मेरा स्वर्णिम बंगाल
संस्मरण
(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)
मल्लिका मुखर्जी
(8)
10 फरवरी को सुबह उठकर नित्यकर्म से निपटकर हम निकल पड़े विजय मामा के घर की ओर। जब हमने उन्हें अपनी रात वाली दास्तान सुनाई, वे दिग्मूढ़ हो गए। उन्हें काफी शमिर्दगी महसूस हुई। एक ही खून के विभिन्न रंग!
उन्होंने कहा, ‘हमारे इस मकान की हालत तो आप देख ही रहे हैं। मैंने यह सोच कर ही आप लोगों को अनिलदा के वहाँ भेजा था कि उनका बिलकुल नया मकान है, पास ही में बेटी के लिए एक करोड़ की आलीशान कोठी बनाई है। आपकी करोड़ो की जायदाद के मालिक बने बैठे हैं। दो आँखों की शर्म तो उन्हें भी होगी!’ मैं मन ही मन सोच रही थी, क्या भगवान ऐसे लोगों के साथ चलते हैं जो दूसरों के अधिकारों को छीनते हैं और उन्हें रास्ते में तड़पने के लिए छोड़ देते हैं! फिर मानवता किसे कहा जाएगा?
अनिल मामा को छोड़कर बाकी चारों मामा इस जीर्ण-शीर्ण कोठी में एक संयुक्त परिवार में रहते थे। चाय के साथ सुबह का नाश्ता करते हुए हमने ‘रायजान’ चलने की बात की। विजय मामा तुरन्त तैयार हो गए। दस बजे हम रायजान के लिए रवाना हुए। मैमनसिंह से क़रीब बीस कि.मी. का रास्ता है। मुझे याद आया, एक बार मेरे प्रदीप मामा ने उनके दादा जी दोलगोबिंद धर के हस्तलिखित वंश परिचय का रसप्रद इतिहास कहा था, जो आज भी उनके पास सुरक्षित है।
‘धर’ वंश के प्रथम पुरुष रणजीत राम धर कोलकाता के पास स्थित बालि शहर में अपने मामा रमेशचंद्र दत्त के परिवार के साथ रहते थे। दिल्ली सल्तनत के सैन्य में उच्च पद पर कार्यरत थे। एक बार, एक कोर्ट केस के सिलसिले में दिल्ली के काज़ी साहब के साथ शेष परगना के धूबागुड़ा गाँव गए। राजस्व इकाई के छोटे छोटे प्रभाग के रूप में परगना की शुरुआत दिल्ली सल्तनत ने की थी, जिसके अंतर्गत एक या एकाधिक गाँव आते।
कार्य समाप्त कर वापसी में रायजान गाँव में उन्हें हैज़ा हो गया। महामारी के आसार से भयभीत उनके साथी गण उन्हें वहीं एक पेड़ के नीचे रखकर भाग निकले। रायजान के भूस्वामी को पता चला। वे मदद में आये, उस वक्त जो भी चिकित्सा संभव हुई उससे उन्हें बचाया। उनकी प्रतिभा से अभिभूत होकर अपनी इकलौती बिटिया का हाथ उन्हें सौंपा। इस तरह रणजीत राम धर रायजान की जमींदारी के वारिस हुए। मेरे नाना जी ‘धर’ वंश के नौवें वारिस थे।
सड़क के दोनों ओर आँखों को सुकून पहुँचाने वाली हरियाली थी पर सड़क तो अभी भी कच्ची-पक्की ही थी। जोशिम भाई कहने लगे, ‘दीदी, यह सड़क तो बहुत अच्छी बनी है, इससे पहले तो बस इधर-उधर से जहाँ कहीं भी पगडंडी-सी दिख जाए वहीं से जाना पड़ता था।’
मुझे याद आया, नानी माँ ने कहा था कि इतनी बड़ी हवेली में अकेले रह रहे नाना जी जिस रात को वॉशरुम जाते वक्त चक्कर खाकर गिर गए, रातभर वहीं पड़े रहे। सुबह उनकी देखभाल करने वाले साथी नबी हुसैन आए, उन्होंने मालिक को फर्श पर बेहोश पड़े हुए देखा। सारे गाँव में कोई डॉक्टर-हकीम नहीं था। उन्होंने पलभर की देर नहीं की। क़रीब सोलह कि.मी. चलकर, यूँ कहिए दौड़कर मैमनसिंह शहर में नानी माँ के मायके पहुँचे। नानी माँ के मझले भाई डॉक्टर को लेकर पहुँचे, पर बहुत देर हो चुकी थी। नाना जी की मौत हो चुकी थी। जिस जागीर, वैभव को छोड़कर नाना जी कहीं न जा पाए, आज वही जागीर उनका मुँह ताके खड़ी थी! उनके मृत शरीर को घेरकर उनके शातिर रिश्तेदार भी खड़े थे!
