एपीसोड ------30
अक्षत आते ही एकांत मिलते ही उसे ही कठघरे में खड़ा कर देता है, “आफ़्टर ऑल, पापा की इज्ज़त का सवाल है। आपको उनके ऑफ़िस में तो शिकायत नहीं करनी थी। लोग हँस रहे होंगे।”
रोली गुस्सा हो गई, “वॉट डु यू मीन बाई पापा `ज डिग्निटी? मॉम की कोई ‘डिग्निटी’ नहीं है? तुम क्या चाह रहे हो पापा उन बदमाशों में फँसकर मॉम को पीटते रहें और वह पिटती रहे?”
“मेरा मतलब वो.....।”
“और क्या मतलब है? मॉम ये सब इसलिए कह रही है कि हम दोनों की शादी नहीं हुई है। मैं इनकी जगह होती तो पापा को हथकड़ी पहना देती। मुझे ये बीच में बोलने नहीं दे रहीं।”
रोली के उफ़नते गुस्से को वह शांत कर देती है,“बाबा ! तुम तो मत लड़ो। मैं मुसीबत में नहीं हूँ तुम्हारे पापा मुसीबत में हैं।”
उसकी बर्थ डे पर रोली की सहेली केक व बुके लेकर आती है। दोपहर में मेज़ पर केक रखकर काटा जाता है। उसकी तरह-तरह के पोज़ में फ़ोटोज़ खींची जा रही है। अभय खिसियाये से ये सब देख रहे हैं। होटल में रात को डिनर लेते समय बच्चे ज़रूरत से अधिक चहक रहे हैं। उनकी हर तरह की मज़ेदार बातों से वह काली परछाईं से मुक्त हुई जा रही है। घर पर आकर भी सब ढ़ेर-सी बातें करते हैं, उसका मन फूल-सा हल्का हो गया है। इस हादसे के बीच-बीच में आकर बच्चे मन बदल देते हैं। उसने भी समारोहों, फ़िल्म वगैरहा में जाना नहीं छोड़ा है वर्ना तनाव से उसका सिर फट गया होता।
सुबह बच्चे अपना-अपना बैग थाम अपने शहर की तरफ़ चल देते हैं। शाम को अभय की आँखें फिर चढ़ी हुई हैं, चेहरा गुमसुम है। एक अजीब-सी गुँडई टपक रही है जिससे वह उनसे बात करने में भी डरती है।
आठ बजते ही वह कम्प्यूटर के सामने बैठकर गाना क्लिक करते हैं, “साँवरिया, साँवरिया मैं तो हुई बावरिया”, दूसरा गाना बज़ता है, “तौबा तुम्हारे ये इशारे,” वह दूसरे कमरे में ट्यूशन्स की कॉपीज़ जाँचती हैरान होती जा रही है क्योंकि इन दोनो गानों को “पिन-अप” पर रखकर अभय अफ़ीमची से यही सुने जा रहे हैं। उसकी क्रोध से नसें सनसना उठती हैं। बीस मिनट बाद उठकर वह बाँयीं तरफ खड़ी हो जाती है, “अभय !``
“क्या है?” कहते अभय अपनी चढ़ी हुई गुँडई आँखों से उसे देखते हैं।
वह सकपका जाती है, “कुछ नहीं।”
कॉपीज़ जाँचने में उसका मन नहीं लग रहा। बार-बार उसका मन भी इन्हीं दोनों गानों पर पिन-अप हो गया है। अभय को क्या हो गया है कल की मिली खुशियों का गला घोंटने में लगे हैं अभय या फिर कोई और अपने वज़ूद का ज़हरीलापन इस घर में फैलाये दे रहा है ? अभय की शक्ल बता रही है कि उन्हें कुछ समझाना बेकार है। पैंतालीस मिनट बाद वह आवाज़ लगा ही देती है, “अभय ! मेज़ पर खाना लग गया है।”
