30 शेड्स ऑफ बेला - 24 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 24

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Day 24 by Shilpi Rastogi शिल्पी रस्तोगी

भटक रहा है आधा चांद

बेला को लगा था, अब जिंदगी ढर्रे पर आ गई है। ऐसे में दिल्ली से आशा का चिंता भरा फोन।

दोपहर को बता चुकी थीं उन्हें कि वह अब पद्मा की चिंता न करें वह बिल्कुल ठीक है। रिया भी बहुत खुश है अपनी पद्मा मौसी के साथ। वाकई बेला को लगने लगा था शायद अब ग्लेशियर पर ढकी बर्फ जैसे पिघलने लगी है।

लेकिन वो तो कुछ और ही कह रही थीं—बेला, कैसे कहूं बेटी? वो, दीदी, नियति घर आई हैं।

बेला स्तब्ध रह गई। नियति, वो ही तो थीं जिसे उम्र भर वो अपनी मां मानती आई है। और वो उनकी डायरी, तिवारी जी का कहना कि एक एक्सीडेंट में…

बेला को झुरझुरी सी हो आई। मोबाइल फोन हाथ से गिर गया। बड़ी मुश्किल से अपने को जज्ब कर बेला ने फोन उठाया, ‘क्या वो घर पर हैं? कैसी हैं?’

‘बहुत थकी हुई हैं दीदी। मुझे कुछ बता नहीं रहीं। बस कह रही हैं कि एक बार तुमसे मिलना चाहती हैं।’

बेला ने लंबी सांस ली, किसी तरह अपने आंसू गटक उसने धीरे से कहा, ‘जिंदगी इस तरह इम्तहां लेगी कभी सोचा ना था।’

आशा की आवाज जैसे दूर से आ रही थी, ‘लगता है किसी आश्रम में रह रही थीं दीदी। तू आएगी ना बेला?’

बेला ने धीरे से हां कहा। फोन रखने के बाद देर तक दिमाग सुन्न रहा। कमरे से पद्मा और रिया के खिलखिलाने की आवाज आ रही थी। रिया मौसी के बालों की चोटी बना रही थी और पद्मा उसकी गुडिया की।

बेला ने लंबी सांस ले कर समीर को फोन लगाया। समीर भी कुछ चौंका हुआ था। उसने तुरंत कहा, ‘तुम्हें जाना चाहिए बेला। मैं तुम्हारे टिकट का इंतजाम करता हूं।’

बेला ने ऑफिस फोन लगाया। पिछले कुछ दिनों से वह घर से काम कर रही है। उसकी बॉस सुधा उसके काम से खुश रहती है। उसने दो दिन की छुट्टी ले ली।

अपने कमरे में एक छोटे से सूटकेस में सामान पैक करते समय बेला को अहसास हुआ कि पिछले कुछ दिन उसकी जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ावों से भरे रहे हैं। अपना पुराना हैंडबैग बिस्तर पर खाली किया, बाहर जाते समय वो बड़ा बैग ले कर जाती थी।

अचानक उसकी नजर एक पैकेट पर पड़ी। ओह, आशा ने पद्मा को देने के लिए कहा था। पता नहीं कैसे उसके दिमाग से निकल गया। सफेद रंग का लिफाफा। बेला ने तुरंत लिफाफा उठाया और पद्मा के पास चली गई।

पद्मा की ओर बढ़ाते हुए बोली, ‘मां ने तुम्हारे लिए दिया था।’

पद्मा ने लिफाफा खोला, उसमें कुछ कागजात थे। एक चाबी भी। सरसरी निगाह डाली। पापा माइक की वसीयत थी। ऑस्ट्रेलिया का घर, तमाम जायदाद पद्मा के नाम की थी। साथ ही दिल्ली के एक बैंक के लॉकर की चाबी भी। उसमें बैंक का नाम, नॉमिनी का नाम लिखा हुआ था—पैट्रीशिया माइक।

पद्मा के चेहरे का रंग बदलने लगा। आंखें भर आईं। कागज हाथ से छूटने लगे।

बेला उसके पास आ गई, ‘पद्मा क्या हुआ?’

‘डैडी… अपने विल में सब कुछ मेरे नाम कर गए हैं। उनका घर, जमीन, पैसा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। मेरे डैड, जब मैं छोटी थी, मुझे कंधे पर बिठा कर गोल्फ खेलने जाते थे, घुड़सवारी करते थे मेरे साथ। मुझे वो डैडी चाहिए, आई वांट हिम बैक। मैं इन पैसों का क्या करूंगी? पैसा-पॉवर ये सब पागलपन है। मुझे नहीं चाहिए।’

बेला के कंधे पर सर रख कर सुबुक पड़ी पद्मा। कितनी निर्मल है उसकी बहन। बेला की आंखें भी भर आईं।

देर बाद लॉकर की चाबी हाथ में लेते हुए पद्मा कुछ सोचती हुई बोली, ‘इसमें मेरी सबसे प्यारी चीज होगी।’

‘मैं दिल्ली जा रही हूं पद्मा। पर लॉकर तुम्हारे नाम पर है, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती।’

‘तुम भूल रही हो कि तुम मैं भी हो।’ पद्मा फौरन खड़ी हो गई। अपना बैग टटोल कर एक पर्स निकाला। ऑस्ट्रेलिया में बना उसका आईडी कार्ड—पैट्रीशिया के नाम का। उसे थमाते हुए बोली, ‘कौन कह सकता है कि तुम पैट्रीशिया नहीं हो? मैं और तुम अलग हैं क्या?’