करीब आधे घंटे बाद भीड़-भाड़ वाला एक इलाका नज़र आया। नानी माँ की अतीत की स्मृति से मैं वापस आ गई। विजय मामा बोले, ‘यह ताराकांदा बाज़ार है।’
हमारी कार दाई ओर मुड़ी। मौसी ने कहा, ‘माँ हमेशा चकनापाड़ा और ताराकांदा बाज़ार का जिक्र किया करती थी। उनकी सारी खरीदारी यहीं से होती थी।’
पंद्रह-बीस मिनिट बाद हम एक तालाब के सामने रुके। सामने की ओर छोटे-छोटे चार-पाँच मकान दीख रहे थे। आँगन में चार लोग बैठे हुए थे। छ-सात बच्चे खेल रहे थे। कार के रुकते ही सभी जैसे सतर्क हो गए। विजय मामा को कार से उतरते देख उन्होंने चैन की साँस ली।
विजय मामा बोले, ‘लो आ गया रायजान। वो जो तालाब दिख रहा है, उसके ठीक सामने फूफाजी की हवेली थी।’
‘ओह! यह तो वही तालाब लगता है जिसका जिक्र नानी माँ ने न जाने कितनी बार किया था!’ मैं खुशी से उछल पड़ी।
ये तालाब अब थोड़ा छोटा दीख रहा था। पानी भी उतना ज्यादा नहीं था। हो सकता है बरसों तक इसकी खुदाई न हुई हो। भारी बरसात की वजह से मिट्टी भरती गई। विजय मामा ने भी इस बात का समर्थन किया। नानी माँ से यह भी सुना था कि जब घर में कोई प्रसंग हो तब बड़ी-बड़ी रोहू/कतला मछलियाँ इस तालाब से ही पकड़ी जाती थी। तालाब के किनारे एक बहुत पुराना वृक्ष खड़ा था। विजय मामा बोले, ‘यह हरीतकी का वृक्ष है, 100 वर्ष से भी अधिक पुराना है।’
मेरी नजरें नानी माँ को ढूंढने लगी। नानी माँ मेरी अंतरंग सहेली थी। जब भी हम चन्दननगर जाते, दो ही विषय में मेरी रुचि रहती। बांग्ला फ़िल्में देखना और नानी माँ की बातें सुनना। उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन अभिनीत अनगिनत फ़िल्में मैंने किशोरावस्था में ही देख ली थी। दोपहर का खाना खाकर मैं अपनी मौसिओं के साथ निकल पड़ती। तब हर सिनेमा हॉल में महिलाओं के लिए 50 पैसे का टिकट था, वह भी बालकनी के लिए! इस छोटे से नगर में छह सिनेमा हॉल थे।
हम लोग चलकर ही जाते। वापसी में हुगली नदी के तट पर लगे बाज़ार से पाँच पैसे की झाल मुड़ी खरीदकर खाते! नानी माँ की बातें यथार्थ से जुडी घटनाएँ होकर भी फ़िल्मी पटकथा-सी रोचक होती! इस वृक्ष के बारे में भी मुझे उन्होंने बताया था। तालाब के किनारे पगडण्डी, जैसे कोई लंबा-सा अजगर आराम से पड़ा हो! मुझे इस पगडण्डी पर अपनी चचेरी बहनों के साथ उछलती- कूदती माँ की प्रतिच्छाया एक मुग्धा के रूप में दिखाई दी।
इसी रायजान गाँव के जमींदार बीरेन्द्रचन्द्र धर की पहली संतान थी माँ जिन्हें प्यार से सभी ‘रूबी’ कहकर पुकारते। स्कूल में नाम था ‘रेखा’। संपन्न परिवार की बेटी थी, अपने ननिहाल पालखी में सवार होकर जाती थी। मुग्धावस्था में क़दम रखते ही उन्हें भारत के विभाजन की गहनतम पीड़ा झेलनी पड़ी। बहुत कम उम्र में, उन्होंने जीवन के उतार-चढ़ाव के दो अंतिम बिंदुओं को छुआ। पश्चिम बंगाल में आकर उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ कोन्नगर टाउन में कुछ महीनें एक रिश्तेदार के घर रहना पड़ा, फिर नाना जी ने हुगली ज़िले के चंदननगर टाउन में एक किराए का घर लेकर परिवार के लिए रहने की व्यवस्था की। चंदननगर पहले फ्रांस का उपनिवेश था, इसे वर्ष 1950 में भारत में मिला लिया गया।
