आपसी वाहवाही ने सुधार की गुंजाइश खत्म कर दी है Neelima Sharrma Nivia द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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आपसी वाहवाही ने सुधार की गुंजाइश खत्म कर दी है

बिना किसी शोर-शराबे के कहानियां लिखने वाली आकांक्षा पारे काशिव लंबे अर्से से कहानियां लिख रही हैं। उनकी कई कहानियां काफी चर्चित रही हैं। उनकी हर कहानी पहली कहानी से अलग होती है। उनकी कहानियों में कम ही दोहराव नजर आता है। विषय-विविधता उनके लेखन की सबसे बड़ी ताकत है। पुरवाई टीम की तरफ से नीलिमा शर्मा ने आकांक्षा से उनकी कहानियों और साहित्यिक यात्रा के बारे में बातचीत की।

नीलिमा शर्मा: नमस्कार आकांक्षा जी, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। आप लंबे समय से कहानियां लिख रही हैं और हिंदी के कथा-लेखन में अपनी एक पहचान रखती हैं, इस लेखन-यात्रा की शुरुआत कैसे हुई?
आकांक्षाः कहानियां पढ़ते-पढ़ते मुझे महसूस हुआ कि लिखना चाहिए। मैं बचपन से ही किस्से सुनाने में माहिर थी। कोई भी फिल्म देख कर आती थी, तो संवादों सहित सुना दिया करती थी। कई बार तुरंत कहानियां बुन लिया करती थी। फिर दोस्तों, बड़े भाई सबने प्रेरित किया कि जैसा सुनाती हूं वैसा लिखना शुरू कर दूं। बस इस तरह लिखने की शुरुआत हुई।

नीलिमा शर्मा: आपने कहानी लेखन कब शुरू किया और पहली कहानी कौन सी थी?
आकांक्षाः 2002 के आसपास शायद मैंने पहली कहानी लिखी थी। एकदम ठीक से याद नहीं। वही कच्ची और अनगढ़ सी कहानी भोपाल से निकलने वाली पत्रिका ‘समरलोक’ में छपी थी। उसका शीर्षक ‘प्रतिज्ञा’ था। ‘समरलोक’ मेहरुन्निसा परवेज़ जी के संपादन में निकलती है। फिर कुछ समय के लिये मैंने कुछ नहीं लिखा। दो-तीन साल बाद फिर कुछ कहानियां लिखीं लेकिन उन्हें कहीं छपने के लिये नहीं भेजा क्योंकि मुझे लगता था अभी और मेहनत करना है। 2005 में जब दिल्ली आई तो लिखने का कीड़ा फिर से कुलबुलाया। तब महसूस हुआ कि अभी पढ़ना चाहिए ताकि समझ ठीक से विकसित हो। इसके बाद 2010 में मैंने ‘तीन सहेलियां तीन प्रेमी’ शीर्षक से कहानी लिखी और उसे ‘ज्ञानोदय’ में दिया।
मुझे आज भी याद है मेरी एक सहकर्मी शिखा गुप्ता पहले ‘ज्ञानोदय’ में काम कर चुकी थीं। उन्हें यह कहानी बहुत अच्छी लगी और उन्होंने ही सलाह देते हुए कहा इसे ‘ज्ञानोदय’ में दे कर आते हैं। वही मुझे अपने साथ वहाँ ले भी गईं। तब वहां कुणाल सिंह हुआ करते थे। उन्होंने कहानी रख ली। उस समय मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि पूछती कि कब प्रकाशित होगी। लेकिन दो महीने बाद ही दफ़्तर के पते पर ‘ज्ञानोदय’ आ पहुंची और उसमें मेरी कहानी थी। मुझे बहुत ही अच्छा लगा। बाद में इसी कहानी पर मुझे कहानी के लिए प्रतिष्ठित ‘रमाकांत स्मृति पुरस्कार’ मिला।

