30 शेड्स ऑफ बेला - 15 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 15

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Day 15 by Dhyanendra Tripathi ध्यानेंद्र त्रिपाठी

घाटों के गलियारों से

पक्के महाल की सीलन भरी जादुई गलियों के कुछ कोनों ने ताउम्र सूरज की रोशनी नहीं देखी। इनके इर्द-गिर्द शान से खड़ी पुरातन हवेलियां भी तकरीबन इन्हीं के जैसी हैं। भुवन भास्कर की रोशनी से महरूम और रहस्यमई जानलेवा आकर्षणों से गलियों के गिर्द झांकती, सदियों से बनारस के लोगों को महफूज रखतीं, वक्त के थपेड़ों से निस्पृह, अपने ही मोहपाश में स्पंदित।

सुधीर बाबू की मिठाई की दुकान बनारस की इन्हीं गलियों के जादू का स्वाद है, तभी तो इस छोटे से खोखे की मिठाइयों की तारीफ धर्मयुग से ले कर इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं ने बड़े फख्र के साथ की है।

इतवार की शाम यहां मिठाई के शौकीनों की चहल-पहल कुछ ज्यादा ही रहती है। और इन शौकीनों में कुछ चेहरे हमेशा की तरह जाने-पहचाने से रहते हैं। इंद्रपाल की इतवारों की शाम अकसर इस खोखे के बगल वाली भांग की टिपरी से शुरू होती है।

इस इतवार भी गमछों में लिपटे गलियों के मलंगों के चिलमों से उठते धुएं की तीखी गंध के दरमियां इंद्रपाल भांगवाले बच्चू भैया से मुखातिब था। ठेठ बनारसी अंदाज में इंद्रपाल ने रंगीन ठंडाई की गुजारिश की, ‘बच्चू भैया। भोले क परसाद पियावा,’ बच्चू भैया की आंखों में चमक आ गई, ‘हां हां ला रजा। बस दू मिनट में बना के देत हई।’

आधे तोले भांग में फेंटी गई ठंडाई पीते हुए इंद्रपाल थोड़ी ही देर में शून्यता और समय को मंथर कर देने वाले इस नशे के बारे में सोचते हुए जैसे खुद से ही बातें करने लगा—मैं तो किशोरवय से ही भांग का आस्वाद लेता रहा हूं, पर कितनी अजीब बात है, मुझे इसकी लत कभी नहीं लगी। कभी बरसों भांग का सेवन नहीं करता हूं तो भी पूरी तरह निर्लिप्त और कभी किसी महीने के हर इतवार को भोले के प्रसाद से खुद को तर कर लेता हूं। लोग कैसे नशे के गुलाम बन जाते हैं? इंद्रपाल यादों के गलियारों से गुजरते नशे के उन सौदागरों के बारे में सोचने लगा जिनसे उसका साबका अकसर पड़ता रहता है। कितनी ही बार नाराकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के दस्ते के साथ वो पलिस की ओर से मारे गए छापों में शामिल रहा है। इन छापों के दौरान चौक की तंग गलियों में उसका सामना ड्रग तस्करों के सबसे खतरनाक बालू गैंग से हुआ था और वहां बरामद हशीश, कोकीन और हेरोइन के जखीरे के साथ नशे में बर्बाद युवाओं के जत्थे को भी बालू गैंग के चंगुल से छुड़ाया था। कितनी अजीब बात है कि इतने ड्रग एडिक्टों और नशे के आदी लोगों से टकराना उसकी नियति सी बन गई थी। पर उसके बनारस के संगीत गुरु देवदत्त के बेटे पुष्पेंद्र की छोटी बेटी पद्मा को एक ड्रग एडिक्ट के रूप में पाना उसके लिए न केवल चौंकाने वाला था, बल्कि बेहद तकलीफदेह भी।

पुलिस की नौकरी से रिटायर होने में तीन साल और रह गए हैं, पर वक्त ऐसे खेल दिखाएगा ये उसकी कल्पना से परे था।

इंद्रपाल अचानक यादों के झरोखों से बाहर निकला। भांग ने अब उसके दिमाग को समय के सापेक्ष ने मद्धिम कर दिया था। गायघाट की ये गलियां अब जन्नत लग रही थीं और उसके कदम सुधीर दादा की मिठाई के खोखे की ओर बढ़ चले।