अभय उनींदे से आ जाते हैं बिना किसी प्रतिवाद के । रात में उसका दिमाग तेज़ी से दौड़ रहा है। पहले इनका छत पर चढ़े रहना बंद करवाया, बाहर मिलना बंद करवाया, ग्राउंड पर मिलना बंद करवाया, आकाश जी से की गई शिकायत के कारण कहीं बाहर मिलने की हिम्मत नहीं है। अभय के बेकार हुए दिमाग़ में कहीं चाबी तो नहीं भर दी कि रात में घर का दरवाज़ा कर बाहर निकला आयें । वह घर-भर में फैली अजीब से डरावनेपन से डर रही है, किसी काले रंग के खौफ़ से मन ही मन काँप रही है। पीछे के दरवाज़े के ताले की चाबी छिपा देती है। रात में बीच में अचानक नींद खुल जाती है। अभय उनींदे से उस कमरे में जा रहे हैं जहाँ चाबी टँगी रहती है। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़ने लगता है। तेज़ हुई साँसों से वह आँखें कसकर बंद कर लेती है। सोने की कोशिश करती है।
दूसरे दिन अकेले में पहला काम ये करती है कम्प्यूटर की हिन्दी गानों की लिस्ट में से ये दोनों गाने डिलीट कर देती है। रात होते ही अभय के उनींदेपन को देखकर उसे ड़र लगने लगता है। उनकी हालत ऐसी हो रही है कि यदि उनके हाथ में कोई चाकू थमा दे तो वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह कुछ भी कर सकते हैं। वह घर के बाहर वाले दरवाज़े पर भी अंदर से ताला लगा देती है। यदि कोई उसे ऐसा करते देख ले तो उसे विश्वास हो जायेगा कि वह सचमुच सौ प्रतिशत साइकिक हो रही है।
दूसरे दिन अभय अंदर से चिढ़ते हैं, “ये क्या पागलपन है। घर में ताले लगाकर सोती हो?”
“तुम्हें पता नहीं है ये सब क्यों कर रहीं हूँ।”
“दिमाग क्रेक हो रहा है। आज ताला लगाया तो तुम्हें देख लूँगा।”
अभय की खूँखार होती आँखों को देखकर उसे लगता है उसका शक सही था। वह भी चिल्ला उठती है, “यदि ज़ोर से भी बोले तो आकाश सर से शिकायत कर दूँगी।”
पाँच-छः दिनों बाद अभय की चढ़ी आँखें, सनाका खास दिमाग़ सब सही होने लगता है। उनके चेहरे की शाँति, हँसी मुस्कराहट पूर्ववत् हो गई है। आपस का तनाव भी छँटता जा रहा है।
उन्हें तनाव रहित देखकर वह कहती है, “घर का सामान ख़त्म हो रहा है, चलिये शॉपिंग कर आयें।”
पेराडाइज़ शॉप का काँच का दरवाज़ा खोलकर जैसे ही वे अंदर दाखिल होते हैं कि गाना बज़ उठता है, “साँवरिया, साँवरिया, मैं तो हुई बावरिया।”
क्या करें समिधा? वह भी खिसियाकर ट्रॉली ढ़केलते हुए यही गीत गुनगुनाने लगती है।
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अमृताबेन ने कभी पुलिस चौकी तक नहीं देखी थी। उन्हें अपने घर के सिलसिले में एड्वोकेट भतीजे के साथ पुलिस कमिशनर ऑफ़िस जाना पड़ता है। वहाँ सिर झुकाये बैठे हैं उनका मकान बेचने वाला बदमाश व ख़रीदने वाला बिल्ड़र। उस बिल्ड़र पर एक और केस है। उसने इक्कीस लाख की ‘एग्रीकल्चर लैंड’ को एन.ए. (नॉन एग्रीकल्चर लैन्ड) का प्रमाण पत्र दिलवा कर सस्ते में ख़रीद लिया है।
इन दोनों की कुटिलता के बीच फँस गई हैं, हर समय ध्यान योग करने वाली, बीमार रहने वाली कृषकाय अमृताबेन। दुनिया एक जंगल है इसे व्यवस्थित रखने के लिए शेर ही चाहिए। इनके कज़िन का वकील बेटा व कमिश्नर इनका साथ देते हैं तब इनकी समस्या का समाधान होता है। बेन को मुआवज़ा भी मिलता है।
