पार्षद के सुअर
हमारे हिन्दी निबंध हमेशा से ही ‘‘ भारत गाँवों में बसता है ’’ जैसे वाक्यों से प्रारम्भ होते रहे है । अब भारत गाॅवों से निकल कर कस्बेनुमा पंचायतों ,नगरपालिकाओं और महापालिकाओं में बसने लगा है । ये सारे निकाय चाहे अलग- अलग स्तर पर काम करते हों , इनके पीछे मुख्य भूमिका अदा करता है एक अदद् ‘‘ पार्षद ’’ । पार्षद वो बेरोजगार व्यक्ति है जिसे सारे मोहल्ले के लोग रोजगार का एक मौका प्रदान करते है । वो इसके बदले में मोहल्ले के बुजुर्गों को आते- जाते चरणस्पर्श अवश्य करता है । मोहल्ले की महिलाएॅं नाली से पानी निकालने और नल पर पानी भरने के लिए के संघर्ष में चण्ड़ी का रुप धारण करके एक- दूसरे पर शिष्टाचार स्वरुप गालियों की बौछार करती है तो प्रसाद स्वरुप पार्षद को भी कोसती है । देखा जाए तो पार्षद कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ होता है क्योंकि अक्सर नल फिट करवाने, राशन कार्ड बनवाने और नाली की साफ - सफाई जैसी शिकायते सुनता हुआ पाया जाता है । बड़े नेता उसे वोट बैंक के चौकीदार के रुप में मानते है । बड़े नेता अक्सर ही पार्षद को सपने दिखाते है कि ‘‘ वो होने वाला विधायक या सांसद है। " उस बेचारे को तो अपनी असलियत का पता चुनावों के बाद ही लगता है । अब वे हार के खतरे से बचने के लिए अनेक पार्षद भविष्य में ‘‘पार्षद पति’’ जैसे पदों पर सुषोभित होने को भी तैयार है । इन्हीं की देखा-देखी पूरे देश में ‘‘सरपंच पति’’, ‘‘विधायक पति’’, ‘‘सांसद पति’’ और तो और मंत्री और मुख्यमंत्री पति भी प्रचलन में है । इस परंपरा का फायदा यह है कि वास्तविक रुप से निर्वाचित के साथ ‘‘एक के साथ एक फ्री’’ का आॅफर प्राप्त होता है ।
पार्षद को मालूम है कि इस नेतागिरी के भरोसे जीवनयापन नहीं हो पाएगा । इस तरह से तो वे जिंदगी भर दूसरों के लिए दरी और कुर्सियाॅं ही सजाते रह जाएंगे और उनके लिए हांसिल का आएगा शुन्य । वो अपने धंधे को नहीं छोड़ना चाहते है । एक कस्बा पहले भैसों से परेशान था । ये भैसें पार्षद की थी जिन्हें उसके पार्षद बनने के बाद बीच सड़क पर बैठ कर जुगाली करने की आजादी मिल गई । जैसे भैसें अपने पार्षद मालिक पर इठला-इठला कर बीच सड़क पर ऐष्वर्या की तरह घूमती ; वैसे ही पार्षद भी अपनी भैसों पर चैटाला और आजम खान की तरह फूला नहीं समाता । चुनाव के समय भैसों की धमाचैकड़ी महंगाई और भ्रष्टाचार की तरह महत्वपूर्ण हो गई । मोहल्ले के लोगों ने उन्हें घर में और भैसों को तबेले में बैठने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन ये प्रजातंत्र है इसमें अन्ना की तरह का नेता हम थोड़े ही ढूंढ पाएंगे । लो साहब भैस वाले गए.... तो सुअर वाले आ गए । अब भैसें तो तबेले में बैठ कर विपक्षी दल के नेताओं की तरह बयान जारी करती रहती है और सुअर सत्तारुढ़ दल के घोटालों की तरह सरेआम घूमते है ।
अब मोहल्ले की साफ-सफाई के लिए कोई कारिंदा आए या न आए पार्षद की सुअर बिना नागा आती है । यदि मौका लग जाए तो घरों के अंदर की साफ सफाई भी हो जाती है । पूरे कस्बे में मोटे सुअर , पतले सुअर ,छोटे सुअर ,बडे़ सुअर या यूं कहें कि जितनी पार्टी उतने सुअर घूम रहे है । पालिका और कुछ पशु प्रेमी संगठनों के द्वारा उन पार्षदों का सम्मान कर ‘‘सफाई वीर ’’से पुरस्कृत किया जिनके कस्बे में सबसे अधिक सुअर है लेकिन जनता तो परेशान ही है । जनता के बार-बार कहने पर अध्यक्ष ने सुअर पकड़ो अभियान चलाया । इससे सुअरों की संख्या और बढ़ गई क्योंकि कैद में सुअरों को अच्छे साथी मिल गए थे। पालिका को इस परेशानी को देखते हुए अपना अभियान छोड़ना पड़ा । अब पार्षदों के एक गुट ने पार्षद के सुअरों को परिषद के सुअर घोषित करते हुए कस्बे को सुअर अभयरण्य के रुप में घोषित करने का प्रस्ताव रखा है । साथ ही साथ कस्बे की अभिनव व्यवस्था के लिए पार्षदों के नाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्टीय स्तर पर भेजने हेतु भी पहल करने की बात चल रही है । परिषद इस पर गंभीरता से विचार कर रही है और जनता अगले चुनाव का । देखे अगले चुनाव में हमें किसे चुनना पड़ता है और कस्बे की सड़कों पर स्वतंत्रता से घूमने का अधिकार किसे प्राप्त होता ... ....गधों को..... या घोड़ों को .....?
आलोक मिश्रा