पापा एक साधारण परिवार में पले बढ़े थे जब कि माँ की परवरिश आलिशान ढंग से हुई थी। उनके विवाह की घटना भी नानी माँ बड़े चाव से सुनाती। ताऊजी और नानी माँ के परिवार को जानने वाले एक गृहस्थ ही पापा के लिए यह रिश्ता लेकर नानी माँ के पास पहुँचे थे।
नानी माँ से उन्होंने कहा, ‘उन्हें कोई दहेज़ नहीं चाहिए बस लड़की सुन्दर और सुशील होनी चाहिए। आप की बेटी सुन्दर है, गोरी है, पढ़ी-लिखी भी है। उन्हें ज़रूर पसंद आएगी। सामने लड़का भी मेट्रिक पास है, बॉम्बे स्टेट के रेल्वे विभाग में नौकरी करता है, सुशील है, सुन्दर भी है, बस रंग थोडा साँवला है।’
इतनी सारी बातों में नानी माँ के दिलको जो बात छू गई वो थी दहेज़ की। संयुक्त परिवार में रह रही नानी माँ की विधवा जेठानी (बड़ी नानी माँ) की बेटी डॉली मौसी, माँ से बड़ी थी और अविवाहित भी।
नानी माँ ने कहा, ‘संयुक्त परिवार में रहकर मैं जेठानी जी की बेटी को नजरअंदाज नहीं कर सकती।’
उन सज्जन ने कहा, ‘दीदी, व्यावहारिक बनिए। मुझे नहीं लगता इसमें आप की जेठानी को भी आपत्ति होगी। बस हाँ कह दीजिए तो मैं उन्हें बुला लूंगा।’
नानी माँ ने बड़ी नानी माँ से अनुमति लेकर हाँ तो कह दी, सोचा, देखें क्या होता है। ताऊजी आए, उन्होंने पहली ही मुलाक़ात में माँ को पसंद कर लिया और झट मंगनी पट ब्याह की बात भी कर दी।
बोले, ‘बस भाई के लिए ऐसी ही लड़की चाहिए।’
नानी माँ मन ही मन खुश तो हुई, पर एक और संकट सामने था। पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बैठे नाना जी की अनुमति कैसे ली जाए। नाना जी को संदेश भेजा गया।
उनका जवाब था, ‘भतीजी का विवाह हुए बिना, बेटी का विवाह नहीं हो सकता।’
नानी माँ से ही मैंने सुना था कि कैसे उन्होंने पहली बार नाना जी की मर्जी के खिलाफ़ एक निर्णय लिया और नाना जी को सारे विवरण के साथ संदेश भेजा कि वे अपनी बेटी का विवाह इसी लड़के से करवाना चाहती हैं। इस खानदान में क्या किसी महिला ने कोई भी निर्णय लिया था कि नानी माँ ले पाती? नाना जी ने स्पष्ट ना कह दी।
मैंने पूछा था, ‘फिर यह शादी कैसे हुई नानी माँ?’
आगे की घटना सुनाते नानी माँ की आँखें चमक उठी थी, ‘मजबूरी की पराकाष्ठा थी, बेटे, मैंने तुम्हारे नाना जी को संदेश भेजा कि अगले महीने विवाह होगा, आपको आना है। मैंने तो मेरे विवाह में जो इस्लामपुरी कांसा की थाली और ग्लास जो मेरे मायके से मिले थे वे भी पॉलिश करवा लिए। ज्यादा कुछ तो था ही नहीं देने के लिए।’
मैंने माँ से बहुत बार सुना था इस्लामपुर, जो मैमनसिंह विभाग के जमालपुर ज़िले का उपज़िला है, कांसे के बर्तन के लिए मशहूर था।
कुछ रूककर वे बोली थीं, ‘जानती हो, तुम्हारे नाना जी ने संदेश भेजा कि वे नहीं आयेंगे!’
‘फिर?’
‘फिर क्या? मैंने परिणाम की परवाह किये बिना इस विवाह को संपन्न कराने का निर्णय लिया। लड़केवालों का बड़ा सहारा मिला था। अनिलचंद्र जी ने कहा था सिर्फ शाखा-सिंदूर से ही काम चल जाएगा, उन्हें और कुछ नहीं चाहिए। मैंने भी तुम्हारे नाना जी को संदेश भिजवाया कि वे नहीं आयेंगे तब भी यह विवाह होगा।’
सुनकर मैंने नानी माँ को गले लगा लिया था, यह कहते हुए, ‘वाह नानी माँ, तुमने इतना अहम् निर्णय अकेले ही ले लिया!’