‘दादा, एक ठे रसगुल्ला खिआवा…’ इंद्रपाल ने एक के बाद एक छह रसगुल्ले खाए। भांग छानने के बाद अकसर ऐसा होता है। बच्चू भैया बगल वाली टिपरी से चिल्लाये, ‘यादव जी पनवो खात जा। मगइले हई चकाचक बनारसी।’ इंद्रपाल ने पान की गिलौरी मुंह में रखी और बच्चू से बोला, ‘कल बंबई जाय के हौ। छुट्टी ले ले हई बच्चू भईया।’

‘ का हीरो बनै जात हउआ बंबई यादव जी?’ बच्चू ने तपाक से बनारसी अंदाज में सवाल ठोक दिया।

‘नाहीं गुरु! हमार संगीत के सिक्चक देव भैया के बेटे पुष्पेन्दर हउवन, ओन ही से मिले जात हई।’

बच्चू भइया बोल पड़े , ‘जा रजा जा झारि के बाकि मिलह अगले इतवार के।’

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महानगरी ट्रेन में सवार होने के बाद जब इंद्रपाल ने इत्मीनान से खिड़की पर टेक ली तो पास गुजरती ट्रेन पर हजरत निजामुद्दीन लिखा देख कर उसे भी छोटे सरकार की याद आ गयी। कितनी ही बार हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाकर घंटों वहां कव्वाली सुनता और फिर समाधिस्थ हो जाता, ठीक वैसे ही जैसे संकटमोचन मंदिर पर भजनों की थापों पर खो जाना।

पिछली बार तो दिल्ली जाना तब हुआ था, जब चौक से बालू गैंग पर छापे के दौरान पद्मा वहां मिली थी। बिल्कुल अपनी मां पर गयी है पद्मा। वैसी ही बोहेमियन, हिप्पियों सी जिंदगी। शायद उसकी बहन भी तो ऐसी ही दिखती थी। बस एक बार ही तो मिला था उससे। कितने साल हो गए? पांच? ऐसे ही दिन थे, धूल भरे, गुमशुदा से। पता नहीं कैसी होगी दोनों बहनें?

अपने गुरू के बेटे पुष्पेंद्र से वो पहली बार दिल्ली में ही मिला था। उसकी शादी में। अहा, क्या शादी थी। देवदत्त जी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। सफदरजंग में बहुत बड़ी कोठी में रहते थे। घर के सामने ही मैदान में पंडाल लगा तीन दिन तक जम कर जश्न मनाया। हलवाई ठेठ बनारसिया थे। उनके देखरेख का जिम्मा था इंद्रपाल पर। पुष्पेंद्र उम्र में छोटा था, पर यारबाश। इसके बाद तो कई बार मिलना-जुलना हुआ। जब कभी मुसीबत में पड़ता, इंद्रपाल को ही याद करता। बड़े भाई की तरह अपना फर्ज भी निभाया पुष्पेंद्र ने। इंद्रपाल की दोनों बेटियों की शादी में दिल खोल कर रख दिया था।

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इंद्रपाल के चेहरे पर हलकी सी मुस्कुराहट आ गई, मुंबई में इतने दिनों बाद भी उससे मिलना, वाकई मजा आ जायेगा। ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और इंद्रपाल एक हल्की झपकी के साथ ट्रेन की मधुर गति के साथ नींद की देहरी पर दस्तक देने लगा।

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बेला अभी बेहद अन्यमनस्क थी। वो अस्पताल से बाहर निकली ही थी कि बगल के कॉफी हाउस में उसकी नजर पड़ी। उफ, कहीं वो सपना तो नहीं देख रही थी?

इंद्रपाल! ये शातिर खतरनाक इंद्रपाल मेरे पापा के साथ कॉफी पीते हुए हंस-हंस कर क्या बातें कर रहा है? इंद्रपाल को देखते ही उसका पारा चढ़ गया। इस कमीने को नहीं छोडूंगी मैं? ये कौन है बहरूपिया? मेरे पापा को कैसे जानता है, ये शातिर भेड़िया?

बेला कॉफी हाउस की ओर लपकी...