थे। संस्कृतियों का विकसित होना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है किन्तु विकास की प्रक्रिया में शुरू से ही कुछ दोष भी द्रष्टि गोचर होने लगते हैं। वह कोई ऐसा उपाय खोज निकालना चाहता है जिससे नई विकसित संस्कृति के दोषों का परिहार हो सके।
इन दिनों शम्बूक के बारे में चर्चा सुशील के कानों में सुनाई पड़ी। वह जान गया शम्बूक एक तपस्वी एवं साधक है। वह नये- नये कार्यों की खोज में लग गया है। वह उन्हें खोजते हुये उनके आश्रम पर पहुँच गया। उसने अपनी व्यथा उनकें सामने उड़ेल दी। बोला-मुझे उपानाह निर्मित करने का कार्य बहुत भाता है। मेरे ज्येष्ठ भ्राता दूसरे कार्यों में लगे हैं। वे अपना काम मुझ पर थोपना चाहते हैं। उसमें भी श्रेष्ठता वे अपने-अपने पुत्रों को प्रदान करना चाहते हैं। आप मेरी मेरे कार्य में मदद करें। शम्बूक ने सुशील को अपने आश्रम में उपानाह बनाने के कार्य में लगा दिया। वह सोचने लगा-‘‘यह किसी एक व्यक्ति की व्यथा नहीं है वल्कि समाज के अधिकांश लोगों की समस्या है। इन समस्याओं का हल खोजने की आवश्यकता है। आगे चलकर विकास के क्रम में मेरे आश्रम की परम्परा योजन का पत्थर(नई परम्परा) सावित होगी।
शम्बूक के चित्त में इन दिनों आर्य संस्कृति का पुर्नावलोकन चलने लगा। आर्य लोग सनातन संस्कृति के जानकर रहे हैं। वह स्वीकार करता है कि सर्वव्यापी परबह्म परमेश्वर जो सभी कीट- पतंगों में विराजमान है्र। सभी उसी की सत्ता से विचरण कर रहे हैं। शत्रु- मित्र भाव जहाँ तिरोहित हो जाते हैं। विना सम्पूर्ण योग के द्वन्द्व मिटता नहीं है। यह अवस्था कितनों को प्राप्त है। इसी सोच में रहते हुये उसने बागड लगाकर एक विशाल आश्रम का निर्माण कर लिया। उसकी पत्नी उसके काम में दिन-रात सहयोग करने लगी। उन्हीं की उम्र के कुछ लोग, उसका कार्य देखकर उसे सहयोग करने के लिये और आ गये। शम्बूक ने इन्हें समझाया-‘यह आश्रम अन्य ऋषियों के आश्रम जैसा नहीं होगा। इसमें साधना के साथ-साथ लोगों को जीवन जीने की कला सिखाने का कार्य भी होगा। यहाँ रहकर स्वयम् उपार्जित बस्तुओं से अपना भरण- पोषण करना पड़ेगा। जब तक आश्रमवासी मेरे कार्य से सहमत रहें तो सहयोग करते रहे। मेरे बताये कार्यों से आप अपनी स्वेच्छा से सहमत न हो और यहाँ से जाना चाहें तो अपना परामर्श देकर चले जायें इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।’
यह कह कर वे सोचने लगे-‘मैं किसी को अपने बन्धन में नहीं रखना चाहता क्योंकि मैं किसी गुरु के बन्धन में नहीं हूँ। मुझे साधना में कहीं कुछ मिला है तो अपने प्रयास से ही ,इसीलिये मुझे किसी को बन्धन में रखने का अधिकार नहीं है। मैं तो बंधन से मुक्त करने के उपाय खोजने निकला हूँ। समाज में जितने बंधन है सब के सब आदमी ने अपनी मजबूरी में स्वीकार किये है। केवल वे बंधन स्वीकार करने योग्य होते है जो वे अर्न्तमन से स्वीकारे जाते हैं। उनमें बनावटीपन नहीं होता। आप कहेंगे बन्धनों का नाम ही व्यवस्था है। उन्हें स्वीकार करने के जो तर्क हैं वे लोगों के मन में इस तरह बैठा दिये गये हैं कि वे स्थाई भाव की तरह उनके हृदय में प्रवेश कर गये हैं। उन्हें ही हम सत्य मानकर चल रहे हैं। मानव के विकास में स्थाई कुछ नहीं होता। सारा चराचर चलाय मान है। सारे नियम कानून आदमी की सुविधा-असुविधा को देख कर बदलते रहना चाहिये।
