मेरा स्वर्णिम बंगाल
संस्मरण
(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)
मल्लिका मुखर्जी
(10)
मैंने खिड़की का काँच खोलकर एक राहदारी से पूछा कि मामला क्या है? उसने कहा, ‘स्कूल में परीक्षा चल रही है, कल अध्यापक ने एक छात्र को परीक्षा में चोरी करते हुए रोका था। आज सुबह उसी छात्र ने उनके निवास स्थान पर पहुँचकर उनकी हत्या कर दी। इस घटनासे गुस्साए दूसरे छात्रों ने यह जूलूस निकाला है।’
अब डरने की बारी हमारी थी। मौसी कुछ ज्यादा ही संवेदनशील है, उन्होंने जोशिम भाई को तुरंत ही कार को वापस लेने के लिए कहा। हाल यह था कि वापस घूमना बड़ा मुश्किल था, पर जोशिम भाई के क्या कहने! कार मुड़ गई।
मैंने उनसे कहा, ‘आप का नाम तो गिनीस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकोर्ड्स में आना चाहिए। इतनी-सी जगह से आपने गाडी को मोड़ा कैसे?’
वे हँसने लगे, ‘दीदी, हमारे लिए तो यह रोजमर्रा की बात है।’
अब हम एक नए रास्ते से चल पड़े। मेरा मन खिन्न हो गया था। मैंने अपनी पढाई के दौरान कभी ऐसा सोचा भी नहीं था कि परीक्षा में चोरी कर सकते हैं। परिणाम जो भी हो अपनी मेहनत से हासिल करना है। अचानक बचपन की एक घटना याद आई और चेहरे पर मुस्कान छा गई।
मौसी ने पूछा, ‘बात क्या है जो मुस्कुरा रही हो?’
मैंने कहा, ‘मौसी, इस छात्र की घटना से मुझे एक बात याद आ गई, जब पापा का पोस्टिंग बाजवा रेल्वे स्टेशन पर था, मैं वाकळ विद्यालय में सातवी कक्षा कि छात्रा थी। मिड टर्म परीक्षा में मैं समाजशास्त्र विषय में फेल हो गई थी। मुझे इतिहास देखकर ही बुखार आ जाता। मैं सोचती कौनसी घटना कब घटी उससे हमें क्या लेना-देना? भूगोल में भी मैं अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाती थी और नागरिक शास्त्र, बाप रे! खैर, फेल होने पर टीचर ने क्लासरूम में खड़ा कर दिया वह अलग से। उन्हें भी इस बात का दुःख हुआ था कि बाकी विषयों में अव्वल रहनेवाली छात्रा का प्रदर्शन उनके ही विषय में इतना सामान्य क्यों?’
मौसी ने बड़ी उत्सुकता से पुछा, ‘फिर?’
मैंने कहा, ‘मौसी, आगे ही तो क्लाइमेक्स है! स्कूल की बात तो ख़त्म हुई, अब पापा की बारी थी। मैं अपने पढाई काल में पहली बार फेल हुई थी, ऐसे में पापा का सामना करना मुश्किल था। मैंने एक चाल चली जो मेरे बाल सुलभ मनमें उस वक्त आई कि पापा को बताऊंगी ही नहीं। वार्षिक परीक्षा में सब रट लूंगी और पास हो जाऊंगी लेकिन एक समस्या और थी।’
‘क्या?’ मौसी सुनने को उत्सुक थी।
‘परिणाम पत्रक पर पापा के हस्ताक्षर चाहिए थे। उपर से समाजशास्त्र विषय में जो सौ में से तीस मार्क्स मिले थे उस मार्क्स के नीचे लाल रंग की स्याही से लाइन अंकित थी। मैंने एक उपाय ढूंढा। मरता क्या न करता? दूसरे दिन पापा की सुबह की शिफ्ट थी। मैं दस बजे तैयार हो गई। स्कूल बेग कंधे पर झुलाया और एक हाथ में वह पत्रक लेकर बाजवा रेल्वे स्टेशन की ओर चल दी। पापा के कमरे में प्रवेश करने से पहले पत्रक में जहाँ लाल लाईन खिंची गई थी उसे एक उंगली से ऐसे दबाया ताकि पापा देख न सके। अन्दर प्रवेश करते ही पापा प्रश्नार्थ दृष्टि से देखने लगे। मैंने संक्षिप्त में उन्हें बताया कि मैं कल उनसे इस पत्रक पर हस्ताक्षर करवाना भूल गई थी। वे कुछ कहें उससे पहले ही मैंने कह दिया कि अभी स्कूल जाने में देरी हो रही है, शाम को आकर परिणाम बता दूंगी। पापा भी व्यस्त थे। उन्हों ने हस्ताक्षर कर दिए। पापा के सामने मेरा पहला झूठ!’
