एपीसोड –37
कहीं सच ही वर्मा पुलिस के साथ न आ रहा हो....वह घर के मंदिर में दीपक जला देती है...मन के भय पर काबू पाने के लिए ‘ऊँ भृ भवः सः’ का ऊँची आवाज़ में जाप करने लगती है। उसे लग रहा है उसके भय के साथ घर का कोना-कोना थर्रा रहा है।
अभय खुश ख़बरी देते हैं, “लो टिकट मिल गये लेकिन मैं दीदी की बेटी की शादी में जाऊँगा। तुम्हारी बहिन के यहाँ नहीं जाऊँगा।”
समिधा उन्हें रूठे हुए बच्चे की तरह बहला देती है, “कोई बात नहीं है, मत जाना।” वह अच्छी तरह समझ गई है यदि इनका विरोध किया तो इनके अंदर फ़ीड की गई गालियाँ खटखट निकलती जाएँगी।
ट्रेन जाने का समय रात के ग्यारह बजे है। एक परिचित के बेटे की शादी का रिसेप्शन है। समिधा की ज़री की साड़ी व गहरे मेकअप ने पुलिस की धमकियों को होशियारी से छिपा लिया है। शादी के रिसेप्शन की गहमागहमी में कौन दोनों के तनाव पहचान पाता है?
वे खाने के काउंटर की तरफ बढ़ रहे हैं। अचानक भीड़ में सुयश, विकेश का मुँहबोला भाई, निकल गर्मजोशी से अभय से हाथ मिलाता है, “हलो ! सर !”
“हलो ! कैसे हो?”
“फ़ाइन।”
अभय प्लेट लेने बढ़ते हैं। वह तत्परता से कहता है, “ सर ! आप तकलीफ़ मत करिए, मैं आपकी प्लेट लगाता हूँ।”
अभय अकड़े से खड़े हो जाते हैं, सुयश उनकी प्लेट में खाना डालकर ले आता है। तब तक समिधा भी प्लेट में खाना ले चुकी है। सुयश तत्परता से बार-बार अभय के लिए कुछ ला रहा है।
अभय फूले हुए बताते हैं, “सुयश लास्ट वीक इन्डस्ट्रीयल एक्ज़ीबिशन दिखाने ले गया था। एक अच्छी-सी ट्रीट भी दी थी।”
रिसेप्शन से चलते समय भी सुयश को अभय का स्कूटर पार्किंग में से निकालते देखकर समिधा का माथा ठनकता है। उसने अभय के किसी जूनियर को इतनी चमचागिरी करते नहीं देखा....तो....तो....कहीं सुयश भी, तो उस घिनौने ख़ेल का हिस्सा तो नहीं है ? अभय को तो विश्वास दिला दिया गया है कि वे कोई महान सी चीज़ हैं, और समिधा को तो कोई पूछता ही नहीं है, पता नहीं क्यों वह सुयश पर शक कर रही है ? वह तो उनसे पंद्रह सोलह वर्ष छोटा है। दो बच्चों का पिता बन गया है लेकिन चेहरे पर अभी भी वही मासूमियत है।
दीदी के यहाँ की शादी में भी वह बार-बार नोट करती है। अभय भीड़-भाड़ से अलग एक कोने में गुमसुम से बैठते रहते हैं। उनके चेहरे पर एक चमक की पर्त सी रहती है, उनकी आँखें शून्य में टंगी रहतीं हैं। अलबत्ता वे समिधा की बहन के यहाँ जाने से इंकार नहीं करते।
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अपने शहर, अपनी कॉलोनी में लौटते हुए उस घर पर नज़र जानी ही है। उस घर की बिज़ली की रोशनी खिड़कियों, दरवाज़ों से बाहर तक छनकती समिधा को चिढ़ा रही है, “अकेली औरत क्या कर लेगी?”