नीलिमा शर्मा : आपकी कहानियों में इंदौर खूब झांकता है, आपकी एक कहानी ‘ दिल की रानी सपनों का साहज़ादा ’ में तो आपने वहां जैसी हिंदी बोली जाती है, उस तरह लिखा भी है। क्या आप अपने शहर को बहुत मिस करती हैं? इस कहानी के बारे में कुछ बताइए।
आकांक्षाः हां। मैं सच में अपने इंदौर को बहुत मिस करती हूं। बचपन से ही वहीं पली-बढ़ी हूं। इतने सालों दिल्ली में रहने के बाद भी दिल से अभी भी एकदम इंदौरी हूं। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई वहीं से की है। जीव विज्ञान में स्नातक करने के बाद मैं इंदौर के ही देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से पत्रकारिता का कोर्स किया है। लेकिन वहां की बोली, खान-पान सब दिल्ली में बहुत याद आते हैं। जब याद आते हैं, तो कहानियों में खुद ब खुद चले आते हैं। ‘दिल की रानी सपनों का साहजादा’ समझ लीजिए बचपन की यादें हैं। हम जहां रहते थे, सुदामा नगर वहां की यादें, उस कॉलम में हैं। छोटी-छोटी यादों को मैंने कल्पना से बुना और बनाया है।

नीलिमा शर्मा : आप विषय चुन कर उस पर कहानी बुनती हैं या कहानी ख़ुदबख़ुद जन्म लेती है? यानि कि आप लेखन में विषयों का चुनाव कैसे करती हैं?
आकांक्षाः ऐसा कुछ तय नहीं होता। अमूमन मैं पहले कहानियां अपने मन में लिखती हूं। जब तक मन में कहानी का एक स्वरूप न बन जाए उसे काग़ज़ पर उतारना मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। इसलिए मन की कल्पना में कई बार विषय कुछ और शुरू होता है और काग़ज़ तक आते-आते इसका रूप ही बदल जाता है। पर हां इतना ज़रूर है कि यदि कोई मुझे कोई घटना सुनाए तो वो मेरे अवचेतन में कहीं न कहीं रह जाती है। यदि मैं किसी से मिलूं और उसमें कुछ ख़ास बात देखूं तो याद रखती हूं। बस फिर यही सब बातें मिल कर मेरे लिये कहानी के विषय हो जाते हैं।

नीलिमा शर्मा : हमने एक इंटरेस्टिंग बात नोट की है कि आपके जितने भी कहानी संग्रह आए, सबके शीर्षक संख्यात्मक हैं ऐसा क्यों? क्या आंकड़ों का आपके जीवन में कोई ख़ास महत्व है?
आकांक्षा: सच कहूं तो मैंने ऐसा सोचा ही नहीं। जब पहला संग्रह छप रहा था तो राजकमल प्रकाशन से अवधेश जी का फोन आया कि चूंकि ‘तीन सहेलियां तीन प्रेमी’ को रमाकांत पुरस्कार मिला है, तो हम चाहते हैं संग्रह का नाम इसी नाम पर रखें। मुझे प्रकाशन की कोई जानकारी नहीं थी। पहली ही किताब छप रही थी तो सोचा यह ठीक रहेगा, क्योंकि इस कहानी की चर्चा पहले भी काफ़ी हो चुकी थी। दूसरा कहानी संग्रह ‘बहत्तर धड़कनें, तिहत्तर अरमान’ आया तो मुझे लगा इस नाम में काफी काव्यात्मकता है। कहानी भी धर्म का एक अलग ही रूप दिखाती है। मैंने प्रकाशक महेश भारद्वाज जी से कहा कि मैं यह नाम रखना चाहती हूं, तो वे भी सहर्ष तैयार हो गए। बस इसलिए दूसरे संग्रह का भी संयोग से संख्यात्मक हो गया। एक दिलचस्प बात यह कि पुस्तक मेले में मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने भी यही सवाल किया था। यह सवाल मुझे याद था। इसका असर यह हुआ कि जब मेरा तीसरा कहानी संग्रह आने वाला था तो मैं वास्तव में इसका नाम ‘तीन’ रखना चाहती थी, क्योंकि ‘तीन’ कहानी मेरे दिल के बहुत करीब है। मुझे लगता है यह अलग ढंग की कहानी है। पर फिर मैंने यह विचार वाकई इसलिए छोड़ दिया कि सभी को लगेगा कि ये तीन तेरह से आगे ही नहीं बढ़ती। (हल्की सी हँसी)