मेरा मन भर आया। मौसी की आँखें भी छलक आई।
‘कोई बात नहीं, तुम्हारा उद्देश्य तो गलत नहीं था। तुम जीजा जी को दुःख पहुँचाना नहीं चाहती थी, यही न?’
‘हाँ, मैं बिलकुल यही चाहती थी क्योंकि मैं जानती थी कि यह जानकर उन्हें बहुत दुःख होगा।’
‘चलो कोई बात नहीं, उन्हें पता नहीं चला और तुम वार्षिक परीक्षा में पास भी हो गई।’
‘कहाँ मौसी, उन्हें पता चल गया, यही तो दुःख की बात हुई।’
हमारी कार विक्रमपुर की ओर दौड़ रही थी। मौसी का कुतूहल बढा, ‘कैसे?’
‘झूठ बोलने की आदत नहीं थी न! समझ में नहीं आया, इसका असर कहाँ तक था और मुझे और क्या रक्षात्मक उपाय करने चाहिए थे। मेरी एक अंतरंग सहेली थी, मीनाक्षी पटेल, जो परीक्षा के समय हमारे घर पढ़ने आया करती थी, रात को रुक भी जाती थी। मैं भी कभी-कभी उसके घर चली जाती थी पढने। वार्षिक परीक्षा से कुछ दिन पहले मीनाक्षी हमारे घर पढ़ने आई। हम दोनों आगे वाले बरामदे में लगी खाट पर पढ़ रहे थे।
पापा की दूसरी शिफ्ट यानि दोपहर तीन बजे से रात के ग्यारह बजे की ड्यूटी थी। मैं तो पढ़ते-पढ़ते सो ही गई। वैसे भी मैं देर रात तक जाग कर पढ़ नहीं पाती थी। पापा आये। मीनाक्षी से पढ़ाई पर शायद कुछ चर्चा हुई और मिड टर्म परीक्षा के बारे में भी। मीनाक्षी ने उन्हें बता दिया कि मैं समाजशात्र में फेल हुई थी।’
‘फिर?’
‘फिर क्या? पापा ने मुझे नींद से जगाया और पूछा, ‘बेटे, तुम्हारे मिड टर्म परीक्षा के परिणाम के बारे में जरा बताना।’
मैंने कहा, ‘पापा, मैंने आपको बताया तो है कि मेरा परिणाम अच्छा ही है। सभी विषय में अच्छे मार्क्स मिले हैं।’
पापा बड़े गुस्से में थे। बोले, ‘फिर झूठ!’
