एपीसोड –29
अभय उसे हॉस्पिटल के चैक अप का समय बताते हैं ,“करीब ग्यारह बज़े।”
दोपहर वे चहकते से, बेहद खुश लौटते हैं, “तुम क्यों नहीं आईं?”
“कोचिंग इंस्टीट्यूट से फ़ोन आ गया कि चपरासी कॉपीज़ लेकर आने वाला था।”
“ओह।”
अभय खाना खाकर पंद्रह बीस मिनट आराम कर चल देते हैं।
वह तनाव व गुस्से में है तभी आधे घंटे बाद विकेश का फ़ोन आता है, “भाभी जी ! नमस्ते ।”
वह रूखे स्वर में कहती है, “नमस्ते कहिए।”
“भाई साहब क्या घर में है? सारे डिपार्टमेंट में.....अंदर....बाहर.....सब जगह देख लिया है। वे तो यहाँ नहीं है।”
विकेश की जख़्मों पर नमक छिड़कती, खिल्ली उड़ाती आवाज़ उसे बहुत कुछ बता जाती है। वह दृढ़ स्वर में कहती हैं, व झूठ बोलती है, “बस अभी अभी निकल कर गये हैं।” और रिसीवर इतने ज़ोर से रखती है जैसे विकेश के सिर पर उसे पटक रही हो।
उसका दिल तेज़ी से तनाव में और फँस गया है। हाथ-पैरों की शक्ति जैसे छिनी जा रही है। ये तीसरा गुँडा आस्तीन का साँप उनके साथ है। इसके घर इसकी माँ की मृत्यु के बाद खाना लेकर गई थी उस समय का शक सही था।
शाम को अपने चिर-परिचित ख़ूँखार आवाज़ में अभय कहते हैं, “पता है मेरा ‘इको कार्डियोग्राम’ ठीक नहीं आया है। ”
“ये तो होना ही था। एक गुँडी के चक्कर में पड़ोगे, ये भाग-दौड़ करते रहते हो तो और क्या होगा?”
अभय की आवाज़ उबल पड़ती है, “ये सब तुम्हारी वज़ह से हो रहा है। तुम मुझे मारकर ही दम लोगी।”
इनकी समझ के तन्तु सब नष्ट कर दिये गये हैं। क्या समझाये इन्हें? सामने बात करना ठीक नहीं है। दूसरे दिन ग्यारह बजे उनके ऑफ़िस फ़ोन करती है।
“कैसे फ़ोन किया?” वही दहाड़ती आवाज़ है।
“देखो! अभय मैं बहुत बैचेन हूँ। तुम्हारा इको कार्डियोग्राम ठीक नहीं आया।”
“तो ! तो क्या हुआ? साल भर से तुम घर में शांति नहीं रहने दे रहीं।”
“मेरी बात तो सुनो। मैं समझती थी कि दो ही गुँडे हमारा घर बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन ये तीन हैं। तुम्हें किसी ने ऑफ़िस टाइम में विकेश के घर के आस-पास देखा है। प्रतिमा नौकरी पर चली जाती है। घर पर नहीं रहती। वह तुम्हें बर्बाद करने में लगा है। कल फ़ोन करके मुझे भड़का रहा था कि तुम ऑफ़िस में नहीं हो।”
“तुम झूठ बोलती हो और कौन से तीन गुँडों की बात कर रही हो?”