दिसम्बर की ठंड अपने पैर फैलाने लगी है। शाम को हल्का ऊनी कपड़ा पहनना पड़ता है। साँझ जल्दी घिरती है, अँधेरा भी नमी में डूब उठता है। वह अभय के साथ दूरदर्शन समाचार देख रही है। समाचार ज़ारी है.... “हाल ही में घोषित मिस आगरा को तीन नौजवानों ने अपहृत कर लिया। पुलिस की मदद से पिता ने उसे आज़ाद कराया। उसके पिता का आरोप है उनकी बेटी को तंत्र-मंत्र का कोई सफ़ेद पाउडर खिलाया जाता था। उसे खाकर जो घिनौनी बातें उसे रटाई जाती थीं, वह वही बोलती थी और जो करने को कहा जाता था, वही काम करती थी।... दुबई से बेचे जानेवाली लड़कियों को जब पुलिस ने आज़ाद कराया तो उन्होंने भी ऐसे ही सफ़ेद पाउडर खिलाने की बात कही।”
समिधा का दिमाग़ सनाका खा रहा है। कहीं कोई तेज़ अंधड़ चल रहा है.... दिल में बेहद घबराहट शुरू हो रही है....। अपनी उखड़ी हुई साँसों पर काबू पाना उसके बस की बात नहीं है। अभय निर्विकार समाचार देख रहे हैं।
“अभय ! अभय !” वह किसी हिस्टीरिया की मरीज़ की तरह चीख़ने लगती है।
“चीख़ क्यों रही हो? मैं पास ही तो बैठा हूँ।”
“अभय ! तुमने ये न्यूज़ देखी?”
“हाँ, इसमें नया क्या है? आये दिन कहीं न कहीं ऐसा होता रहता है।”
“तुम्हें याद है मैं टी.वी. देखकर कितना मज़ाक उड़ाती थी कि आजकल ‘कान्सपिरेसी’ शब्द का कितना फ़ैशन हो गया है। कुछ लोग दूसरे लोगों पर आरोप लगाते रहते हैं कि वे हमारे ख़िलाफ ‘कॉन्सपिरेसी’ कर रहे हैं।”
“हाँ, मुझे याद है।”
“जब से हमारे परिवार के ख़िलाफ ‘कॉन्सपिरेसी’ शुरू हुई है तब से मुझे पता लगा है कि इस शब्द का मतलब और भय क्या होता?”
“तुम्हारा तो दिमाग़ ख़राब ही रहता है।”
“अभय ! वो ‘क्रिमनल्स’हमारे सम्बन्धों में हमारे घर में आग लगा रहे हैं। वे मेरे सामने हैं। मैं कुछ नहीं कर पा रही। डेढ़ वर्ष या उससे भी पहले तुम्हें कोई ड्रग देकर तुम्हें नशा देकर न्यूरोटिक बनाया जा रहा था और मैं समझ नहीं पा रही थी।”
“न्यूरोटिक तो तुम हो रही हो। मेरे साथ ‘साइकेट्रिस्ट’ के पास चलो, नहीं तो मुझे भी पागल कर दोगी।”
“तुम्हें तो पागल जैसा कर ही दिया है। तंत्र-मंत्र मैं नहीं मानती लेकिन, तुम पूजा का तिलक लगाये, खौफ़नाक गुंडे बने कितनी बार घर आये हो। तुम्हें नशे में बातें रटा कर मुझे प्रताड़ित किया जा रहा है। विकेश उसका दूसरा पिम्प बन गया है।”
“तुम क्या उल्टा सीधा सोचती रहती हो?”
“नहीं, अभय अब मैं सीधा ही सीधा सोच पा रही हूँ। देखो हमें रोली व अक्षत की शादी करनी हैं। अब उन गुंडों के हाथ से कोई भी चीज़ यहाँ तक प्रसाद भी मत खाना।”
“वह जो देगी, मैं तो खाऊँगा।”
समिधा रात भर चिन्ता में करवटें बदलती रहती है। अभय की वो चढ़ी-चढ़ी आँखें, चेहरे का वहशीपन। वह कैसे समझ पाती कि किसी मध्यम वर्ग के घर में भी ऐसा घिनौना ख़ेल खेला जा सकता है। उस औरत ने नशे की हालत में घिनौनी बातें करके अपना ‘एडिक्शन’ दिया है। समिधा हर समय चौकन्नी रही है। बीच-बीच में अभय को उन पंजों से छुड़ाती रही है वर्ना अभय ऊपर पहुँच गये होते या कोई अपराध कर बैठे होते।
अभय को कोई ड्रग कैसे दी होगी ? सीधे ही कोई ड्रग किसी को खिला नहीं सकता। वर्मा पहले ऑफ़िस आते-जाते अभय को अपने घर ले जाता होगा। चाय या खाने पीने की चीज़ों में मिलाकर उन्हें ड्रग दी जाती होगी। उस नशे में कविता ने अपना नशा देना आरम्भ किया होगा। समिधा का ध्यान जब इशारे बाज़ी पर गया था। उन दिनों अभय घूमने के लिए घर से निकलते थे तो ऐसा लगता था उस बिल्डिंग की तरफ़ नींद में चले खिंचे जा रह हैं । समिधा उन्हें फुटपाथ से सड़क पर लाती थी। ऐसा अनेक बार हुआ था।