कार्ड और चाबी हाथ में ले तो लिए, पता नहीं वह क्या करेगी।

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बेला को दिल्ली अपने घर पहुंचते-पहुंचते रात हो गई। दिल्ली में वैसे भी मुंबई की तरह रात को सड़कें गुलजार नहीं रहतीं। सफदरजंग में अपनी कोठी के सामने टैक्सी से उतरते समय भी धुकपुक मची रही। मन ही मन मनाया—इसके बाद मुझे जिंदगी में और कोई सस्पेंस नहीं चाहिए। बस, अब नहीं…

आशा उसे देख कर घर से बाहर निकल आईं, ‘बेला, अब तू ही दीदी को संभाल सकती है। बहुत बेचैन हो रही हैं। कुछ खाया-पिया भी नहीं।’

पापा बरामदे में टहल रहे थे। बेला को देख आगे बढ़ आए, ‘मैंने डॉक्टर को बुलाया था बेटी, बीपी कंट्रोल में नहीं आ रहा। हॉस्पिटल भी नहीं जाना चाहतीं। सुबह से यही हाल है।’

कमरे में सोई हुई थीं नियति। आंखें बंद। बेला ने पास जा कर हलके से पुकारा- मां…

नियति ने धीरे से आंखें खोलीं, बेला को देख उठ बैठीं। बेला उनके गले लग कर रोने लगी।

पापा पीछे ही खड़े थे, ‘बेला, बहुत कमजोर हैं नियति। बोलो, अस्पताल चलने के लिए।’

बेला ने मुड़ कर कहा, ‘पापा, प्लीज हम दोनों को दस मिनट दीजिए। मैं जहां कहेंगे, वहां ले आऊंगी।’

नियति की कमजोर बांहों में बेला को बांधे रखने की ताकत ना थी।

‘मां, कहां चली गई थी तुम? मुझे पता चला था कि एक एक्सीडेंट में तुम…मैंने तुम्हारी डायरी पढ़ी थी… इतने दिन तुम कहां थी मां?’

नियति की आवाज कांप रही थी, ‘तुमने मेरी डायरी पढ़ी? तुम्हें पता है कि तुम्हारी मां… गाड़ी का एक्सीडेंट…कितना भयानक था। मैं बच गई थी। बहुत चोट आई थी मुझे। मेरे दोनों पैर। सिर पर गहरी चोट थी। छह महीने बाद होश आया। घर गई तो पता चला, सबने मान लिया था मैं मर गई हूं। मेरा सामान कोई ले गया था। मैं क्या करती? मैं शरीर से बहुत कमजोर थी। याददाश्त ठीक नहीं थी।’

‘तुम दिल्ली हमारे पास क्यों नहीं आ गईं मां?’ बेला ने तड़प कर पूछा।

‘यहां? क्यों? मैं अपनी मर्जी से घर छोड़ कर गई थी ना?’

‘आपको कभी मेरा ख्याल नहीं आया?’

‘तभी तो लौट कर आई हूं, तुझे देखने। एक बहुत बुरा सपना देखा था। डर गई मैं। बस एक बार सोचा, तुम्हें देख लूं। अघोरी बाबा कहते हैं…’…

‘कौन अघोरी बाबा? कहां मां?’

‘मैं रहती हूं ना उनके पास। काशी बनारस में। सालों से। बहुत शांति मिलती है वहां। गायों और बच्चों के बीच।’

नियति के चेहरे पर गजब की शांति थी, ‘तुझे देख लिया ना, अब मैं बिलकुल ठीक हो जाऊंगी। बहुत बार सोचा बेटी, मैंने गलत किया, तुझे छोड़ कर चली गई। अपने साथ तुझे भी ले जाना था… पर तेरी दादी तुझसे बहुत प्यार करती थी। तू मुझे गलत तो नहीं मानती ना बेला?’

‘अब नहीं मां। पहले बहुत गुस्सा आता था तुम पर। सबकी मां थी, सबका परिवार सामान्य था। तुम अलग थी। पर आज लगता है, तुमने सही किया मां। अपने लिए खुशी ढूंढना गलत नहीं। हम सब यही तो करते हैं। जब मैंने मान लिया कि हम दूसरों की तरह नहीं… कोई शिकायत नहीं है। बस जल्दी से ठीक हो जाओ। तुम्हें मैं अपने घर ले चलूंगी। तुम्हें मेरी बेटी को भी तो पेंटिंग बनाना सिखाना है ना?’

नियति की आंखें हंसते-हंसते रोने लगीं। जब कुछ देर बाद डॉक्टर नियति का बीपी चैक करने आया, तो वो काफी संभली हुई थी, बेला के हाथ से खाना भी खाया।

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अगले दिन सुबह-सुबह बेला पद्मा का आईडी और बैंक लॉकर की चाबी ले कर बैंक पहुंच गई। एक काम अपनी बहन के लिए करना था।

बड़ी आसानी से वह आईडी दिखा कर लॉकर तक पहुंची। बैंक कर्मचारी के सामने ही लॉकर खोला।

अंदर उसने जो देखा, उसकी कल्पना ही नहीं की थी। मन हुआ पद्मा को वहीं से फोन करे। किसी तरह अपने को जज्ब कर वह वहां से निकली।

यह सोचती हुई कि वह जल्द से जल्द नियति को अपने साथ मुंबई ले जाएगी। फिर पद्मा को भी तो यह सरप्राइज दिखाना है…