“बबलू जी व कविता। विकेश पर शक तो मुझे पहले ही था। तुम्हारे ऑफ़िस के लोगों ने कविता को ‘आइडेन्टीफ़ाई’ कर लिया है।” ये बात वह झूठ ही कह जाती है।
“तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो रहा है, इलाज करवाओ।”
लंच के लिये आये हुए अभय का चेहरा हैवानियत से चमक रहा है। आँखें जैसे फटी पड़ रही हों। तो उन्हें पूरी चाबी भरकर भेजा गया है।
“तुम ऑफ़िस में ऊटपटाँग फ़ोन मत किया करो।”
“तुमसे सामने बात करती हूँ तो तुम लड़ते हो।”
“लड़ूँगा नहीं.....चुड़ैल, बदमाश चैन से नहीं जीने देती।” वे पीछे का दरवाज़ा खोलकर बाहर आऊटहाऊस में देख आते हैं वहाँ कोई नहीं है।
वह समझ गई है इन्हें किस हद तक जाने के लिए कहा गया है। खाना मेज़ पर लग चुका है। वह तेज़ कदमों से बाहर की दुकानों से कुछ भी ख़रीदने के चल देती है, कुछ भी। वह कैसे अभय पर गुस्सा करे, इनकी चेतना तो जाने किस देश में निष्कासित कर दी गई है। वह छोटा-मोटा सामान खरीदती जा रही है व सोचती जा रही है
ये दुकानदार क्या सोच सकते हैं ऊपर खिड़की के पर्दे के पीछे एक भयानक औरत रहती है।
लौटकर देखती है अभय खाना खाकर आराम करने चले गये हैं। वह भयानक पल को टालने में कामयाब रही है।
ये नई बात एम.डी. को बताकर ही रहेगी। वह बबलू जी को कार्यालय में बुलवायेगी, कहेगी या तो उसकी पुलिस में रिपोर्ट करें या मोबाइल नम्बर्स ट्रेस करवायें। वह तीसरे पहर एम.डी. के ऑफ़िस तेज़ कदमों से चल देती हैं।
उनका पी.ए. उत्तर देता है, “साहब दस दिन के लिए दिल्ली गये हैं।”
वह बोझिल कदमों से घिसट कर कदम र खती घर पहुँचती है क्या करें ?
बस एक ही बात दिमाग़ में घूम रही है कि अभय का इको कार्डियोग्राम ठीक नहीं आया। ये तीन गुँडे उन्हें उत्तेजित कर, क्रोधित कर, मौत की कगार की तरफ़ खींचे ले जा रहे हैं।
दूसरे दिन वह अभय के ऑफ़िस जाते ही उनकी डायरी में से उनके विभाग के मैनेजर आकाश जी का मोबाइल नम्बर ढूँढ़कर उसे डायल करती है।
“मैडम ! आप ‘डिपार्टमेंटल’ फ़ोन पर बात करिए।”
“नो सर! आई वॉन्ट योर हेल्प।” उसकी आवाज़ शर्म से काँप रही है, वह कहती है, “आप हम लोगों से उम्र में बहुत छोटे हैं लेकिन मुझे अपनी पर्सनल प्रॉब्लम आपसे ‘डिस्कस’करनी है।”
“प्लीज़! डोन्ट माइन्ड कहिए।”
“जी आप अभय को बहुत ज़ेन्टल समझते होंगे।”
“जी मैं क्या सारा ऑफ़िस जानता है। ही इज़ ए थॉरो जेन्टल पर्सन।”
“ऐसा नहीं है, वे गुँडों से घिर कर बेहद खूँखार हो रहे हैं।”
“आप क्या कह रही हैं? आइ कान्ट बिलीव।”
“मैं सच कह रही हूँ, आप उन्हें रोकिए।” संक्षेप में वह सारी समस्या बता देती है।
“मैं देखता हूँ कि मामला क्या है। डेफ़िनेटली आई विल हेल्प यू।”
शाम को अभय गुस्से से खौलते चले आये, “सारे घर का तमाशा बना दिया है।”
“मैंने या तुमने? तीन गुँडे तुम्हारी जान से खेल रहे हैं मैं कैसे चुप रहूँ ? मैं तुमसे वायदा करती हूँ मैं इन गुँडों से तुमको छुड़वाकर ही रहूँगी।”
“तुम जानती हो आकाश साहब ने लालवानी, सुमेश व विकेश को बुलाकर कह दिया है कि मैं इतना बड़ा विभाग सम्भालूँगा या लोगों की ‘ पर्सनल प्रॉब्लम’ सॉल्व करता रहूँगा? आइन्दा से मेरे ऑफ़िस फ़ोन मत करना।”
“ये तुमसे विकेश गुंडे ने कहा होगा, मुझे उन्हों ने राहत दी है कि वे मेरी सहायता करेंगे।”
“तुम झूठ बोलना बंद करो।”
“अभय ! तुम बात क्यों नहीं समझ पा रहे? ”
“विकेश मेरा दोस्त है, वह ग़लत क्यों कहेगा?”