मैंने मीनाक्षी की ओर देखा और सब कुछ समझ में आ गया। अब झूठ बोलने का कोई मतलब नहीं था।
मैंने डरते हुए कहा, ‘पापा, आपको दुःख होगा सोचकर ही मैंने झूठ बोला।’
पापा बोले, ‘तुम्हारे फेल होने से ज्यादा दुःख तो मुझे तुम्हारे इस झूठ से हुआ है।’
‘ओह!, ये ठीक नहीं हुआ।’ मौसी बोली।
‘मुझे अपने झूठ पर बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। पापा अन्दर के कमरे में चले गए। मीनाक्षी ने करुण निगाहों से मेरी तरफ देखा। मैंने उसे भी सांत्वना दी क्योंकि उसका तो कोई कसूर था ही नहीं! मौसी आज पापा होते तो मैं उनके पैर छूकर फिर एक बार माफ़ी मांगती।’
रास्ता काफ़ी कट चूका था। हम लोग श्रीनगर से भी आगे निकल चुके थे। करीब आठ कि.मी. जाने के बाद मावा नामक एक गाँव आया। एक छोटी-सी दुकान पर जाकर जोशिम भाई ने आगे का रास्ता पूछा।
दुकानदार ने कहा, ‘सामने जो पतली कच्ची-पक्की सड़क दिख रही है, उसीसे आगे बढ़ जाइए।’
क़रीब छह कि.मी. अन्दर जाने पर कनकसार गाँव आ जायेगा। एक बात पर मेरा खास ध्यान गया। यहाँ के लोग बहुत ही भले और मिलनसार थे। जिनसे भी हमने रास्ता पूछा, उन्होंने सही मदद की। छह कि.मी. जाने पर ही एक गाँव दिखाई दिया। थोडा अन्दर की तरफ जाते ही एक पेड़ पर टंगा बोर्ड दिखाई दिया जिस पर बांग्ला भाषा में लिखा था ‘कनकसार’।
मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा, ‘मौसा जी, वो देखो बोर्ड! हम सही जगह पर आये हैं।’
हम लोग हमारे तीसरे और आख़िरी गंतव्य स्थान तक पहुँच गए थे। हमारे बांग्लादेश दौरे का उदेश्य परिपूर्ण हो रहा था। हमें कार से उतरकर रुकते देख कुछ लोग इकठ्ठे हो गए। हमने वहाँ आने का उदेश्य बताया। सभी रुचि लेकर सुन रहे थे। मौसा जी ने कुछ देर उनसे बात की और जज बाड़ी इलाके का पता पूछा तो तुरन्त एक व्यक्ति हमारे साथ चल दिया। ईंटें बिछाकर बनाई हुई पगडंडी पर हम चल पड़े। अदभुत! पगडंडी के दोनों ओर नारियल, सोपारी, कटहल और पता नहीं कितने तरह-तरह के पेड़ पौंधो से आच्छादित जिसे तकरीबन वन ही कहा जा सकता है। यहाँ की हरियाली देखकर मेरा मन जैसे लहराने लगा। हम चलते गए, बीच-बीच मे छोटे-छोटे टीन या काठ के बने घर।
एक बड़े से तालाब के पास हम रुके, उस सज्जन ने कहा, ‘इसी तालाब के पास जज का बंगला था, इसी कारण यह इलाका जज बाड़ी के नाम से मशहूर था।’
मौसा जी बड़े खुश हुए क्योंकि इसी जगह के आसपास कहीं उनके पापा का मकान था। यहाँ सभी मकान मोटे काठ की नींव पर खड़े थे। दीवारें भी टीन की या काठ की बनी हुई थी। छत पर भी टीन लगा था, यानि कुल मिलाकर वजन मे हल्के फुल्के यह मकान एक या दो कमरे के ही बने हुए थे। कुछ महिलाएँ बाहर काम कर रही थी। हमें देखकर उनके चेहरे पर जैसे कुछ डर की रेखाएँ उभर आई।
वे पूछने लगी, ‘किसका काम है?’