अनुभा ये जानकारी फ़ोन पर पाकर चैन की साँस लेती है लेकिन कुशल लम्बी छुट्टी पर हैं, उन्हें अधिक बी.पी. के कारण आराम बताया गया है। अनुभा स्कूल जाती है तो कोकिला कुशल को गर्म रोटी बनाकर खिला देती है। उन्हें फुर्सत है, घर का मुआयना करते रहते हैं, “अनुभा ! तुम्हें नहीं लगता घर का सारा फ़र्नीचर पुराना हो गया है।”
“लगता तो है लेकिन बच्चों की पढ़ाई तो पूरी हो जाये।”
“उसके लिए तो समय लगेगा। हम लोग नया फ़र्नीचर ले सकते हैं।”
वे दोनों अनेक दुकानों पर घूम-घूम कर फ़र्नीचर पसंद करते हैं। सारा घर ही बदलकर कुछ और हो गया है। अब पर्दे पुराने फीके लग रहे हैं। अनुभा पर्दे का कपड़ा पसंद कर उन्हें बनाने का ऑर्डर दे देती है।
इस ख़रीददारी से कोकिला की आँखें फैल रही हैं। अनुभा एक दिन खुश होती है, “घर का नया ‘लुक’ देने से मन को कितना अच्छा लग रहा है।”
“हूँ......। बस कमी एक नई बीवी की है।” कुशल शरारत से मुस्कराते हैं।
वह चिढ़ती नहीं है,“मैं भी यही सोच रही थी, नया सोफ़ा हो, नये पर्दे हो, तो शौहर भी नया हो तो क्या बात है?”
कुशल का चेहरा देखने लायक हो गया है। वे बात बदल देते है, “कोकिला भी यही कह रही थी ऐसा सोफ़ा सारी कोलोनी में नहीं है।”
“अच्छा तो अब कोकिला आपकी कम्पनी है।”
“छी ! क्या सोचती हो?”
घर के इस बदलाव से कोकिला में उसे कुछ बदलाव लगता है। कुछ अजीब तरह के उत्साह में रहती है, गला फाड़कर बात करती है। वह इस बदलाव को अनदेखा कर उससे कहती रहती है,“कोकिला । तू दिल की बहुत अच्छी है। हम लोग कुछ ख़रीदते है तो दिल से खुश होती है।”
“केम नथी आँटी। अभी तो भैया दसवीं में हैं। उनकी कमाई हो तो और चीज़ें खरीदना।”
कभी-कभी वो ऊट-पटाँग प्रश्न करने लगती है,“बेन ! हमारे यहाँ डेढ़ किलो सींगदाना (मूँगफली) का तेल बापरता (उपयोग) है आप कितना बापरती हो?”
“कोकिला। सब के घर का अलग-अलग होता है। तू ये क्या पूछती रहती है?”
“हाँ, ये बात तो है।”
कभी वह कहती है,“ये मोटे कपड़े की आपकी चुन्नी बेकार पड़ी है, इसमें ढिगंली की फ्रॉक बनवा दूँ?”
अब वह कुशल के आस-पास मँडराती रहती है। अनुभा जब भी उनसे बात कर रही हो तो,‘आँटी’,‘आँटी’ कहती उनके पास आ जाती है। कुशल निर्लिप्त है या नहीं, उसे पता नहीं चल पाता लेकिन बात-बात पर इठलाती, लहराती कोकिला को कुछ हो गया है। एक दिन विवाह में पहनने वाली उसकी दो-तीन साड़ियाँ पलंग पर रखी रह जाती हैं। वह कहती है, “आँटी! अब तो आप मेरे जैसे चटख रंग पहनने लगी हो।”
उसका माथा ठोंकने को दिल करता है। इस अँगूठा छाप औरत से क्या बहस करें, वह क्या बता सकती है इन साड़ियाँ के दाम? कुशल के पास उसका अधिक मँडराना देखकर वह उसे कह देती है,“हमारा आऊट हाउस ख़ाली कर दो।”
कान्तिभाई घबराकर पूछता है,“आँटी जी। हमसे क्या गलती हुई है?”