“वह आस्तीन का साँप है और हमने बरसों से अपने घर दूध पिलाया है।”
“यू शट अप।”
सुबह ही आकाश सर का फ़ोन आ जाता है, “अभय हैं?”
“जी बाथरूम में है।”
“मैंने इनके पीछे कुछ आदमी लगा दिये हैं मैडम ! डोन्ट वरी।”
“थैंक्स।”
उनकी पद की वरिष्ठता देखकर कैसे कहे उनसे कि उन्होंने विकेश को बताकर गड़बड़ कर दी है। वह अभय को अलर्ट कर देगा।
फिर भी वह उस दोपहर बेहद गहरी नींद में सोती हैं। एक सपना देखती है कि दो कमरों में दो काले भयानक नाग फन फैलाये झूम रहे हैं। उसे एकटक घूर रहे हैं। वह पसीने-पसीने होकर बैठ जाती है। सपने में तीन नाग दिखाई देने चाहिये थे। तो अलग-अलग घर के दो नागों का खेल है यह, तीसरा नाग तो शिफ्ट ड्यूटी करता अधसोया सा जागता रहता है। नाग भी क्यों, एक काली नागिन व एक आस्तीन के ज़हरीले साँप का रचा ज़ाल है।
अभय उसी दिन ऑफ़िस से लौटकर कहते हैं, “तुम अपने को बहुत स्मार्ट समझती है। सब मेरे विभाग में तुम्हें साइकिक समझते हैं।”
“वॉट? साइकिक मैं हो रही हूँ या तुम हो रहे हो? बदमाश लोगों के साथ बैठकर अच्छे खासे घर मे आग लगा ली है। तुमसे कौन कह रहा था कि तुम्हारे विभाग में मुझे साइकिक समझते हैं?”
“विकेश ने मुझे सब बता दिया है।” ये कहते अभय फटी-फटी आँखों से शून्य में देख रहे हैं जैसे दूरदर्शन पर उद् घोषिका सामने लिखी इबारत पढ़ती जाती है।
“और क्या बता दिया है?”
“अपने पति की ऑफ़िस में शिकायत करोगी तो उसे क्या समझा जायेगा?”
“विकेश से कह देना मुझे सारी दुनियाँ साइकिक समझे या पूरा पागल मुझे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने तुम्हें बचा लिया है। कुछ लोगों ने उस पिशाचिनी को पहचान लिया है, अब ज़रा घर से निकल कर देखें।”
उसकी इस बात की प्रतिक्रिया उस घर पर देखने को मिलती है। उस घर के सारे दरवाज़े कसकर बंद रहते हैं। एक कमरे की बिज़ली जल रही होती है। कहीं एक खुशी है खुलकर खेलती नागिन को उसने बिल में बंद रहने के लिए मज़बूर कर दिया लेकिन ड़र से रुँधे उसका कलेज़ा अभी भी खुलकर साँस नहीं ले पा रहा। माथा अभी भी भारी रहता है, हाथ-पैर ढ़ीले।
पंद्रह-बीस दिनों बाद लालवानी व सुमेश अभय के ऑफ़िस जाने के डेढ़ घंटे बाद आ जाते हैं। वह अवसाद से भरी उनकी नमस्ते लेती है।
सुमेश शांत है। लालवानी कुछ हल्के गुस्से से उत्तेजित है क्योंकि किसी औरत ने पहली बार ऑफ़िस तक पति की शिकायत पहुँचाई है, “भाभी जी! आप ये तमाशे बंद करिए।”
“मेरे जैसी उम्र की शिक्षित स्त्री कुछ कह रही है और आपको ये तमाशा लग रहा है?”
“देखिए, सर जब चेन्नई जा रहे थे को मैंने आपसे मज़ाक किया था और आप उसे सच समझ बैठी?”