नीलिमा: आकांक्षा जी, आपने तकनीक को आधार बना कर ‘शिफ़्ट डिलीट’ कहानी लिखी, इस कहानी को ‘ हंस कथा सम्मान’ भी मिला। इसके बाद तकनीक पर ही आपकी कहानी ‘निगेहबानी’ आई मगर इस कहानी की कोई ख़ास चर्चा नहीं हो पाई? आपको इसका क्या कारण लगता है?
आकांक्षाः भई, यह तो चर्चा करने वाले ही बेहतर बता सकेंगे, क्योंकि अमूमन मैं अपनी कहानियों के बारे में हल्ला नहीं मचाती। ‘निगेहबानी’ पर आम पाठकों के बहुत फोन आए। मीडिया के कई लोगों ने कहा कि उन्हें लगता है कि जैसे यह उन्हीं की कहानी है। सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा नहीं हुई लेकिन पाठको ने इसे बहुत पसंद किया। इसी तरह मेरी एक कहानी है ‘ठेकेदार की आत्मकथा’… उस पर भी मुझे पूरे भारत से आए लगभग सौ फ़ोन आए।

नीलिमा शर्मा: अब आता है एक ऐसा सवाल जो क़रीब क़रीब सभी महिला लेखकों को परेशान करता है… स्त्री लेखन की चुनौतियों को आप कैसे परिभाषित करेंगी?
आकांक्षा: मुझे लगता है कि आज के दौर में तो लेखन की ही चुनौतियां सब पर ही भारी हैं, फिर चाहे वे महिला हो या पुरुष। हर जगह अजीब सी होड़ है। कहानीकार कहानीकारों पर ही लिख रहे हैं। हर कहानीकार एक समीक्षक बना बैठा है। कहानी उपन्यासों पर सोशल मीडिया पर लंबे-लंबे वक्तव्य दिए जा रहे हैं। किसी अच्छी कहानी या उपन्यास या किसी किताब की चर्चा करना बिलकुल गलत नहीं है, लेकिन आजकल ज्यादातर लोग सिर्फ निर्णय सुनाते हैं। ये सर्वश्रेष्ठ है, ये बकवास है। यानी आप देखिए, बकवास और सर्वश्रेष्ठ के बीच कुछ नहीं है, न अच्छा, न श्रेष्ठ, न औसत, न एक बार पढ़ा जाने वाला कुछ नहीं। इससे लेखकों का बहुत नुकसान हो रहा है। अच्छे आलोचक चुप्पी साधे बैठे हैं कि चलो इन्हें ही आपस में निपट लेने दो। कहानी लिख कर हर व्यक्ति चाहता है कि बड़े कहानीकार फेसबुक पर दो-चार लाइनें लिख दें। लेखकों के लिए जो है, बस आज ही है, कल तो प्रलय आ जाएगा, दुनिया ख़त्म हो जाएगी, तो किसे पता चलेगा कि उसने सर्वश्रेष्ठ रच दिया। आपसी वाहवाही ने लेखकों में सुधार की गुंजाइश बिलकुल खत्म कर दी है।
आज के लेखक अपना मूल्यांकन पचास साल बाद नहीं चाहते। जो होना चाहिए सब आज ही होना चाहिए। इस चुनौती में स्त्री और पुरुष लेखक दोनों ही बराबरी से पिस रहे हैं। स्त्री लेखन में पारिवारिक ज़िम्मेदारियां हैं जो काफी हद तक चुनौतीपूर्ण होती हैं। लेकिन गुटबाज़ी की तुलना में यह चुनौती काफ़ी छोटी लगती है।

नीलिमा शर्मा : आजकल सोशल मीडिया का ज़माना है। क्या आप समझती हैं कि साहित्यिक व्हाट्सएप्प ग्रुप लेखकों के लिये किसी प्रकार से फ़ायदेमन्द हैं? उनकी कोई महत्ता…
आकांक्षा: कोई महत्ता नहीं है। सब मिल कर आओ समय बर्बाद करें, की पटकथा लिखते हैं। किसी एक बेकार के विषय को लेकर उलझ लेते हैं खुद के साथ दूसरों का भी समय और ऊर्जा नष्ट कराते हैं। मैंने तो अभी तक संजीदगी से चलने वाला एक भी समूह नहीं देखा। एक समूह पर इतनी पोस्ट होती हैं कि पढ़ते हुए पूरा दिन बीत जाए, और जिसके पोस्ट पर कुछ न लिखा जाए, उसके पास शिकायतों का पुलिंदा होता है।