“कोकिला हर समय मेरी बराबरी करने की कोशिश करती है। परसों कह रही थी
आँटी मेरा टैम खोटा (नष्ट) नहीं होना चाहिए। आपका टैम खोटा हो जाये तो कोई बात नहीं।”
“इसने ऐसा कहा?”
“हाँ, तुम लोग सारे आऊट हाऊस वालों में सबसे अच्छे हो लेकिन इसका अब दिमाग़ ख़राब होने लगा है।”
कोकिला तुरन्त बोल उठी,“आप तो हमारे माँ-बाप जैसे हो..... इस सहर में आपके सिवाय हमारा कौन?....”
वह काँन्तिभाई से कहती है,“इसकी गल्तियाँ बता दी हैं इसे सम्भाल सको तो यहाँ रहो।”
“सारु ! आप फ़िकर मत करो अंकल तो हमारे बाप बराबर हैं। अब आपको परेसानी नहीं होगी।”
जब से कोकिला के लिए उसके दिल में वहम आया है तब से उसकी एक-एक बात नोट करती रहती है। वह रात दस बजे तक दो-तीन लोगों का खाना बनाकर आती है। कुशल व उसके मुँह से हमेशा यही निकलता है,“ये बच्चों को पढ़ाने के लिए कितनी मेहनत कर रही है।” दशा माँ स्थापित करने वाली व दशा माँ देवी बनने बाली कोकिला उसके घर की हदें पार कर चुकी है, प्रत्यक्ष प्रमाण तो कुछ नहीं है।
इस मेहनत में अब उसे कुछ और दिखाई देने लगा है, अदृश्य सा। दीपावली से पहले सारे घर की सफाई में कोकिला जुट गई है। शाम को फ़ैक्टरी से लौटकर काँतिभाई सहायता करते हैं।
दीपावली के दिन वह कोकिला से कहती है, “तु ड्राइंग रूम की दीवारों से जाले, निकाल दे। हल्के हाथ से निकालना। तुझे पता है मुझे चूने व धूल से भयंकर एलर्जी है।”
“केम नथी? अगले साल (पिछले साल) आपने जाले निकाले थे तो अठवाड़े (आठ दिन) बीमार रही थीं।”
“तो सम्भाल कर निकालना।” कहकर वह मिठाई व नमकीन बनाने में लग जाती है। दीपावली की रात को मेडिकल की पढ़ाई करता बेटा आनंद से आता है। ड्राइंग रूम में घुसते ही उसकी चीख निकल जाती है,“ये कोकिलाबेन ने सफ़ाई की है या दीवाली पर घर को ही भूत बना दिया है?”
कामों की लम्बी लिस्ट से सिर उठाने की उसे फुर्सत नहीं थी। अब वह देखती है दीवारों को जाला साफ करने की झाडू से इतना घिसा गया है कि क्रीम रंग की जगह सफेद रंग या प्लास्टर दिखाई दे रहा है। अब उसका अपने पर ध्यान जाता है, उसे बेहद बेचैनी हो रही है। उसे याद आता है कोकिला बेन को उसने चूने का ढेर फेंकते देखा था। वब जल्दी-जल्दी एलर्जी से बचने के लिए दवाई लेती है।
शाम को नीता का फ़ोन है, “दीपावली की शुभकामनायें।”
“तुम्हें भी तुम्हारे परिवार को भी।”
अनुभा से आज की अजीब सी घटना नीता से कहे बिना नहीं रहा जाता।
नीता पूछती है, “क्या बाई को पता नहीं था तुझे धूल से भयंकर एलर्जी है?”
“क्यों नहीं पता था चार वर्ष से हमारे यहाँ काम कर रही है।”
“स्ट्रेन्ज ! तुझे इसने जानबूझकर बीमार डालने की कोशिश की है . तू इसे कल ही निकाल डाल।”
“इतनी अच्छी बाई मिलती कहाँ है?”
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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