हमने कहा, ‘नहीं-नहीं, आप निश्चिंत रहिए, हम किसी से मिलने नहीं आये हैं। हम तो बस घूमने आये हैं।’
कुछ देर रूककर हम वहाँ से लौट आये। मुझे लगा, लौटते हुए मौसा जी की दृष्टि में वह समय तादृश हो रहा था जब उनके माता-पिता का परिवार यहीं कहीं रहता होगा। उन सज्जन से मैंने इस गाँव के बारे में कुछ जानना चाहा।
उन्होंने कहा, ‘कनकसार की आबादी 2000 लोगों की है जिनमें क़रीब 700 लोग हिन्दू परिवार से हैं। क़रीब दो सौ मकान है।’
यहाँ कुछ देर रुककर हम ढाका के लिए रवाना हुए। रास्ते में ही एक होटल में दोपहर का खाना खा लिया। शाम साढ़े पाँच बजे हम होटल पहूँच गए। ढाका शहर में पहूँचने के बाद होटल तक की दस से बारह कि.मी. की दूरी तय करने में हमें क़रीब ढाई घंटे लगे, इतना ट्राफिक! आज हमारी बांग्लादेश की यात्रा पूर्ण हो गई। कल यानि बारह फरवरी की पाँच बजे की फ्लाईट थी। होटल पहूँचकर हम अनूप शाहा से मिले, उनसे कहा कि हम शशांक शेखर शाहा से मिलना चाहते हैं। वे इस होटल के मालिक थे, शाम के बाद आने वाले थे।
उनके आते ही हमें बुलाया गया। शशांक शेखर जी ने हमें अपने कक्ष में आमंत्रित किया। गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया, हम उनसे बहुत देर तक बातें करते रहे। बांग्लादेश के उन लोगों पर उनके मन में एक नाराजगी थी जो 1971 के दमन चक्र के दौरान शरणार्थियों के रूप में भारत चले गए।
उन्होंने कहा, ‘मातृभूमि की रक्षा की खातिर जान भी देनी पड़े तो वाजिब है। कायर थे जो भाग गए।’
उनकी चेम्बर से बाहर आते ही काउंटर पर अनुप शाहा दिखे।
मैंने उनसे कहा, ‘कल हम होटल छोड़ रहे है अनुप जी। हमने जितने बांग्लादेशी टाका एक्सचेंज में लिए थे, लगभग खर्च हो गए हैं, क्या आप हमारा बिल भारतीय रुपयों में स्वीकार करेंगे? अब हमारे पास समय कम है, कल तीन बजे हमें एयरपोर्ट के लिए निकलना है।’
उन्होंने कहा, ‘आप एक काम कीजिए। सुबह दस-साढ़े दस बजे निकलिए। यहीं नज़दीक में ही करंसी एक्सचेंज (currency exchange) के लिए वसुंधरा सेंटर है। वहाँ आपको टाका मिल जायेंगे। टाका में भुगतान करेंगे तो हमारे लिए सुविधा होगी।’
मैंने कहा, ‘ठीक है। हम चले जायेंगे, पर आप यहाँ से किसीको हमारे साथ भेज देना, हमें रास्ता पता नहीं है।’
तय हुआ कि मौसा जी के साथ होटल का एक लड़का जाएगा। सुबह जब हम तैयार हो गए तब मौसी ने मुझे कहा, ‘अनजाने देश में तुम्हारे मौसा का अकेले जाना मुझे ठीक नहीं लग रहा है, तुम भी जाओ उनके साथ।’
मौसा जी बोले, ‘फिर तुम क्यों बाकी रहो! तुम भी चलो।’
आख़िरकार हम तीनों और वो होटल का स्टाफ, दो रिक्षा में चार लोग चलेंगे, यह तय हुआ।
12 फरवरी को सुबह थोड़ी देर से उठे। फोन करके चाय मंगवाई। टी बॉय लोकमान चाय लेकर आया, साथ में असलम भी था। आज हमारा आख़िरी दिन था बांग्लादेश की धरती पर सो मैंने इन दोनों की एक तस्वीर खिंची। चाय के साथ वे आज का अख़बार भी लाए थे, ‘प्रथम आलो’। आज की मुख्य ख़बर है, छात्र आन्दोलन। पिछले कुछ दिनों से बांग्लादेश में छात्र आन्दोलन जोरों पर है। छात्रों की माँग है, वर्ष 1971 के मुक्ति संग्राम में जितने भी युद्ध अपराधी थे सभी को फाँसी की सज़ा होनी चाहिए। शहर के शाहबाग इलाके में आज सारे छात्र मानवता विरोधी एवं देशद्रोही होने के नाते जमात-ए- इस्लामी पार्टी के नेता रह चुके अब्दुल क़ादिर मुल्ला की फाँसी की सज़ा की माँग कर रहे थे।
जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की एक ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिस पर वर्ष 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान युद्ध अपराध के आरोप हैं। इस पार्टी ने पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर रजाकार, अलबद्र, अल शम्स जैसी मिलिशिया बनाई और पूर्व पाकिस्तान की राष्ट्रवादी ताकतों को बेरहमी से कुचला। एक नेता अब्दुल कलाम आज़ाद उर्फ़ बच्चू रजाकार को तो इक्कीस जनवरी 2013 को ही सज़ा-ए-मौत सुनाई गई जो पाकिस्तान भाग चुके थे।
अब्दुल क़ादिर मुल्ला जमात-ए-इस्लामी के एक अहम नेता हैं जिन्हें बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान मानवता के विरूद्ध अपराधों के लिए उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई है। वर्ष 1971 तक मुल्ला जमात-ए-इस्लामी के छात्र विंग के अहम सदस्य बन चुके थे। ये वही वक़्त था जब पाकिस्तानी हुकूमत मुल्क के पूर्वी हिस्से में जारी राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने की कोशिश कर रही थी। यह पूर्वी हिस्सा ही मुल्क से अलग होकर बांग्लादेश बना।
पैंसठ साल के अब्दुल क़ादिर मुल्ला छात्र जीवन से ही बांग्लादेश के सबसे बड़े इस्लामी राजनीतिक दल जमात-ए-इस्लामी से जुड़े रहे हैं। अलबद्र नाम की संस्था को खड़ा करने में जमात का बहुत अहम रोल था। अलबद्र ने युद्ध के आख़िरी दिनों में 200 से अधिक बंगाली बुद्धिजीवियों को अगवा कर उनका क़त्ल कर दिया था। अदालत में अब्दुल क़ादिर मुल्ला पर इस संस्था का सदस्य होने का आरोप लगाया गया।
कहा जाता है कि ढाका के मीरपुर इलाक़े में हुई हत्याओं के पीछे उन्हीं का हाथ था। पाँच फरवरी 2013 को बांग्लादेशी ट्रिब्यूनल ने अब्दुल क़ादिर मुल्ला को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई जिसके खिलाफ़ बांग्लादेश में तीव्र प्रदर्शन शुरु हो चुके थे। युवादल जो कभी राजपथ पर नहीं आए, जिन्होंने कभी सरघस (मिछिल) नहीं निकाला, जिन्होंने कभी नारे नहीं लगाए, आज यह सब कर रहे हैं क्योंकि वे ‘जॉय बांग्ला’ का स्वप्न देख रहे हैं। बांग्लादेश में अब रजाकार नहीं रहेंगे। साम्प्रदायिकता नहीं रहेगी।
बांग्लादेश की मौजूदा संसद ने रविवार को युद्ध अपराध सम्बन्धी कानूनों में बदलाव को मंजूरी दे दी। इससे वहाँ की सबसे बड़ी इस्लामी पार्टी जमात-ए-इस्लामी सहित किसी भी संगठन के ख़िलाफ मुक़दमा चलाकर उसे दंडित किया जा सकेगा। कानून के संशोधन से सरकार, अब्दुल क़ादिर मुल्ला को दी गई आजीवन कारावास की सज़ा को अदालत में चुनौती दे सकेगी।
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