नीलिमा शर्मा : फ़ेसबुक पर वेबिनार या लाइव आने की एक होड़ मच गई है। हर कोई लाइव आना चाहता है। इस नए मंच की सार्थकता कितनी है?
आकांक्षा: यह बहुत ही अच्छा सवाल है। लेकिन इसका उत्तर बड़ा घिसा-पिटा है। यही कि यह वक्त बताएगा। लेकिन हां इतना जरूर है कि इसने दूरियों को कम कर लोगों को जुड़ने का अच्छा मौका प्रदान किया है।

नीलिमा शर्मा : इस्मत चुगतई जी ने बहुत पहले ‘लिहाफ़’ लिखी थी, आपने भी लेस्बियन विषय पर ‘सखी साजन’ लिखी। आपको क्या लगता है तब से अब तक समाज में ऐसे विषयों को लेकर कोई जागृति आई है ?
आकांक्षा: इस्मत चुगतई ने तो यह विषय तब उठाया था, जब किसी को मालूम ही नहीं था कि दो स्त्रियां साथ रह सकती हैं। बेशक उस दौर से इस दौर तक आते-आते बहुत सी चीजें बदली हैं और समाज में भी बहुत बदलाव आए हैं। सखी साजन में भी मैंने कहीं लेस्बियन शब्द इस्तेमाल नहीं किया है। लेकिन परिस्थितियों से बताया है कि कैसे एक लड़की मन से जुड़ती है और कैसे दूसरी लड़की उसे सिर्फ इस्तेमाल करती है। यह किसी भी रिश्ते में हो सकता है। यानी किसी को प्रेम करना या धोखा देना सिर्फ लिंग पर निर्भर नहीं करता। यह भावना है, जिसका सम्मान समाज को करना चाहिए। दो लोग यदि प्रेम करते हैं तो वे समान लिंग के ही क्यों न हों उन्हें हेय दृष्टि से न देखा जाना चाहिए। ऐसे प्रेमियों के प्रति नज़रिए में बदलाव लाना चाहिए।

नीलिमा शर्मा : क्या सम्मान एवं पुरस्कार मिलने से लेखक का उत्साह बढ़ता है? क्या इससे बेहतर लिखने की जिम्मेदारी महसूस होती है?
आकांक्षा: पुरस्कार मिलने से वाकई उत्साह बढ़ता है और अच्छा लिखने की ज़िम्मेदारी महसूस होती है। जब भी कोई पुरस्कार मिलता है, चाहे वो आपकी किसी रचना पर हो या किसी पुस्तक पर आपको लगता है कि मेहनत सफल हुई। लेखक की मेहनत को मान मिले इससे ज्यादा लेखक को और क्या चाहिए। इससे रचना को स्वीकृति मिली इसका भी एहसास होता है।

नीलिमा शर्मा : आपको लगता है, साहित्य में विचारधारा हावी हो रही है। साहित्य में इसका क्या महत्व है?
आकांक्षा: विचारधारा तो साहित्य में शुरू से रही है। इसके कई उदाहरण भी हैं। लेकिन अभी इस मसले पर कुछ लिखने या बोलने से सबसे बड़ी समस्या यह हो गई है कि लोग सोशल मीडिया पर आपकी लिंचिंग शुरू कर देते हैं। कुछ लोग विचारधारा के प्रति इतने कट्टर हैं कि दूसरे विचार को जगह देना ही नहीं चाहते। इससे साहित्य का ही नुक़सान होता है। दोनों ही तरफ से यह हो रहा है, दूसरी विचारधारा वालों के साथ अछूत का व्यवहार किया जा रहा है। मज़े की बात यह है कि यह वह लोग करते हैं, जो समाज में छुआछूत का विरोध करते हैं। इसे बौद्धिक समाज की विडंबना ही कहा जा सकता है। विचार कोई भी हो सभी को समझना चाहिए कि यह साहित्य को मजबूती ही प्रदान करता है।

नीलिमा शर्मा : पुरवाई से बातचीत के लिए आपका धन्यवाद।
आकांक्षा: धन्यवाद