“वॉट डु यू मीन? क्या मैं आपको इतनी बेवकूफ़ लगती हूँ कि किसी के मज़ाक के कारण ये हंगामा करूँगी? मेरी अपनी बुद्धि नहीं है ? ये तीन गुंडे इनकी जान से खेल रहे हैं मैं कैसे चुप रहूँ ? बबलू जी को अपनी आँख से इनके पास अपनी बीवी को ले जाते हुए देख चुकी हूँ। ये लोग धंधे वाले हैं।”
“हम लोगों ने पता किया है बबलू जी का परिवार तो बहुत शरीफ़ परिवार है।”
“वह हमारे यहाँ भी तो ढ़ाई वर्ष से आ रहा था। तब मैं कहाँ समझ पाई थी? इसका पैसे वाला जीजा जब से यहाँ से गया है तब से ये हमारे घर पर झपटी है।”
सुमेश शराफ़त से कहते हैं, “ भाभी जी ! आपकी बात मेरी समझ में नहीं आ रही कोई औरत किसी के साथ ऐसा क्या कर सकती है कि उसका दिमाग़ ही कुछ सोच न पाये?”
“मोबाइल से ‘वल्गर टॉक्स’ करके इनके सोचने समझने की शक्ति छीन ली है।”
“मुझे आकाश साहब ने सर के पीछे लगाया था। मैंने तो दो बार साहब का पीछा किया। एक बार ये बैंक गये थे। दूसरी बार फ़ोन बिल देने।”
“उन्होंने विकेश को भी तो बुलाया था। विकेश ने इन्हें अलर्ट कर दिया तो क्या मिलता? मैं तो देख ही रही हूँ। टी.वी. सीरियल में ये सब दिखाया जा रहा है।”
लालवानी थोड़ा बदतमीज़ी से बोल उठते हैं, “सर हमारे बुज़ुर्ग हैं। इस उम्र में आप उनका तमाशा बना रही हैं। आप में ‘इगो’ बहुत है।”
“आप मुझे जानते कितना है जो मेरे ‘इगो’ की बात कर रहे हैं? मैं क्या इनकी दुश्मन हूँ? गलत लोगों ने इन्हें फँसा लिया है। मैं इन्हें इस फंदे से निकालना चाह रही हूँ। इन्हें ‘तलाक’ ‘तलाक’ रटाया जा रहा है।”
“कोई औरत बिना बात शक करेगी तो हर पति यही कहेगा।”
लगता है लालवानी अपने को अक्लमंद समझता हुआ हर मामले का अंत करने अपनी तरफ़ से ही निर्णय देने आया है, “आप तो ये भी कह रहीं है विकेश इनकी ‘हेल्प’ कर रहा है।”
“‘हेल्प’ ही नहीं कर रहा आग में घी डाल रहा है।”
“जाने दीजिये, वह ऐसा क्यों करेगा?”
“आस्तीन का साँप है। उसे पता है इस घर में वह मेरे कारण पैर नहीं जमा पाया। उसके मन में और भी बातों के कारण जलन तो है ही।”
“अब आप ये सब छोड़ दीजिये, नहीं तो अख़बार में आयेगा, टी.वी. चैनल्स पर आयेगा, आप के घर की बदनामी होगी।”
तो विकेश ने ये सब रटा कर भेजा है। कहीं इको-कार्डियोग्राम का गड़बड़ आना भी तो अभय को रटाया कोई बहाना को नहीं था ? वह दृढ़ स्वर में कहती है, “अख़बारों में टी.वी. चैनल पर होने दीजिये बदनामी। अभय की जान से बढ़कर मेरे लिए और कोई चीज़ नहीं है क्योंकि यही एक ऐसी चीज़ है जो जाकर फिर कभी वापिस नहीं आ सकती।”
न्यायाधीश बनने आये लालवानी व सोमेश खिसियाये से उठ जाते हैं, “सर तो बहुत सीधे हैं। आपके शक का कोई इलाज़ नहीं है।”
“सीधे होते तो इतनी हिम्मत करते?” वह बोल रही है या चीख़ रही है, “मेरे बच्चे मेरे साथ हैं। मेरी बर्थ डे ‘सेलिब्रेट’ करने छुट्टी लेकर आ रहे हैं। अगर मैं साइकिक हो रही होती तो सबसे पहले उन्हें पता लगता।”
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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