‘क्या करती? अन्धकार में एक उजाले की किरण दिखाई दे रही थी। देश विभाजन की पीड़ा तिल-तिल हमें मार रही थी। अब रूबी का विवाह किसी जमींदार परिवार में होना संभव नहीं था। तुम्हारे नाना जी विभाजन को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उन्हें लगता था देश फिर एक हो जाएगा, पर पता नहीं क्यों मुझे यह कोरी कल्पना लगती थी।’
वे बोले जा रही थी, ‘मेरे निर्णय से तुम्हारे नाना जी को बड़ी चोट पहुँची, पर वे विवाह से दो दिन पहले आ पहुँचे। जब बारात आई और उन्होंने लड़के को देखा तो देखते ही रह गए! फिर अन्दर के कमरे में जाकर ख़ूब रोये, ये कहते हुए कि सबने मिलकर उनकी लाडली बेटी को कुएँ में फेंक दिया।’
कारण सुनकर मैं हंस पड़ी थी। कारण था पापा का साँवला रंग! आगे नानी माँ ने कहा, ‘तुम्हारे नाना जी बहुत गोरे और सुन्दर थे न, उन्हें साँवला जमाई नहीं चाहिए था। जेठानी जी ने यह कहकर उन्हें शांत करवाया कि काले तो कृष्ण भी थे, सिर्फ रंग ही देखा आपने, एक बार उसके चेहरे को देखा? कृष्ण के जैसा ही स्वरूपवान है हमारा जमाई।’
नानी माँ ने आगे की घटना का जिक्र करते हुए कहा, ‘फिर रूबी जब क्षितीश के साथ ससुराल से लौटी, तुम्हारे नाना जी जमाई से वार्तालाप करके बहुत खुश हुए।’
मैंने कहा था, ‘नानी माँ, मेरे पापा लाखों में एक है तभी तो वे आपके लाडले जमाई राज हैं।’
नानी माँ हौले से मुस्कुराई थी। पापा के बारे में उनका अनुमान सही निकला था। पापा ने जीवनभर माँ को प्यार और सम्मान दिया। कभी उनका दिल नहीं दुखाया।
अपनी बेटी के प्रति नानी माँ का प्रेम देखकर कोई कह नहीं सकता कि नानी माँ रिश्ते में माँ की मौसी थी और दोनों के बीच सिर्फ़ सात वर्ष का फ़र्क था! नानी माँ ने ही बताया था कि माँ जब दो वर्ष की थी, मेलिग्नेन्ट मलेरिया ने उनकी रानी दीदी की जान ले ली, जो सिर्फ़ अठारह वर्ष की थी। माँ की परवरिश का जिम्मा उनकी विधवा दादी माँ को सौंपा गया।
तत्कालीन सामाजिक नियमों के अनुसार विधवा होने के नाते उनका रसोईघर अलग था। वे अपना शाकाहारी खाना ख़ुद पकाती। मांसाहार वर्ज्य था। उन्हें प्याज-लहसुन खाने की भी इजाज़त नहीं थी। विधवाओं का जीवन तब एक अभिशाप से कम न था। इससे दुखद परिस्थिति और क्या हो सकती थी कि जिस उम्र में माँ शाही भोजन लेने की हक़दार थी, उन्हें विधवा दादी का बनाया बिलकुल सादा भोजन खाना पड़ता। इसी कारण माँ को मांसाहार से परहेज था। मैंने उनसे कई बार सुना था कि उनकी परवरिश दादी माँ ने की, पर कभी कोई संदेह नहीं था क्योंकि इतने बड़े संयुक्त परिवार में यह स्वाभाविक था।
क़रीब पाँच वर्ष के बाद 26 वर्ष के नाना जी का पुनर्विवाह स्कूल में पढ़ रही सिर्फ तेरह वर्ष की माँ की आभा मौसी के साथ कर दिया गया, जो अब मेरी नानी माँ थी। उन दोनों के बीच उम्र का फ़ासला सिर्फ़ सात वर्ष का था। सुनकर एक सिहरन-सी दौड़ गई थी मेरे बदन में। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में कन्याओं की स्थिति क्या एक वस्तु से ज्यादा न थी? लेखा मौसीने एक और बात का जिक्र किया था मुझसे।
बचपन में उन्होंने पढ़-पढ़ कर कंठस्थ कर ली थी, बांग्ला में लिखी वो तीन पंक्तियाँ जो उनके पीहर के घर में लगी एक फोटोफ्रेम में कढ़ाई से उकेरी गई थी।
संसार भीषण क्षेत्र सम्मुखे आमार।
कोथाय गो शान्ति देबी, करो शान्तिदान।
तोमार कोलेते आमि कोरिबो बिश्राम।
मतलब ‘संसार एक भयानक क्षेत्र बन मेरे सामने प्रस्तुत है। हे शान्ति देवी, तुम कहाँ हो? तुम्हारी गोद में मैं विश्राम करना चाहती हूँ।’ ये कढ़ाई उस अठारह वर्ष की युवती ने की थी जो मेरी नानी माँ थी! बाद में पंक्तियों के नीचे लिखा गया उनका नाम ‘रानी’ मिटाकर ‘आभा’ कर दिया गया। मिटाने के निशान भी मौजूद थे। मतलब जो दुनिया से मिट गई उसे यादों में भी क्यों रखना?
******