आप कहेंगे परम सत्ता की उपस्थिति का कोई अनुभव कहें। देखिये- उसे हम अपने ही शरीर में महसूस कर सकते हैं। अपने आप ही में अपानवायु और उदान वायु को कौन प्रथक कर रहा है। जरा सोचकर देखें। कैसे किसी एक विन्दु से दोनों वायु अलग-अलग दिशाओं में प्रवाहित होती रहतीं हैं।
आप कहेंगे खंड़न-मंड़न करना मेरा काम हैं। आज आदमी जिस रूप में दिख रहा है वह उसका असली रूप नहीं है। उसमें बनावटीपन भरा है। मेरा विरोध इसी बनाबटी पन से है। जो तर्क संगत ढंग से जीवन जीना चाहेगा वही इस आश्रम का बासी होगा। मैं चाहता हूँ यहाँ का बासी किसी न किसी कला में परिपूर्ण होना ही चाहिए। आदमी को वे सारी सुविधायें उपलव्ध हो जो उसकी प्रकृति से प्रगति में सहायक हो। वह जिस पथ पर चले, उस पर आसानी से बढ़ सके। यहाँ हम वेद-शास़्त्रों से खोजकर नये-नये कार्यों को सामने लाना चाहतें है। वेदों में लोक गीतों के माध्यम से समस्त संस्कृति समाहित है। उनमें ऐसे- ऐसे तथ्य छुपे हैं जिन्हें आज खोजने की जरूरत है। मेरी दृष्टि में वेद लोक संस्कति के संवाहक हैं।
व्यक्ति जो भी कार्य सीखना चाहें वे उसे सीखें। इसी तरह लोहे एवं काष्ठ की बस्तुओं का निर्माण एवं स्वर्ण के गहने बनाना जो सीखना चाहते हैं हम उन्हें वे सभी कार्य इस आश्रम में सिखाकर,उसे एक अच्छा श्रमजीवी बना सकेंगे जिससे सही तरीके से समाज की उन्नति में वे सहयोग कर सकें। जिससे नई- नई बातें सीखने की परम्परा पिता से पुत्र तक ही सीमित न रह जाये। इसमें एकाधिकार की परम्परा विकसित होती है। मैं इस मिथक को तोड़ने के लिये ही घर से निकजा हूँ।
हम किसी की भिक्षा अर्थात दया पर निर्भर नहीं रहना चाहते। अन्य आश्रमों की तरह हमारे ब्रह्मचारी किसी के दरवाजे पर भिक्षा माँगने नहीं जायेंगे। आप कहेंगे कि फिर हम खायेंगे क्या? हम अपने आश्रम की व्यवस्था के लिये नये- नये तरीकों से कृषि कार्य करना सिखलायेंगे। जब तक आश्रम में अन्न का अभाव है तब तक फलों पर हम अत्म निर्भर रहेंगे। जहाँ हमारा आश्रम है इस स्थान पर जंगली बनस्पतियों की कमी नहीं है, अभी हम उन्हीं से अपना काम चालायेंगे। पास में सरिता की तलहटी है। जल की उसमें कमी नहीं है। सरिता से जल निकालने के साधनों की खोज करेंगे। मेरी इस योजना का प्रचार- प्रसार हो, जिससे अधिक से अधिक लोग लाभान्वित हो सकें। ’
धीरे- धीरे उसकी ये बातें जग जाहिर होने लगी। कुछ लोग रोजगार की खोज में उसके पास आने लगे। वह भी उन्हें अपने आश्रम में स्थान देने लगा। इन्हीं दिनों एक काष्ठ के काम करने वाले से उनकी मुलाकात हुई। शम्बूक ने उनके सामने प्रस्ताव रखा-‘ मैं चाहता हूँ , आप इस कार्य को लोगों को सिखायें। आपके सिखाते समय कुछ बस्तुए उपार्जित होंगी। हम उनका विक्रय करेंगे। आश्रमों में जो भिक्षा की प्रवृति पनप रही है वह ठीक नहीं है।’
‘यहाँ आकर एक प्रश्न उठ रहा है फिर आश्रम का खर्च कैसे चलेगा? हमारे देश के सभी आश्रम भिक्षावृति पर ही आधारित हैं। आपने इस विषय में क्या सोचा है ?’किसी साधक ने प्रश्न किया।
‘हमने सोचा है, हम अपने आश्रम में जिन लागों को जो कार्य सिखाना चाहते हैं। हम उन्हें सिखायेगे किन्तु बस्तुओं का निर्माण भी करेंगे। उन वस्तुओं से बस्तु-विनिमय करके अपने आश्रम का संचालन भी करेंगे। इससे लोगों में कार्य कुशलता आयेगी और जो वस्तुए बनेंगी उनसे हमारे आश्रम का खर्च चलने लगेगा। इस तरह आश्रम की भिक्षा की प्रणाली पर प्रतिबंध लगेगा। इस तरह हम आत्मनिर्भरता हो सकेंगे।