अभय को फिर क़ाबू करके वियाग्रा जैसी किसी गोली का बहाना करके उन्हें ड्रग दी गई होगी ?--उस नशे के साथ अश्लील बातों का सुरूर। समिधा ने इनके `इज़ी मनी `कमाने का शोर मचाया तो कविता रुपये खींच नहीं पाई उसने अभय को विश्वास दिलाना शुरू कर दिया कि वह उनसे इतना प्यार करती है कि उसे एम डी से भी डर नहीं लगता।
अभय ऑफिस में तो ठीक से काम कर रहे हैं तो ?---तो क्या उन्हें हिदायत होगी कि वे गोली घर जाते समय या चुपके से घर में लें क्योंकि उन्हें घर में ही तो हंगमा करवाना है। कविता जब यहां रहने आई थी तो उसकी दोपहर में सोने की आदत जानकार पूछ रही थी कि क्या वह गोली लेकर सोती है। --हाय --तो क्या उसे भी अपना जैसा समझ रही थी ?उस जैसी औरत समझ कैसे सकती है दिमाग़ी काम करके दिमाग़ को आराम की ज़रुरत होती है।
कहीं विकेश ने तो इन्हें ड्रग की आदत नहीं डाली ?ऐसा नहीं है ,क्योंकि वह तो रोज़ ऑफ़िस में अभय से मिलता है.अभय बीच बीच में बिल्कुल नॉर्मल व्यवहार नहीं करते .नशे के सुरूर में कुछ बातें कविता रटाती है ,कुछ आस्तीन का सांप विकेश। अभय पागल गुंडे हो जाते हैं। तो दो वर्ष पहले अभय ने जो घर में हंगामा किया था वह भी नशे की हालत में था। अरे हाँ ,वह महीना भी तो दिसम्बर का था। नीता ने अहमदाबाद महोने वाले संगीत व नाटक अकादमी के पास लाकर दिये थे।
अभय शहर के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में परिवार को ख़ुशी ख़ुशी ले जाते हैं। तभी तो उसने पहली बार नोट किया था कि अभय का चेहरा सूजा सूजा लगता है ,आँखें मिची हुई सी छोटी लगतीं हैं। वे अपने में गुमसुम रहना अधिक पसंद करते थे। वह समझ नहीं पा रही थी ऐसा क्यों हो रहा है।हाय --तो अभय को दो वर्ष से ड्रग दी जा रही थी ? अहमदाबाद जाने वाले दिन उन्होंने लड़ने का बहाना बनाया था ?---क्या ?हां --याद आया कि उन्होंने फ़ोन का बिल उठाकर लड़ना शुरू कर दिया था ,``तुम्हारी वजह से देखो कितना सारा फ़ोन बिल आया है ? ``
``सिर्फ़ पचास रूपये ही तो अधिक है ?क्यों मूड ऑफ़ कर रहे हो ?दोपहर को अहमदाबाद भी जाना है। ``
``कौन जा रहा है वहां पैसा बिगाड़ने ?``
``वॉट डु यू मीन ?``
``कह दिया तो कह दिया। ``गुस्से में वह ऑफ़िस निकल गये थे।
ऑफ़िस जाते समय अभय के बताये अपने इस निर्णय कि कोई अहमदबाद नहीं जायेगा को सुनकर वह क्षोभ व दुःख में भरी घर के काम करती रही थी। समिधा ने अक्षत व रोली को अपना फ़ैसला सुना दिया था,``यदि अभय गुस्से में बेवक़ूफ़ी कर रहे हैं तो करें। हम तीनों ज़रूर जाएंगे। नीता ने कितनी मुश्किल से पास अरेंज किये हैं। ``
रोली भी अभय की चीख-पुकार से सहमी हुई थी । वह बोल उठी थी, “ आप भैया चले जाइए । पापा पता नहीं क्यों ‘नेग्लेक्टेड फ़ील’ कर रहे हैं । यदि हम तीनों चले गये तो उन्हें बुरा लगेगा । मैं रूक जाती हूँ ।”
“रोली जो दूसरों की फ़ीलिंग्स की परवाह किये बिना घर में हंगामा मचाये तो उस की परवाह नहीं करनी चाहिये ।”
“नो प्लीज़ ! मम्मी ! मैं पापा को छोड़कर नहीं जा सकती ।”
आज समिधा को चीखती हुई कविता याद आ रही है किस तरह उसी के घर के दीवान पर बैठी चीख रही थी.... “आप ने भाईसाहब को अलग कर रखा है.... आप तीनों एक हो, भाईसाहब अलग हैं ।”
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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