मेला Alok Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मेला

अब उसने मेलों में जाने से ही तौबा कर ली थी। शहर में लगने वाले मेले और प्रदर्शनियाँ जैसे उसे मुँह निढ़ाते है। वो अक्सर ऐसे मेलों और प्रदर्शनियों के बाहर ही गुब्बारे बेचा करता है। इस गुब्बारे वाले का नाम तो संतोष है लेकिन गुब्बारे बेचने के कारण नाम तो गुम ही है गया, अब वो गुब्बारे वाला है। शहर में जहाॅ भी भीड़भाड़ हो उसे अपने गुब्बारे बिकने की उम्मीद होती है बस वहीं वो गुब्बारे बेचने लगता है। अच्छे उत्सवों, मेलों और प्रदर्शनियों के समय सामान्य से कुछ अधिक ही पैसे मिल जाते है। बाकी दिन तो कभी भूखे पेट तो कभी आधे पेट खाने की ही व्यवस्था होती है। शहर के बाहर की ओर अतिक्रमण में छोटी झोपड़ी में संतोष, उसकी पत्नी तारा और पाॅच साल की बेटी कविता रहते है। कविता पहले गुब्बारे खेलती और फोड़ती भी थी अब वो उनसे ऊब चुकी है। अब अक्सर खिलौने और मिठाइयों की जिद करती है। संतोष भी कभी कभार उसके लिए सस्ते खिलौने ले आता है। ऐसे समय कविता की खुशी देखते ही बनती है।

उसे पता चला कि शहर में एक बड़ा मेला लगने वाला है। वो खुश हो गया चलो छत टपक रही थी कुछ पैसे मिलेंगे तो ठीेक करवा लुंगा। तारा ने बताया इस बार कविता मेले में जाना चाहती है। उसे लगा कविता और तारा को मेले में ले जाने से एक दिन का धंधा चला जाएगा लेकिन फिर सोचने लगा मैं नहीं ले जाऊँगा तो इन्हें कौन ले जाएगा। उसने तारा से कहा ‘‘थोड़े पैसे होगें तो अपन जरूर चलेंगे।’’ उसने कह तो दिया लेकिन वो जानता है मेले हम जैसे गरीबों के लिए थोड़े ही है ये तो पैसे वालों के चोचले है।

मेला लग भी गया। संतोष ने बाजार से जरूरी सामान खरीद लिया। घर में तारा और वो मिलकर गुब्बारों को आकार देने लगे बंदर, ककड़ी और कुत्ते का। इस बने माल के साथ उसने अपने डंडे पर दुकान सजा ली। पहले दिन शाम छःबजे से मेले के गेट के बाहर जम गया। लोग आने लगे कारों से, पैदल व दुपहियों से। रात को वापस लौटकर तारा और उसने पैसे गिने तो खुश हो गये। दो दिनों के खाने की व्यवस्था के बाद भी पचास रूपये बच रहे थे। सुबह ही कविता बोली ‘‘पापा आज मेला चलो ना’’ तारा उसे चुप करवाने लगी। संतोष बोला ‘‘नहीं तारा आज कविता को मेला घुमा ही देते है।’’ तारा बोली ‘‘पचास रूपये में मेला तुम्हारा दिमाग तो ठीक है।’’ वो बोली ‘‘ मैनें हिसाब कर लिया है तीस रूपये अंदर जाने के ... दस रूपये के बुड्ढी के बाल...... फिर भी दस रूपये बचे न। मेले में बस घुम कर ही तो आना है।’’ तारा बोली ‘‘और आज के धंधे का क्या?’’ वो बोला ‘‘आज का धंधा कविता की खुशी का कुर्बान।’’

शाम को वो परिवार सायकल से घर से निकला कविता डंडे पर, तारा कैरियर पर और ड्राइविंग सीट पर वो था। सब खुश और चहक रहे थे। वे मेला ग्राउंड पहुँचे सायकल वाले ने ही पहले दस रूपये मांगे। खैर सायकल खड़ी करनी थी सो दिए। बस टिकट लिया और सब अंदर पहुँच गए जगमगाती रोशनी और शोर के बीच। संगीत की अलग-अलग स्वर लहरियों के बीच व्यापार की जंग में लगी दुकाने। ग्राहकों को आकर्षित करने की चाह में हाथ पकड़ कर खीचने को तैयार कारिन्दे। कविता भौचक्की सी सब देख रही थी। परिवार के लिए दुकाने बिकाऊ सामान की जगह से अधिक प्रदर्शनी का माल था। वे कुछ दुकानों को दूर से और कुछ को पास से देखते हुए गुजरने लगे। आगे खिलौनों की दुकान थी जहाँ जहाॅ गुड़िया से लेकर हेलीकाप्टर तक सब सजा था। संतोष ने तारा की ओर देखा तारा उसके मनोभाव को भाप गई। तारा कविता से तुरंत ही पूछने लगी ‘‘बुड्ढी के बाल लेना है क्या?’’ कविता ने जैसे ही हाॅ कहा पुरा परिवार तेजी से चलने लगा। अगले मोड़ पर कविता को बुड्ढी के बाल दिला दिए गए। अब कविता का ध्यान उसके हाथ की मिठाई पर ज्यादा मेले पर कम था। वे घूमते रहे। यहाॅ झूले ही झूले है, ऊपर, नीचे, गोल घूमने वाला, आड़ा तिरछा घूमने वाला और घोड़े वाला सीधा सपाट। कविता की मिठाई भी खत्म और उसके जेब के पैसे भी। कविता घोड़े वाले झूले पर बच्चों को बैठते देखने लगी। वो वहाॅ से चलने लगे तो तारा उसे समझाने की कोशिश की। कविता का बाल मन झूलने को आतुर था। तारा अपने पति की स्थिति को समझती थी वो भी कविता को समझाने लगी। कविता झूले की ओर हाथ उठाकर सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसका और तारा का दिल भी रोने को कर रहा था लेकिन अब वो बच्चे थोड़े ही है। संतोष अपने गुस्से का प्रदर्शन करने लगा उसने कविता का हाथ खींचा और चलने लगा। कविता सुबकती रही झूला दूर होता गया फिर मेला भी दूर रह गया। कविता घर में भी सुबकते हुए सो गई। तारा और वो सोने का प्रयास करते रहे।

आज वो मेले के बाहर खड़ा है। इठलाकर कारों में बैठते बच्चों को देख रहा है। सामने से गुजरते हुए एक परिवार का बच्चा गुब्बारे के लिए मचलने लगा। उसके माता-पिता समझाकर दूर ले जाने लगे। बच्चे का हाथ अब भी गुब्बारे वाले की ओर ही उठा हुआ था। उसने एक गुब्बारा बच्चे के हाथ में दे दिया। बच्चा चुप हो गया। उसके माँ-बाप की आँखों में आभार दिख रहा था। संतोष को उस बच्चे में कविता का चेहरा नजर आने लगा।





आलोक मिश्रा